डॉ. शाहिद अख़्तर, रांची:
सर सैयद अहमद ख़ाँ (17 अक्टूबर 1817-27 मार्च 1898) ऐसे महान समाज सुधारक और भविष्यदृष्टा थे, जिन्होंने शिक्षा के लिए जीवन भर प्रयास किया। सर सैयद अहमद ख़ाँ ने लोगों को पारंपरिक शिक्षा के स्थान पर आधुनिक ज्ञान हासिल करने के लिए प्रेरित किया क्योंकि वह जानते थे कि आधुनिक शिक्षा के बिना प्रगति संभव नहीं है। सर सैयद अहमद ख़ाँ मुसलमानों और हिन्दुओं के विरोधात्मक स्वर को चुप-चाप सहन करते रहे। इसी सहनशीलता का परिणाम है कि आज सर सैयद अहमद ख़ाँ को एक युग पुरुष के रूप में याद किया जाता है और हिन्दू तथा मुसलमान दोनों ही उनका आदर करते हैं। सर सैयद अहमद ख़ाँ ने सदा ही यह बात अपने भाषणों में कहा करते थे, 'हिन्दू और मुसलमान भारत की दो आँखें हैं।' उनका जन्म दिल्ली के सादात (सैयद) ख़ानदान में हुआ था। 22 वर्ष की अवस्था में पिता की मृत्यु के बाद परिवार को आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और थोड़ी सी शिक्षा के बाद ही सैयद को आजीविका कमाने में लगना पड़ा। सर सैयद अहमद ख़ाँ ने 1830 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी में क्लर्क के रूप में काम शुरू किया, किंतु वह हाथ-पर-हाथ धर कर बैठने वालों में से नहीं थे। उन्होंने मेहनत की और तीन वर्ष बाद 1841 ई. में मैनपुरी में उप-न्यायाधीश की योग्यता हासिल की और विभिन्न स्थानों पर न्यायिक विभाग में काम किया। सैयद अहमद को न्यायिक विभाग में कार्य करने की वजह से कई क्षेत्रों में सक्रिय होने का समय मिल सका। स्पष्ट है कि यह नौकरी अंग्रेज़ी सरकार की कृपा का परिणाम नहीं थी।
जब सर सैयद 40 वर्ष के हुए तो उस वक़्त हिन्दुस्तान एक नया मोड़ ले रहा था। 1857 की महाक्रान्ति और उसकी असफलता के दुष्परिणाम उन्होंने अपनी आँखों से देखे। उनका घर तबाह हो गया, निकट सम्बन्धियों का क़त्ल हुआ, उनकी माँ जान बचाकर एक सप्ताह तक घोड़े के अस्तबल में छुपी रहीं। इस जंग की अंग्रेज़ों की कामयाबी और हिन्दुस्तानियों की नाकामी साबित हुई और दिल्ली के आख़िरी बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र को अपमानित करके रंगून (अब यांगून) भेजा गया और उनका ख़ानदान अंग्रेज़ों की हाथों ख़त्म कर दिया गया और दौलत व जायदाद, सम्पत्ति जब्त कर ली गयी।
1857 के अत्याचार हिन्दुस्तान पर अंग्रेज़ों ने जारी रखा। संवेदनशील व्यक्तियों और ऐसे लोग विशेषत: सर सैयद हिंदुस्तानियों की इस बर्बादी को देखकर तड़प उठे और उनके दिलो-दिमाग़ में राष्ट्रभक्ति की लहर करवटें लेने लगीं। इस बेचैनी से सर सैयद ने परेशान होकर हिन्दुस्तान छोड़ने और मिस्र में बसने का फ़ैसला ले लिया।
अंग्रेज़ों ने सर सैयद जैसे इन्सान को अपनी ओर करने के लिए मीर सादिक़ और मीर रुस्तम अली का बहुत बड़ा इलाक़ा बग़ावत के जुर्म में सर सैयद अहमद खाँ को ताल्लुका जहानाबाद जो कि उस वक़्त एक लाख रुपये से ज़्यादा था, देने की लालच दी और यह ऐसा मौक़ा था कि सर सैयद इनके जाल में फँस सकते थे। वे धनाढ्य की ज़िन्दगी बसर कर सकते थे। लेकिन वह बहुत ही बुद्धिमान और समझदार व्यक्ति थे। उन्होंने सोचा कि मैं दोराहे पर खड़ा हूँ और सर सैयद ने उस वक़्त लालच को बुरी बला समझकर ठुकरा दी और राष्ट्रभक्ति के ख़ूबसूरत हार को अपने गले में पहनना बेहतर समझा, क्योंकि उस वक़्त उनके दिल में अंग्रेज़ों की ओर से नफ़रत के शौले भड़क रहे थे और राष्ट्रभक्ति के लिए उनका दिल तड़प रहा था। सेवा से अवकाशप्राप्त करने के बाद वह पूरी तरह से स्कूल के विकास और धार्मिक सुधार में लग गए। हालांकि इस दौरान उन्हें धार्मिक नेताओं के ज़ोरदार विरोध का सामना करना पड़ा। पर सर सैयद ने घुटने नहीं टेके और अपने काम में लगातार लगे रहे।
शिक्षा-संस्था खोलने का विचार हुआ तो उन्हाेंने अपनी सारी जमा-पूँजी यहाँ तक कि मकान भी गिरवी रख कर यूरोपीय शिक्षा-पद्धति का ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से इंगलिस्तान की यात्रा की। लौटकर आए तो कुछ वर्षों के भीतर ही मई 1875 में अलीगढ़ में 'मदरसतुलउलूम' एक मुस्लिम स्कूल स्थापित किया गया और 1876 में सेवानिवृत्ति के बाद सैयद ने इसे कॉलेज में बदलने की बुनियाद रखी। सैयद की परियोजनाओं के प्रति रूढ़िवादी विरोध के बावज़ूद कॉलेज ने तेज़ी से प्रगति की और 1920 में इसे विश्वविद्यालय के रूप में प्रतिष्ठित किया गया। भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमानों के पुर्नजागरण के प्रतीक सर सैयद अहमद ख़ाँ का उद्देश्य मात्र अलीगढ़ में एक विश्वविद्यालय की स्थापना करना ही नहीं था बल्कि उनकी हार्दिक कामना थी कि अलीगढ़ में उनके द्वारा स्थापित कॉलेज का प्रारूप एक ऐसे केन्द्र का हो जिसके अधीन देश भर की मुस्लिम शिक्षा संस्थायें उसके निर्देशन में आगे बढ़ें ताकि देश भर के मुसलमान आधुनिक शिक्षा ग्रहण कर राष्ट्र निर्माण में अपनी सक्रिय भूमिका निभा सकें। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अधीन स्थापित होने वाले नये केन्द्रों के गठन से सर सैयद अहमद ख़ाँ का सपना साकार होने जा रहा है।
एम. ए. यू. कॉलेज के आधारशिला समारोह में 8 जनवरी, 1877 को लॉर्ड लिटन के सम्मुख सर सैयद ने कहा था कि आज जो "हम बीज बो रहे हैं वह एक घने वृक्ष के रूप में फैलेगा और उसकी शाखें देश के विभिन्न क्षेत्रों में फैल जायेंगी। यह कॉलेज विश्वविद्यालय का स्वरूप धारण करेगा और इसके छात्र सहिष्णुता, आपसी प्रेम व सद्भाव और ज्ञान के सन्देश को जन-जन तक पहुँचायेंगे।" आज इस संस्था के छात्र 92 देशों में फैले हुए हैं और देश का यह मात्र पहला ऐसा संस्थान है जिसके छात्र पूरी दुनिया में अपने संस्थापक सर सैयद का जन्म दिवस मनाते हैं। सर सैयद की दूरदृष्टि अंग्रेज़ों के षड़यंत्र से अच्छी तरह से वाक़िफ़ थी। उन्हें मालूम था कि अंग्रेज़ी हुकूमत हिन्दुस्तान पर स्थापित हो चुकी है और सर सैयद ने उन्हें हराने के लिए शैक्षिक मैदान को बेहतर समझा। इसलिए अपने बेहतरीन लेखों के माध्यम से क़ौम में शिक्षा व संस्कृति की भावना जगाने की कोशिश की ताकि शैक्षिक मैदान में कोई हमारी क़ौम पर हावी न हो सके। मुसलमान उन्हें कुफ्र का फ़तवा देते रहे बावज़ूद इसके क़ौम के दुश्मन बनकर या बिगड़कर न मिले बल्कि नरमी से उन्हें समझाने की कोशिश करते रहे। इसलिए उनकी बातों की परवाह किये बिना अपनी मन्ज़िल पर पहुँचने के लिए कोशिश करते रहे। आज मुस्लिम क़ौम ये बात स्वीकार करती है कि सर सैयद अहमद खाँ ने क़ौम के लिए क्या कुछ नहीं किया। सर सैयद ने सामाजिक सरोकारों के लिए भी काम किया और 1860 में पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत में अकाल पीडि़तों को राहत पहुँचाने के लिए सक्रिय रूप से योगदान किया।
(मूलत: रांची के निवासी लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया,दिल्ली में प्राध्यापक हैं। )
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।