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देवी दुर्गा शक्ति स्वरूपा  : फूलो और झानो, जिनकी बदौलत ब्रिटिश हुकूमत को संथाल परगना टिनेंसी एक्ट बनाना पड़ा

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द फॉलोअप डेस्क 

पौराणिक कथाओं में कहा गया है कि देवी दुर्गा और महिषासुर के बीच नौ दिन लड़ाई चली। 10वें दिन देवी दुर्गा ने महिषासुर का खात्मा कर दिया। इसी विजय के उपलक्ष्य में हम नवरात्र मनाते हैं और मां दुर्गा की शक्ति और उनके नौ रूपों की उपासना करते हैं। मां दुर्गा और महिषासुर की ये कथा आज भी प्रासंगिक है क्योंकि हमारे आसपास कई महिषासुर हैं। अलग-अलग स्थानों पर, अलग-अलग भेष धारण किये हुए। कहीं सामाजिक शोषण के अलमबरदार महिषासुर हैं तो कहीं, सियासी महिषासुर। कहीं सामाजिक कुरीतियों के पालनहार महिषासुर हैं, तो कहीं महिला सम्मान और अस्मिता पर डाका डालने वाले महिषासुर। इनसे लड़ने को हमें एक-एक दुर्गा चाहिए। गर्व की बात है कि झारखंड की धरती पर मां दुर्गा सरीखी शक्ति की प्रतीक महिलाओं का अवतरण हर कालखंड में हुआ है। वे महिलाएं हमें मां दुर्गा के नौ रूपों की याद दिलाती हैं। इतिहास गवाह है कि झारखंड की महिलाओं ने अपने समय के महिषासुर को हमेशा मात दी है। उनको पीछे हटने पर मजबूर किया है। द फॉलोअप  की इस खास सीरीज में हम आज से ऐसी ही 10 महिलाओं की कहानी आपको सुनाने जा रहे हैं। सीरीज की पहली किश्त में हम जानेंगे संताल की जुड़वा आदिवासी बहनों फूलो और झानो की कहानी। 

अंग्रेजी सेना को पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ा

सन् 1855 का समय, पहाड़ों और जंगलों से घिरी रणभूमि। एक ओर तोपें, बंदूक, गोला बारूद से लैस अंग्रेजी सेना और दूसरी ओर कुल्हाड़ी और बांस की सूखी लड़कियों से बने तीर-धनुष के थामे वीर संताल आदिवासी। फिर भी अंग्रेजी सेना को पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ा। नामुमकिन सा लगने वाला ये करिश्मा इसलिए हो पाया क्योंकि अंग्रेजों, साहूकारों औऱ ठेकेदारों के खिलाफ हुए इस विद्रोह की कमान 4 भाइयों सिद्धो, कान्हो, चांद और भैरव के हाथों में थी और उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर जंग-ए-मैदान में थीं फूलो और झानो मुर्मू। त्रासद है कि इनमें से किसी की भी प्रमाणिक तस्वीर हमारे पास नहीं है, लेकिन इनके कारनामे और बहादुरी के किस्से सुनकर जहन में खुद-ब-खुद इनकी तस्वीर उभर आती है।

'सखुआ डाली' भेज कर आदिवासियों को प्रेरित किया

लोक कथाओं में जिक्र है कि इस विद्रोह को सफल बनाने के लिए सिद्धो-कान्हो ने घर-घर 'सखुआ डाली' भेज कर आदिवासियों को इसमें शामिल होने के लिए प्रेरित किया था। उनकी दोनों बहनें फूलो औऱ झानो घोड़े पर बैठकर गांव गांव निमन्त्रण देने जातीं। इस दरम्यान अगर कोई अंग्रेज सैनिक या उनका कारिन्दा रास्ते में मिल जाता, तो उसको पकड़ लेतीं और घोड़े से बांधकर गांव ले आतीं। इस जज्बे को देख कर कई आदिवासियों युवतियां विद्रोह में शामिल हुईं। इसी दौर में पाकुड़ के संग्रामपुर में सिद्धो, कान्हो, चांद और भैरव की सेना के साथ अंग्रेजों का भीषण युद्ध हुआ था। एक ओर तीर कमान, भाला बरछा और कुल्हाड़ी थामे जोशीले आदिवासी थे तो दूसरी ओर आधुनिक हथियारों से लैस अंग्रेज़ी सेना। आखिर आदिवासी कितने दिन टिक पाते। भारी संख्या में आदिवासी लड़ाके मारे गए। लड़ाई पहाड़ी क्षेत्र में लड़ी जा रही थी, जिससे आदिवासी परिचित थे। गुरिल्ला युद्ध में भी निपुण,  लेकिन अंग्रेजी सेना ने रणनीति के तहत आदिवासियों को नीचे मैदानी इलाके में उतरने पर मजबूर कर दिया। 

अंग्रेजी सेना के 21 जवानों को मौत के घाट उतारा
आदिवासी उनकी रणनीति समझ नहीं पाए। जैसे ही पहाड़ों से उतरे, अंग्रेजों ने घेराबंदी बनाकर गोलीबारी शुरू कर दी। इसी समय फूलो-झानो ने गोलीबारी की परवाह ना करते हुए हाथों में कुल्हाड़ी लिया और अंग्रेजों के शिविर में प्रवेश कर गयीं। दोनों बहनें अंधेरा होने का इंतजार करने लगीं। सूरज ढला तो अंधेरे का फायदा उठाकर फूलो- झानो ने कुल्हाड़ी से अंग्रेजी सेना के 21 जवानों को मौत के घाट उतार दिया। इस लड़ाई में फूलो और झानो का सामना महिषासुर रुपी जनरल लॉयड, लेफ्टिनेंट थोम्सन, लेफ्टिनेंट रीड और कैप्टन एलेग्जेंडर की फौज से था। दोनों ने अंतिम दम तक हार नहीं मानी और शहीद होने से पहले 21 ब्रिटिश सैनिकों को मार डाला। 

संताल परगना टेनेंसी एक्ट का उदय 
फूलो और झानों की इस अदम्य साहस की याद में संथाल की महिलाएं आज भी अपने सिर पर तीन निशानों का गोदना बनवाती हैं।  इन दोनों के नाम भले ही आज के इतिहास में कम दर्ज किये गये हों, लेकिन आज भी आदिवासी समुदाय की लोक कहानियों और लोकगीतों में इनका जिक्र आता है। बहरहाल, फूलो-झानो का ये कारनामा जब इंगलैंड पहुंचा तो ब्रिटिश हुकूमरानों की नींद उड़ गयी। बकिंघम पैलेस की बुनियाद कंपकंपा उठी। इस शहादत का ही नतीजा था कि इस विद्रोह के बाद आदिवासियों की जमीन की सुरक्षा के लिए ब्रिटिश हुकूमत को संताल परगना टेनेंसी एक्ट बनाना पड़ा। आदिवासी विषयों पर एक अरसे से काम कर रहीं रांची की वासवी कीड़ो ने अपनी किताब अलगुलान ओरथेन, ‘क्रांति की महिला’में उन महिलाओं के बारे में जिक्र किया हैं जिन्होंने आजादी और आदिवासी पहचान के लिए अपनी जान की परवाह नहीं की थी। वासवी के अनुसार 1855 के विद्रोह की आग को तेज करने में, सिद्धो-कान्हो के बाद जिन लोगों को श्रेय दिया जाता है उनमें फूलो और झानो का नाम सबसे पहले आता है।