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देश की बिंदी-6: सबसे तेज़ी से बढ़ता हिन्दी का कथित अखबार क्‍यों अपनाता है हिंग्लिश

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कनक तिवारी, रायपुर:

पता नहीं गांधी ने वह टोपी कब पहनी होगी जिसे गांधी टोपी कहा गया। पता नहीं 14 सितम्बर, 1949 को जो भाषा देश की राजभाषा बना दी गई, उसे हिन्दी क्यों कहा गया? पंद्रह पंद्रह वर्षों की किस्‍त में अंगरेज़ी का अब तक प्रमुख भाषा होने का ठसका कायम है। संविधान का मूल पाठ, विधेयक, संविधान अदालतों के फैसले, इंजीनियरिंग और मेडिकल जैसी तकनीकी पढ़ाई, लोकसेवा आयोग की परीक्षाएं, टेलीविज़न चैनलों पर महत्वपूर्ण बहसें, विदेश यात्रा में एलीट भारतीयों की बतकहियां सब अंगरेज़ी में ही होती हैं। फिर भी महान जनतांत्रिक देष 14 सितम्बर को अपनी मादरी जुबान का हिन्दी दिवस मनाता है। पता नहीं यह जन्मदिन अथवा पुण्यतिथि क्या है? अंगरेज़ चले गए। अंगरेज़ी रह गई। सत्तर वर्ष बाद भी वह ‘लिव इन रिलेशनशिप‘ की तरह रहती भारतीय भाषाओं को सौतियाडाह से नेस्तनाबूद करने की कोशिश कर रही है। खुद तो भारतीय भाषाओं से तो बात कर लेती है, लेकिन उनको आपस में बतियाने नहीं देती। गोरी मेम की गोद में बैठकर कुलीन घरानों के भारतीय कुलदीपक और मोमबत्तियां भी कान्वेन्टी हिंगलिश में गुटरगूं करते हैं। हैम, पिज़ा, पास्ता और हैम्बरगर खाते हैं।   चुस्त मोहरी के ‘गनशाट‘, जीन्स, स्कर्ट,  हाॅट पैन्ट पहनकर सड़कों और नाइट क्लबों में डान्स करते हैं। अंगरेज़ी उच्चारण में भारतीय भाषाएं ढकेलते हैं। अंगरेज़ी अखबार आभिजात्य का बैरोमीटर है। अंगरेज़ी फिल्में देखने सिनेमा हाॅल जाते लगता है किसी ब्याह आयोजन में शरीक हो रहे हों। गलत संवाद पर सब हंसने भी लगते हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इंग्लैंड जाकर अहसान मान चुके कि उसने हमें तहज़ीब सिखाई। एक और प्रधानमंत्री अमेरिका जाने के लिए मिन्नतें करते अमेरिकी भक्तशिरोमणि हो चुके हैं। 

 

 

 

हिन्दी में अभिव्यक्ति का संकट कभी नहीं होता। फिर भी सबसे तेज़ी से बढ़ता खुद मुख्तार हिन्दी का अखबार हिंग्लिश का रहता है। महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय से ‘हिन्दी‘ नाम की पत्रिका अंगरेज़ी में हिंदी से अंग्रेजी अनुवाद और हिंदी के अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों और शोधकर्ताओं को लेकर  प्रकाशित होती रही। सरल मोबाइल संदेष में हिन्दी वाले समाचार अंगरेज़ी लिपि में लिखे जाते हैं। अंगरेज़ी गुरु, दादा, लाठी जैसे कई शब्दों की सरोगेट मां बन गई। भारत में भी थैंक यू, साॅरी और प्लीज़ के श्लोकों की तोतारटंत जारी है। संविधान सभा में हिन्दी के कट्टर समर्थकों सेठ गोविन्ददास, राजर्शि पुरुषोत्तम दास टंडन, आर. वी. धुलेकर वगैरह ने अहिन्दी भाषियों पर भड़काऊ कटाक्ष भी किए थे। गोविन्ददास ने उर्दू को विदेशी मूल और प्रेरणा की भाषा कहते उर्दूदां लोगों को सांप्रदायिक भी करार दिया। धुलेकर ने तैष में कह दिया जिन्हें हिन्दी नहीं आती उन्हें भारत में रहने का अधिकार नहीं होना चाहिए। नेहरू ने बीच बचाव किया। हिन्दीदां बुद्धिजीवियों ने नेहरू पर हिन्दी विरोधी और अंगरेज़ी समर्थक होने का ठीकरा फोड़ा। गांधी की किसी ने नहीं सुनी। न हिन्दुस्तानी शब्द बच पाया और न देवनागरी सहित उर्दू की लिपि बचाई गई। अंकों तक में भारतीय गणित की देह में अंगरेज़ी लिपि का प्रेत हावी है। पांच सितारा लोग तो कुत्तों, पक्षियों और रिश्तेदारों से अंगरेज़ी में बतियाते छाती छप्पन इंच की समझते हैं।  

 

प्रादेशिक भाषाओं को बचाने का श्रेय स्थानीय लोगों को है। औपनिवेशिक ताकतें हिन्दी इलाकों में प्रादेशिक भाषाओं और क्षेत्रीय बोलियों को हिन्दी की कीमत पर बढ़ावा देने कुचक्र करती रही हैं। हिन्दी कमज़ोर होगी तो राष्ट्रीय एकता बिखर जाएगी। हिन्दी और पूर्वज प्रादेशिक भाषाओं में सबसे ज़्यादा राष्ट्रीय चिंतन हुआ है। मैकाॅले के कारण अंगरेज़ी शिक्षा का माध्यम बनी। अभिभावक अंगरेज़ी स्कूलों में बच्चे भर्ती कर गृहस्थी का बजट बिगाड़ लेते हैं। अंगरेज़ी अदा उसे देखकर अट्टहास करती है। ट्रेन, बस या हवाई यात्रा में साॅरी, थैंक यू और प्लीज़ कहने से अहंकारी अनुभव का विकास होता है। अंगरेज़ी अखबार तो गांवों की खबरों के लिए तीन प्रतिशत भी जगह नहीं देते। टी. वी. चैनलों पर अंगरेज़ी समाचार और वादविवाद सबसे ज़्यादा ढोल पीटते हैं। एक भारतीय जब अंगरेज़ी बोलता है, तो उच्चारण सुनकर उसकी मातृभाषा बताई जा सकती है। कभी कभी ऐसी अंगरेजी में गिटपिट करता है कि लगता है अंगरेजों से बदला ले रहा हैै।  हिन्दी की भी कई नस्लें हैं। एक पंडिताऊ, किताबी और शास्त्रीय शैली की संस्कृतनिष्ठ उपदेशक हिन्दी। एक खिचड़ी के दाल चावल में सफेद कंकड़ों की तरह छिपी अंगरेज़ी या हिन्दी और अंगरेजी की लगभग काॅकटेल। हिन्दुस्तानी का धड़ल्ले से उपयोग करने के हिमायती भी हैं। मानविकी के विद्वान अंगरेज़ी शब्द के कठिन अनुवादों के ज़रिए हवाई किस्म की हिन्दी में जनवादी नस्ल की अभिनय शैली में बातें करते हैं। हिन्दी में सोचने से देशज चिंतन की परंपरा विकसित होती है। हिन्दी भारतीय होने के गौरव का अहसास कराती है। 

 

 

छत्तीसगढ़ी, बुंदेली, बघेली, अवधी, ब्रज, मालवी, भोजपुरी, मैथिली, राजस्थानी, हरियाणवी वगैरह हिन्दी की क्षेत्रीय बोलियों या भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने हिन्दी के इलाकों में ही आंदोलन होते हैं। हिन्दी के लिए एक प्रदेश नहीं हो सकता था। यही उसके बड़े अनुयायी वर्ग का पुख्ता प्रमाण है। अहिन्दी भाषी प्रदेशों में हिन्दी के अनुराग को क्षेत्रीय नेताओं की वोट कबाड़ राजनीति ने धीरे धीरे खत्म किया। हिन्दी प्रदेशों बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तरप्रदेश वगैरह के अंगरेज़ी के शुरुआती अक्षरों को लेकर उन्हें बीमारू राज्य कहकर मज़ाक उड़ाया गया। दुनिया में कम देश हैं जहां हुकूमत कर चुकी विदेशी भाषाएं, प्रशासन, अदालतों और संसद पर हावी होंगी। राजभाषा आयोग बनने पर हिन्दी पखवाड़ा ऐसे अधिकारियों द्वारा मनाया जाता है जिन्हें हिन्दी नहीं जानने पर घोषित गर्व होता है। हिन्दी के समर्थन में झूठी कसमें खाकर ये अधिकारी छुट्टी के प्रार्थना पत्र, जांच रिपोर्ट, तबादले के आदेश अंगरेज़ी में ही करते रहते हैं। अंगरेज़ी में ज़्यादा नंबर पाने वाले छात्र को कक्षा का कप्तान भी बनाया जाता है। मां! तुम कहीं न कहीं तो हो! सूर, तुलसी, कबीर, विद्यापति वगैरह से लेकर निराला, पंत, महादेवी और मुक्तिबोध वगैरह तक तुम भारतीय अस्तित्व का अर्थ हो! तुम्हारी खुशबू देश ही नहीं संयुक्त राष्ट्र संघ में भी अभिव्यक्ति है! तुम भारत का अतीत हो और भविष्य भी! तुम नहीं होतीं तो देश आज़ाद कैसे होता! अभी भी अंगरेज़ी भाषा के मानसिक गुलामों का साम्राज्य है। वे तुम्हें आकाशकुसुम समझते हैं। समझते हैं कि तुम आकाश में खिला हुआ फूल हो जिसमें गुलाब, मोगरे या चमेली की तरह सुगंध भी नहीं है! कुकुरमुत्ते भी रस, गंध, स्वाद के पारखी हो गए हैं!

सरल हिन्दी में लिखा जाता साहित्य लोकप्रिय होने पर भी घटिया, निम्नतर और लिक्खाड़ नस्ल का कहकर मजाक उड़ाया जाता है। हिन्दी भाषा, क्लिष्ट लेखन और हिन्दीदां लेखकों की अभिजात्य ठसक गंगा, यमुना, सरस्वती हो जाते हैं। गांव और कस्बों में लिखा जा रहा जनोपयोगी सरल भाषा का साहित्य प्रलाप बता दिया जाता है। हिन्दी के कई अपनी पीठ ठोंकू, आत्ममुग्ध और अंतर्राष्ट्रीय तिड़म की ख्याति के लेखकों की नकल या अनुवाद करने वालों के मुकाबले तो कवि प्रदीप ने हिन्दी फैलाव के लिए ज्यादा बौद्धिक हलचल पैदा की। हिन्दी कविता के लोकप्रिय मंचों पर भवानीप्रसाद मिश्र, बच्चन और नीरज जैसे कवियों ने दशकों तक भाषा को घर घर परोसने की कोशिश तो की। विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम, अध्यापन, शोध, फैकल्टियों, अंतर्राष्ट्रीय आदान प्रदान आदि को लेकर सत्तापरस्त और खुशामदी जमाऊ लेखकों का जमावड़ा हिन्दी के प्रचार का बैरोमीटर बन जाता है। हालांकि उनका लेखन पड़ोसी तक को नहीं लगता कि पढ़ें। जनसुलभ साहित्य को घटिया कहने का फतवा जारी करने का हक तथाकथित कुलीन, दिल्ली निवासी आभिजात्य वर्ग के विचारकों को किसने दिया? 

 

 

भारत में विश्व हिन्दी सम्मेलन की जिम्मेदारी विदेष मंत्रालय को दी गई थी। उसका तो चरित्र ही सरकारी हो गया। तामझाम, निर्णय, व्यवस्था, एजेंडा सब सरकार पर निर्भर हुआ। हिन्दी सम्मेलन बहुत कुछ हासिल नहीं कर पाए। वर्धा में महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय स्थापित हुआ। माॅरिशस में विश्व हिन्दी सचिवालय की स्थापना हुई। 10 जनवरी का दिन विश्व हिन्दी दिवस के रूप में शुरू हुआ। हिन्दी विश्वविद्यालय की वही हालत है, जो साबरमती से उखाड़े जा रहे महात्मा गांधी की है। मुगालता या रायता फैलाया जा रहा है कि हिन्दी तेजी से विश्व भाषा बन रही है। सांख्यिकी कहती है बाहरी दुनिया में हिन्दी छात्रों की संख्या घट रही है। कई देशों के छात्र अपनी मातृभाषा लिपि में हिन्दी पढ़ते हैं। सरकारी तंत्र में हिन्दी प्रचार पर अनापशनाप खर्च करती नौकरशाही करती है। ‘अंधा बांटे रेवड़ी, चीन्ह चीन्ह कर देय‘ का मुहावरा परवान चढ़ाती है। मंत्रालय की फाइलों में बंधी हिन्दी एक संभावित मुक्ति प्रयास है जिस पर अंगरेजीदां कुंडली मारकर बैठे हैं। 

 

 

हिन्दी को संयुक्त राष्ट्रसंघ में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मुखरित किया। सम्मेलनों के प्रतिभागियों के नाम सचिवालय के कर्मचारी तय करते हैं। लेखकों और गैरलेखक इच्छुकों से उम्मीद की जाती है कि अपना बायोडाटा लिए मंत्रालयों के चक्कर लगाएं। जिनकी पूछपरख या पहचान होती है, उन्हें महान हिन्दी सेवक बनने का सपना साकार लगने लगता है। हिन्दी की बेहतरी और प्रचार के वास्ते मसिजीवी और देह सुखाते खकों को आयोजनों का तो पता ही नहीं होता। खुद के खर्च से हिन्दी प्रचार के नाम पर मटरगश्ती वाली तफरीह करने का मौका मिलता है। जिन देषों में हिन्दी की जीवन्त हालत नहीं है, वहां भी सम्मेलन आयोजित किए जाते हैं। भारतीय तो हर जगह कमोबेश बसे ही हैं। आप्रवासी हमवतनों से संपर्क साधकर निमंत्रण और अनापत्ति प्रमाणपत्र मंगाए जाते हैं। उससे यात्रा में विसा मिलने में सहूलियत होती है। नामधारी चलताऊ आयोजन हो जाते हैं। प्रतिभागी और आतिथेय लेखकों के प्रतिनिधि इने गिने लाए गए श्रोताओं के सामने बंद कमरे में मंच अभिनय करते हैं। आतिथेय देश स्थित भारतीय दूतावास के अधिकारी थोड़ी बहुत दिलचस्पी लेते हैं, जब उन्हें मुख्य अतिथि बनाया जाता है। मेरी कमीज से तेरी कमीज ज्यादा उजली है? कहते आत्ममुग्ध, आत्मसंतुष्ट और आत्मप्रतिबद्ध वातावरण में हिन्दी प्रचार के लिए कसमें खाई जाती हैं। कैकेयी कौशल्या के अंदर ही हंसती रहती है।

हिन्दी सम्मेलनों में ’हिन्दी’ शब्द मौन है। ’सम्मेलन’ शब्द वाचाल है। सरकारी धन लग रहा तो खर्च का जिम्मा सरकारी है। मुंहलगी भाषा में अपनी चिंता को भी अनुपातहीन महत्व दिया जाता है। गाल बजाए जाते है इनके भगीरथ प्रयत्नों के बिना हिन्दी अभिव्यक्ति के आसमान पर उतर पाएगी। गैर लेखक भाषावीर निजी जान पहचान, तिकड़म, रसूख या लक्ष्मीपुत्र होने के कारण धींगामस्ती करने ही विदेश जाते हैं। निजी सम्मेलनों के आयोजक ज्यादातर ट्रेवल एजेंट ही होते हैं। व्यापारिकता के चलते गैरव्यावसायिक मौसम में सस्ते होटलों, सस्ते यातायात के साधनों और कुछ उदार स्थानीय व्यक्तियों से संपर्क कर हिन्दी सेवक नकाबधारी भारतीयों को सस्ती सैर कराते हैं। कई कार्यक्रम मंदिरों, गुरुद्वारों और अन्य धार्मिक सांस्कृतिक भवनों में भी होते है। हिन्दी प्रेम के एवज में इन्तजामकुनिन्दा आयोजकों को हिन्दी सम्मेलनों और संस्थाओं का अध्यक्ष और महामंत्री खुशामदखोर लेखकों की तिकड़म से बनाया जाता है। हिन्दी का भला हो न हो हिन्दी के नाम पर घुमक्कड़ी को तो होता है। उसमें क्या बुरा है?

 

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(गांधीवादी लेखक रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।