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5th EL Gouna Film Festival: अरब देशों की फिल्मों में स्त्रियों की बिल्कुल नई छवियां देख रह जाएंगे आप दंग

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अजित राय, दिल्‍ली:
इजरायल की जेलों में बंद फिलिस्तीन के  राजनैतिक कैदियों के स्पर्म ( शुक्राणुओं) की अवैध तस्करी से उनकी पत्नियां बच्चे पैदा कर रही है। मिस्र के अल गूना फिल्म फेस्टिवल में दिखाई गई अरब देशों की फिल्मों में स्त्रियों की बिल्कुल नई छवियां उभरती है। ये छवियां मुस्लिम देशों में औरतों की बनी बनाई छवियों से विलकुल अलग है। वेनिस फिल्म फेस्टिवल में तीन अवार्ड पाने वाली मिस्र के सबसे चर्चित फिल्मकार मोहम्मद दियाब की नई फिल्म  " अमीरा", मिस्र के ही उमर अल जोहरी की " फेदर्स", लेबनान की महिला फिल्मकार मौनिया अकल की " कोस्टा ब्रावा, लेबनान " और एली डाघर की  " द सी अहेड " तथा  इस साल कान फिल्म फेस्टिवल के मुख्य प्रतियोगिता खंड में चुनी गई मोरक्को के नाबिल आयुच की  " कासाब्लांका बीट्स " जैसी फिल्मों का उदाहरण दिया जा सकता है। इन फिल्मों में आजाद ख्याल औरतों की ऐसी बनती हुई दुनिया है जो अपनी पहचान और सपनों को लेकर सचेत हैं और उनपर मजबूती से टिकी हुई हैं। इन फिल्मों की पटकथा में पर्यावरण की तरह राजनीति की परतें है। इनमें अरब दुनिया की आज की सच्चाई है जिसकी ओर बाहरवालों का ध्यान कम ही जाता है। 

मोहम्मद दियाब इस समय मिस्र के सबसे चर्चित फिल्मकार है जो उन पटकथाओं को सामने लाते हैं जिनके बारे में पहले कभी नहीं सोचा गया। उनकी पिछली फिल्मों " काहिरा 678 " और " क्लैश " में हम यह देख चुके हैं। अपनी नई फिल्म " अमीरा " में  इस बार उन्होंने इजरायल की जेलों में बंद फिलिस्तीनी  राजनैतिक कैदियों के स्पर्म ( शुक्राणुओं ) की अवैध तस्करी को विषय बनाया है। यरुशलम और गाज पट्टी में जारी फिलिस्तीन- इजरायल संघर्ष के दौरान  2012 से अब तक हजारों बच्चों का जन्म शुक्राणुओं की अवैध तस्करी से हुआ है और वे बच्चे अपने मां बाप की जायज संतान माने जाते हैं। यह फिल्म अपनी जटिल पटकथा, परिवार और रक्त संबंध की परिभाषा से जुड़ी बहस और विदेशियों के प्रति भेदभाव और नफरत के मुद्दों को उठाने के कारण चर्चा में है।

 

इजरायल की जेल में बंद  एक फिलिस्तीनी आंदोलनकारी नुवार की सत्रह साल की लड़की अमीरा को यह विश्वास है कि वह  अपने पिता के तस्करी करके लाए गए शुक्राणुओं ( स्पर्म) से पैदा हुई है। वह अपनी मां वारदा के साथ समय समय पर अपने पिता से जेल में मिलने जाती है और अपने मां बाप की खुद के साथ फोटो शाप से तैयार फेमिली फोटो देखकर ही खुश हो लेती है। नुवार एक बार फिर अपना शुक्राणु ( स्पर्म) तस्करी के जरिए अपनी पत्नी वारदा तक पहुंचाने में सफल होता है। उसे लगता है कि इस तरह शुक्राणुओं के माध्यम से वह जेल से आजाद हो रहा है। जब अस्पताल में इन शुक्राणुओं की मेडिकल जांच होती है तो सबके जीवन में तूफान उठ खड़ा होता है। पता चलता है कि नुवार नपुंसक है और उसके शुक्राणुओं में बच्चा पैदा करने की योग्यता ही नहीं है। परिवार के लोग हर उस आदमी का डीएनए टेस्ट कराते हैं जिसपर अमीरा के असली बाप होने का शक है। अमीरा का जीवन बिखरने लगता है। उसकी मां वारदा मुंह नहीं खोलती और सबकुछ सहती है। अमीरा हिम्मत के साथ स्थितियों का सामना करती है। उसके परिवार और आसपास इस मुद्दे को लेकर कोहराम मचा हुआ है। उसे पता चलता है कि एक इजरायली नागरिक उसका जैविक पिता है जो फिलीस्तीनी मुक्ति मोर्चा के लिए खबरी का काम करता था।  उसका प्रेमी उसे सबकुछ भूलकर शादी करने को कहता है। उसके चाचा उसका पासपोर्ट बनवाकर उसे मिस्र में बस जाने को कहते हैं। लेकिन वह किसी की नहीं सुनती और फेसबुक पर अपने जैविक पिता को ढूंढ लेती है। इजरायली खून होते हुए भी वह सच्चे देशभक्त की तरह एक फिलिस्तीनी की तरह जीना चाहती है। अवैध रूप से इजरायल की सीमा में प्रवेश करने की कोशिश में वह मारी जाती है। 

 

 

फिल्म में अमीरा और उसकी मां वारदा जिस साहस के साथ परिवार और समाज का सामना करती है, वह चकित करनेवाला है। दोनों में से किसी को कोई अफसोस और अपने किए पर पछतावा नहीं है। वे हिम्मत के साथ इन सब की जिम्मेदारी स्वीकार करते हैं। यदि शुक्राणुओं की तस्करी न हो तो जिन लोगों को हमेशा के लिए जेलों में बंद कर दिया गया है उनका वंश कैसे चलेगा। मिस्र के ही उमर अल जोहरी की फिल्म " फेदर्स" को लेकर देश भर में हंगामा हो रहा है। सोशल मीडिया पर राष्ट्रवादी समूह जमकर इसकी आलोचना कर रहे हैं। उनका कहना है कि इस फिल्म से दुनिया भर में मिस्र की छवि खराब होगी। अपने छह साल के बेटे के जन्मदिन पर आयोजित जादू के शो के दौरान एक तानाशाह आदमी मुर्गे में बदल जाता है। लाख कोशिशों के बाद भी वह मुर्गा से इंसान नहीं बन पाता। उसकी पत्नी मुर्गे के रूप में अपने पति की देखभाल करते हुए बड़ी मुश्किल से तीन छोटे बच्चों को पालती है। एक दिन जिंदा लाश की तरह उसका पति लाचार, संवेदनशून्य और मरणासन्न अवस्था में पाया जाता है। औरत उसकी जी जान से सेवा करती है पर कोई फायदा नहीं होता। एक दिन वह आजिज आकर मुर्गे को मार देती है और पति भी मर जाता है। शाम को फैक्टरी का काला धुआं घर में भर जाता है। अगली सुबह वह कहती हैं कि  'रात जा चुकी है और यह मेरी सुबह है।' 

 

 

फिल्म में महबूब खान की ' मदर इंडिया ' की नायिका नरगिस की तरह उस औरत का संघर्ष दिखाया गया है जिसको पति के गायब हो जाने के बाद अकेले ही बच्चों को पालना है। आस पास की स्थितियां मैक्सिम गोर्की के नाटक ' लोअर डेप्थ ' जैसी है जिसमें गरीबी और अभाव का हाहाकार है। लेबनान की युवा फिल्मकार मौनिया अकल की 'कोस्टा ब्रावा, लेबनान' में कूड़ा निपटाने में सरकारी भ्रष्टाचार और जीवन की गरिमा के लिए लड़ता एक परिवार है। वालिद बदरी और उसकी पत्नी सौराया एक दिन राजधानी बेरूत को छोड़कर पास के जंगल में बने अपने घर में रहने लगते हैं कि उनके बच्चों को प्राकृतिक माहौल मिले। उसकी मां को सांस की बीमारी है। समस्या तब खड़ी हो जाती है जब सरकार ठीक उनके घर के सामने वाली जमीन को कूड़ा फेंकने की जगह बना देती है। बड़ी बड़ी मशीनों और ट्रकों में रोज शहर का सारा कूड़ा उनके पड़ोस में फेंका जाने लगता है और वे जानलेवा प्रदूषण से घिर जाते हैं। सौराया हिम्मत के साथ इस सरकारी निर्णय का विरोध करती है। इस फिल्म में सौराया की भूमिका लेबनान की विश्व प्रसिद्ध फिल्मकार नदाइन लबाकी ने निभाई है। लेबनान के ही एली डाघर की फिल्म ' द सी अहेड '  पेरिस का आर्ट स्कूल पीछे छोड़कर अपने शहर बेरूत में अपने मां बाप के पास वापस लौटी एक उदास औरत जाना की कहानी है। धीरे धीरे वह पाती है कि उसका अपना प्यारा शहर उसके लिए अजनबी बनता जा रहा है और वह निराशा के गर्त में समाती जा रही है। फिल्म एक जीवंत शहर बेरूत को कई तरह की छवियों में एक चरित्र की तरह दिखाती है।

 

मोरक्को के नाबिल आयुच की फिल्म ' कासाब्लांका बीट्स ' रैप संगीत और हिप हॉप के माध्यम से नौजवानों की कई कहानियों का कोलाज है। कासाब्लांका के एक संस्कृति केन्द्र में अपने जमाने का मशहूर रैप गायक शिक्षक बनकर आता है। वह अपने विद्यार्थियों को नये नये रैप बनाने के लिए प्रोत्साहित करता है। इस दौरान असली जीवन की कई वर्जित कहानियां सामने आती हैं जिसमें नौजवान लड़के लड़कियां यौन शोषण, धार्मिक कट्टरता और सेंसरशिप पर खुलकर अपनी राय जाहिर करते हैं। फिल्म का अधिकार हिस्सा रैप संगीत है जिसे डाक्यूमेंट्री और फिक्शन को मिलाकर बनाया गया है। शिक्षक अपने विद्यार्थियों से कहता है कि अपने दुख,अपना गुस्सा और सारा आक्रोश खुलकर बाहर निकाल दो। कई अभिभावक शिक्षक पर इस्लाम विरोधी होने का आरोप लगाते है।  मोरक्को की यह पहली फिल्म है जिसे इस बार कान फिल्म फेस्टिवल के मुख्य प्रतियोगिता खंड में जगह मिली थी। इन सभी फिल्मों में हम एक नई अरब औरत को देखते हैं जो पहले से बनी बनाई छवियों से आजाद हैं।

 

 

 

(लेखक मशहूर फिल्‍म और आर्ट क्रिटिक हैं।  मूलत: बिहार के रहने वाले बरसों से दिल्‍ली में रहकर स्‍वतंत्र लेखन। )

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।