लक्ष्मी शर्मा
कृष्ण याद रखना नहीं भूल जाना सिखाते हैं। गोकुल को.. फिर मथुरा को.. और अंत में द्वारिका को भी कि ये सब मात्र पड़ाव हैं आश्रय नहीं। कहते रहिए उन्हें निर्मोही, लेकिन जब-जब दिखेगा उनके रत्नखचित मुकुट में उड़सा मोरपंख, तब-तब याद आएगा ब्रज का वन प्रान्तर जो किसी द्वारिकेश के यशस्वी भाल पर विराजित है।
कृष्ण बाँधना नहीं, छोड़ना सिखाते हैं। वो पलट कर नहीं आते न यशोदा राधा के पास। लेकिन जब-जब देखेंगे उस छलिया को, नहीं दिखेगा प्रचन्ड, रिपुरारि सुदर्शन चक्र. बस गूँजेगी मुरलिया की एक मीठी तान जो सदा उनके संग रही।
कृष्ण सिखाते हैं लेना. माखन.. गोपिकाओं का मन.. राधा का सर्वस्व.. मथुरा तो कभी द्वारिका।
पर अंत में छोड़ देते हैं सब, रह जाने को अंत समय में एकाकी.. निविड़ एकांत में मर जाने को।
कृष्ण छोड़ते हैं रण.. कहलाते हैं रणछोड़. पर नहीं छोड़ते कर्ण की अनकही पीड़ा को.. भीष्म के कठोर तप को.. और गांधारी के शाप को।
सब जानते हैं कृष्ण करते हैं लीला.. रचाते हैं रास.. छुपाते हैं स्नान करती स्त्रियों के वस्त्र।
पर कितने लोग जानते हैं उन एक हजार विवाहों के पीछे की लीला का सच।
कृष्ण नहीं है सत्यव्रत.. अर्द्धसत्य.. मिथ्या वचन बोलने को उकसाते हैं. पर कब कहा उन्होंने स्वयं को सत्यवादी।
वे सत्य के नहीं मानव-कल्याण के साथ रहे जो किसी भी सत्य या धर्म वाक्य से ऊपर है। वे जीवन के व्यवहारिक सत्य के साथ रहते हैं। फिर चाहे वह द्रौपदी का हो या बर्बरीक का।
वस्तुतः कृष्ण याद को भूलना और पाए को छोड़ना सिखाते हैं।
वो हर बार एक नई व्याख्या से भ्रमित करते हैं, पर इस भ्रम के पार ही सत्य है, काले बादलों के पट में ढँके हरिण्य सा सत्य।
ठीक उनके नीलाभ वर्ण की तरह, जिस से राधा रूपी स्वर्णाभा का प्राकट्य होता है.. जो उनके मूल का सार सत्य है और अंतिम रूप से सिखाता है कि सबके अलग-अलग जीवन हैं.. जीवन-सत्य हैं।
वस्तुतः अपनी समग्रता में कृष्ण 'भगवान की अवधारणा' को भूलने.. भक्ति के त्याग.. लोक-कल्याण को भजने और प्रेम को ध्याने का पाठ है।