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विडंबना: प्रेमचंद के नाम पर बनी संस्‍था का नाम अंग्रेजी में

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पुष्परंजन

मुंशी प्रेमचंद को याद कीजिये और रोइये। मौक़ा है-दस्तूर भी है ! धनपत राय श्रीवास्तव नाम उन्हें पसंद नहीं आता था, तो उसे 'नवाब राय' रखा। वह भी रास नहीं आया, तो अपना उपनाम रखा 'मुंशी प्रेमचंद'। हर साल 31 जुलाई को सत्ता से साहित्य के गलियारों तक धमाचौकड़ी रहती है। थोड़ा बहुत स्यापा, फिर अगले साल तक के लिए शांति। ओम शांति।

सरकारी  दारिद्रय का शिकार हो जाएगी विरासत

कंगाली की  कथा लिखते-लिखते मुंशी प्रेमचंद का आवास, शोध केंद्र सरकारी  दारिद्रय का शिकार हो जायेगा, यही आशा हम भी करते थे। दुर्गति की दास्ताँ तब के यूपीए शासन में भी लिखी गयी, और आज के गोबर गणेश शासन में भी। नहीं विश्वास, तो बनारस के सांसद "बाबा चुटकुलानन्द" का स्मरण कर लीजिये। उन्हें छोड़ें, वो क्योटो से किसी साहित्यकार को इम्पोर्ट कर ले आएंगे बनारस. गंगा-यमुनी संस्कार वाले संगीतकारों-साहित्यकारों से बाबाजी को एलर्जी है। आप 31 जुलाई को बनारस से लगे लमही जाइये, गरदा-मिट्टी झाड़कर लगभग दो सौ पुस्तकों-तस्वीरों के साथ  कोई न कोई सरकारी बंदा मुंशी प्रेमचंद को प्रस्तुत करते हुए मिल जायेगा।

2 करोड़ रुपये की लागत से बना था संस्‍थान

2005 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने 2 करोड़ रुपये अनुदान के साथ मुंशी प्रेमचंद मेमोरियल रिसर्च इंस्टीट्यूट की बुनियाद रखी थी। केंद्र सरकार और बीएचयू की "सक्रियता" से पिछले सोलह वर्षों में शोध संस्थान की डेढ़ मंज़िली इमारत बन गई। बीएचयू में हिंदी विभाग से संबद्ध प्रेमचंद मेमोरियल रिसर्च इंस्टीट्यूट की सद्गति पर और क्या लिखें? बस इतना बताना काफी है कि यहां आज तक किसी निदेशक की नियुक्ति नहीं हो पायी है।  यूं हिंदी के आचार्य लोग आजकल अंग्रेजी में प्रस्तुतीकरण को प्राथमिकता देते हैं। ऐसा उनके परिचय पत्रक (विजिटिंग कार्ड) और प्रवचन में भी नुमायां होने लगा है।लमही जाइएगा, बड़ा सा बोर्ड दिखेगा- "मुंशी प्रेमचंद मेमोरियल रिसर्च इंस्टीट्यूट !"

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(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं। कई देशी-विदेशी मीडिया संस्‍थान में सेवाएं दी। संप्रति ईयू-एशिया न्यूज के नई दिल्ली संपादक।)