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जन्माष्टमी: श्रीकृष्ण को समझना जितना आसान है, उतना ही मुश्किल भी...

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कृष्ण बिहारी मिश्र, रांची:
सचमुच श्रीकृष्ण को समझना जितना आसान है, उतना ही मुश्किल भी। 55 वर्ष का हो चुका हूं और हमने भारतीय वांग्मय को जो समझा है, उससे मैंने यही महसूस किया। इस दौरान हमने यह भी पाया कि संसार में जितने भी श्रीकृष्ण के भक्त हुए या जिन्होंने श्रीकृष्ण को समझा है, उन्होंने यही देखा कि देवताओं की तुलना में भी श्रीकृष्ण सब पर भारी पड़े हैं। महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद, पांडवों को उनका हक मिल जाने के बाद और यह सुनिश्चित हो जाने पर कि अब पांडवों के रास्ते के सारे कांटे निकल चुके हैं। श्रीकृष्ण का कुन्ती से यह कहना कि अब मैं हस्तिनापुर से निकलना चाहता हूं, क्योंकि मैं देख रहा हूं कि पांडवों के सारे मार्ग निष्कंटक हो चुके हैं, और मैं उसी के पास रहता हूं जब कोई कष्ट में होता हैं, कुन्ती अचानक कह उठती है कि हे कृष्ण मुझे ऐसा सुख नहीं चाहिए, जिसमें श्रीकृष्ण का स्थान ही न हो। कुन्ती के इस कथन और मर्म को श्रीकृष्ण समझ चुके होते हैं कि कुन्ती कहना क्या चाहती है?

 

दूसरी घटना देखिये, दुर्वासा दुर्योधन की बातों में आकर द्रौपदी का दरवाजा खटखटा रहे हैं। दुर्वासा द्रौपदी से कहते है कि वो उनके और उनके भक्तों के लिए भोजन का अतिश्रीघ्र प्रबंध करें, इधर द्रौपदी के घर में अन्न का एक दाना भी नहीं है, द्रौपदी समझ लेती है कि आज पांडवों के जीवन का अंतिम दिन हैं, क्योंकि जब दुर्वासा स्नान-ध्यान कर लौटेंगे और उन्हें भोजन प्राप्त नहीं होगा, तो निश्चय ही वे शाप देंगे, जिस शाप से पांडवों का नाश हो जायेगा। इधर द्रौपदी ये सब सोच रही होती है, श्रीकृष्ण का पदार्पण होता है। श्रीकृष्ण कहते है कि द्रौपदी जल्द भोजन का प्रबंध करों, भूख लगी है। द्रौपदी क्रोध में आकर घर की हांडी को ही उनके सामने रख देती है, लीजिये खा लीजिये। श्रीकृष्ण समझ लेते है कि द्रौपदी कहना क्या चाहती है। वो हांडी में ही सटे एक साग के पत्ते को निकाल कर अपनी जिह्वा पर रख लेते हैं और स्वयं को तृप्त कर लेते हैं। दूसरी ओर पता लगता है कि श्रीकृष्ण के साग मात्र खा लेने से दुर्वासा और  उनके शिष्यों का समूह तृप्त हो चुका हैं, वो द्रौपदी के भोजन की प्रशंसा करते नहीं थक रहा। मतलब श्रीकृष्ण ने पांडवों को शाप से भी बचा लिया और दुर्वासा को भी तृप्त कर दिया, ये है श्रीकृष्ण।

 

तीसरी घटना, सुदामा और श्रीकृष्ण की मित्रता का प्रसंग, अद्वितीय ही नहीं, अतुलनीय है, तभी तो अब्दुर्रहीम खानखाना ने कह दिया।
जे गरीब पर हित करे,
ते रहीम बड़ लोग।
कहा सुदामा बापुरो,
कृष्ण मिताई जोग।।
अर्थात् रहीम के अनुसार मित्रता देखनी हो, तो सुदामा-श्रीकृष्ण की मित्रता देखो, जिसके आगे किसी की मित्रता टिकती ही नहीं, मतलब सुदामा जैसे गरीब पर हित करनेवाला अगर कोई हो सकता हैं तो वे श्रीकृष्ण ही हो सकते हैं, दूसरा कोई नहीं। इसलिये मैं दावे के साथ कहता हूं कि श्रीकृष्ण को जितना समझना आसान हैं, उतना ही मुश्किल भी। दुर्धोधन आजीवन श्रीकृष्ण को नहीं समझ सका, वो महाभारत युद्ध को जितने के लिए नारायणी सेना मांगा, पर नारायण को लेना जरुरी नहीं समझा, पर अर्जुन जो श्रीकृष्ण को समझता था उसने तो श्रीकृष्ण से श्रीकृष्ण को ही प्राप्त कर लिया। इसलिए कभी रांची के योगदा सत्संग आश्रम जाइये, तो वहां के संन्यासियों से जब आप बात करेंगे तो वे यही कहेंगे कि भगवान से कुछ मत मांगों, भगवान से मांगना हैं तो भगवान को ही मांग लो, तुम्हारी जिंदगी संवर जायेगी, ठीक उसी तरह मांगों, जैसे रसखान, मीराबाई, नरसी मेहता, ज्ञानेश्वर आदि महान संतों ने श्रीकृष्ण से श्रीकृष्ण को प्राप्त कर लिया।

(लेखक झारखंड के वरिष्‍ठ पत्रकार हैं। कई मीडिया संस्‍थानों में सेवाएं देने के बाद संप्रति वेब साइट विद्रोही 24 का संचालन)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।