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वीर! -4 : सावरकर के दर्शन में प्रतिशोध और प्रतिहिंसा के तत्व कितने - एक

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गांधीवादी चिंतक डॉ. राजू पाण्डेय की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक "सावरकर और गांधी" के संपादित अंश हम आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। आज चौथी कड़ी। -सं.

डॉ. राजू पांडेय, रायगढ़:

सावरकर के आधुनिक पाठ में उन्हें वैज्ञानिक, आधुनिक और तार्किक हिंदुत्व के प्रणेता तथा हिन्दू राष्ट्रवाद के जनक के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।  रणनीति कुछ ऐसी है कि जब सावरकर के इन कथित विचारों को प्रचारित किया जाता है तो इनकी तुलना अनिवार्य रूप से गांधी जी के विचारों के साथ की जाती है। गांधी जी को वर्ण व्यवस्था के पोषक, परंपरावादी, दकियानूस होने की हद तक धर्मभीरु और अतार्किक व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया जाता है-  एक ऐसा व्यक्ति जो सावरकर के प्रखर तर्कों के आगे निरुत्तर हो गया है किंतु अपना अनुचित हठ छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। दरअसल ऐसा है नहीं।


सावरकर के चिंतन का सार संक्षेप चंद शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है- हिंसा, प्रतिशोध, घृणा, बर्बरता। आक्रामक तथा क्रूर हिन्दू राष्ट्र की स्थापना उनका स्वप्न था। सावरकर ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक हिंदुत्व में हिंदुत्व को निम्नानुसार परिभाषित किया- "हिन्दू वही है जो सिंधु नदी से सिंधु समुद्र पर्यंत विस्तृत इस देश को अपनी पितृ भूमि मानता है, जो रक्त संबंध से उस जाति का वंशधर है जिसका प्रथम उद्गम वैदिक सप्त सिन्धुओं में हुआ और जो बाद में बराबर आगे बढ़ती हुई, अंतर्भूत को पचाती और उसे महनीय रूप देती हुई हिन्दू जाति के नाम से विख्यात हुई, जो उत्तराधिकार संबंध से उसी जाति की उसी संस्कृति को अपनी संस्कृति मानता है जो संस्कृत भाषा में संचित और जाति के इतिहास, कला, धर्म शास्त्र, व्यवहार शास्त्र, रीति नीति, पर्व और त्यौहार – इनके द्वारा अभिव्यक्त हुई है और जो इन सब बातों के साथ इस देश को अपनी पुण्य भूमि, अपने अवतारों और ऋषियों की, अपने आचार्यों और महापुरुषों की निवास भूमि तथा सदाचार और तीर्थ यात्रा की भूमि मानता है। हिंदुत्व के ये लक्षण हैं- एक राष्ट्र, एक जाति और एक संस्कृति। इन सब लक्षणों का अंतर्भाव करके संक्षेप में यों कहा जा सकता है- हिन्दू वह है जो सिंधु स्थान को अपनी पितृ भूमि ही नहीं पुण्य भूमि भी मानता है।"(पृष्ठ 120)। 


मुसलमानों और ईसाइयों को सावरकर की सलाह(सावरकर के समग्र वाङ्गमय को पढ़ने के बाद पाठक स्वयं सलाह शब्द को चेतावनी शब्द से प्रतिस्थापित कर देंगे) है- "तुम जो जाति,रक्त, संस्कृति और राष्ट्रीयता के बंधनों से हिन्दू ही हो और जिसे हिंसा के हाथ ने ही अपने पितृ गृह से जबरदस्ती खींच लिया, तुम्हें यही करना है कि अपनी अनन्य भक्ति इस माता को अर्पण करो और इसे केवल पितृ भूमि नहीं पुण्य भूमि मान कर पूजो और इस तरह फिर से हिन्दू संघ में आ जाओ।---- बोहरा, खोजा, मेमन तथा अन्य मुसलमानों और ऐसे ही क्रिस्तानों के लिए यही रास्ता खुला है और यह केवल उनकी मर्जी पर है कि वे इसे स्वीकार करें या न करें। परन्तु जब तक वे इस मार्ग पर नहीं हैं हम उन्हें हिन्दू नहीं कह सकते।"


सावरकर इस प्रकार टेरीटोरियल नेशनलिज्म के स्थान पर कल्चरल नेशनलिज्म की अवधारणा को प्रस्तुत कर रहे हैं। टेरीटोरियल नेशनलिज्म का उपहास श्री गोलवलकर ने अपनी पुस्तक बंच ऑफ थॉट्स के दसवें अध्याय में खूब उड़ाया है। उनके अनुसार भी भारत में पैदा हो जाने मात्र से कोई हिन्दू नहीं हो जाता उसे हिंदुत्व के सिद्धांत को अपनाना होगा।


 सावरकर के हिंदुत्व का सार संक्षेप प्रस्तुत करते हुए प्रोफेसर शम्सुल इस्लाम लिखते हैं - "सावरकर ने हिंदुत्व के सिद्धांत की व्याख्या शुरू करते हुए हिन्दुत्व और हिंदू धर्म में फ़र्क किया। लेकिन जब तक वे हिंदुत्व की परिभाषा पूरी करते, दोनों के बीच अंतर पूरी तरह से ग़ायब हो चुका था। हिंदुत्व और कुछ नहीं बल्कि राजनीतिक हिंदू दर्शन बन गया। यह हिंदू अलगाववाद के रूप में उभरकर सामने आ गया। अपना ग्रंथ समाप्त करते हुए सावरकर हिंदुत्व और हिंदूवाद के बीच के अंतर को पूरी तरह भूल गए।"

 

सावरकर के मुताबिक केवल हिंदू भारतीय राष्ट्र का अंग थे और हिंदू वो थे - "जो सिंधु से सागर तक फैली हुई इस भूमि को अपनी पितृभूमि मानते हैं, जो रक्त संबंध की दृष्टि से उसी महान नस्ल के वंशज हैं, जिसका प्रथम उद्भव वैदिक सप्त सिंधुओं में हुआ था, जो उत्तराधिकार की दृष्टि से अपने आपको उसी नस्ल का स्वीकार करते हैं और इस नस्ल को उस संस्कृति के रूप में मान्यता देते हैं जो संस्कृत भाषा में संचित है।" राष्ट्र की इस परिभाषा के चलते सावरकर का निष्कर्ष था कि 'ईसाई और मुसलमान समुदाय, जो ज़्यादा संख्या में अभी हाल तक हिंदू थे और जो अभी अपनी पहली ही पीढ़ी में नए धर्म के अनुयायी बने हैं, भले ही हमसे साझा पितृभूमि का दावा करें और लगभग शुद्ध हिंदू खून और मूल का दावा करें, लेकिन उन्हें हिंदू के रूप में मान्यता नहीं दी जा सकती क्योंकि नया पंथ अपना कर उन्होंने कुल मिलाकर हिंदू संस्कृति का होने का दावा खो दिया है।'


सावरकर के अनुसार-“ हिन्दू भारत में-हिंदुस्थान में- एक राष्ट्र हैं जबकि मुस्लिम अल्पसंख्यक एक समुदाय मात्र।“(पृष्ठ 25, सावरकर एंड हिंदुत्व,ए जी नूरानी, लेफ्टवर्ड, 2003)


नीलांजन मुखोपाध्याय के अनुसार, "पितृ और मातृ भूमि तो किसी की हो सकती है, लेकिन पुण्य भूमि तो सिर्फ हिंदुओं, सिखों, बौद्ध और जैनियों की हो हो सकती है, मुसलमानों और ईसाइयों की तो ये पुण्यभूमि नहीं है। इस परिभाषा के अनुसार मुसलमान और ईसाई तो इस देश के नागरिक कभी हो ही नहीं सकते। एक सूरत में वे हो सकते हैं अगर वे हिंदू बन जाएं। सावरकर इस विरोधाभास को कभी नहीं समझा पाए कि आप हिंदू रहते हुए भी अपने विश्वास या धर्म को मानते रहें।"(15 अक्टूबर 2019)

जारी

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(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। स्कूली जीवन से ही लेखन की ओर झुकाव रहा। समाज, राजनीति और साहित्य-संस्कृति इनके प्रिय विषय हैं। पत्र-पत्रिकाओं और डिजिटल मंच पर नियमित लेखन। रायगढ़ छत्तीसगढ़ में  निवास।)

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