शहरोज़ क़मर, रांची:
कहानी एक ऐसी पुरनूर शख्सियत की जिसका जब जन्म हुआ, तो पिता न थे। कुछ दिनों पहले ही पिता की मौत हो गयी थी। कुछ ही दिनों में माँ की ममता से भी बच्चा वंचित हो गया। इस अनाथ बच्चे को सहारा देने आये दादा भी दो साल बाद चल बसे। सारा दुःख-दर्द सिर्फ आठ साल के दरम्यान। बच्चे की परवरिश चाचा अबू तालिब ने की। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। बच्चा चरवाहा बन गया। रोज़ी-रोटी की जुगत में १२ साल का बच्चा चाचा के साथ दूर देश भी गया यानी घर से दूर। अपने साथ बूढी और मजबूर औरतों का सामान भी ले लिया ताकि उनके बिकने पर उन मजबूरों की कुछ आमदनी हो सके। बालपन से ही कि उन्हें अमीन [अमानतदार] और सादिक़ [सच्चा ] कहने लगे।
जब बच्चा बड़ा हुआ, तो उसके चर्चे हर कहीं होने लगे, लेकिन इसके साथ ही उसकी सच्चाई से घबराए लोगों को उनका आलोचक भी बना दिया। क्योंकि वह कहता था, खुदा एक है। वह कहता था, संतान की तरह सेवकों की सेवा करो। उन्हें वही खिलाओ जो तुम खाते हो। कहता था, बदन से पसीना गिरने से पहले ही मजदूरों को उनकी मजदूरी दे दो। कहता था, अनाथ और औरतों का हक मारना सब से बड़ा गुनाह है। कहता था तुम में सब से बेहतर वह है जो अपनी पत्नी के साथ सब से अच्छा व्यवहार करे। जिक्र उसी शख्सियत का है, जिनके बारे में मशहूर अमरीकी विज्ञानिक हार्ट मायकिल एच हार्ट ने कहा है, वह इतिहास के अकेले आदमी हैं जो धार्मिक और सांसरिक दोनों स्तरों पर काफी कामयाब रहे [दी 100 न्यू यार्क 1978]।
उसी आदमी के आया एक बार एक शख्स आया। आपने मेहमान नवाजी में कोई कसर न छोड़ी। सुबह जब आप उसके कमरे में गए, तो उसे नदारद पाया। चारों तरफ गन्दगी फैली थी। आप जब गंदे-नापाक बिस्तर धो रहे थे कि वह लौटा। आपने उसकी खैरियत पूछी। रात अचानक उसकी तैबियत खराब हो जाने की सूचना नहीं देने पर आपने नाराज़गी जतलाई। मेहमान का सिर शर्म से गिरा हुआ। उसने कहा, मैं तो आपका क़त्ल करने के इरादे से आया था। तैबियत अचानक बिगड़ जाने के कारण सुबह-सुबह ही यहाँ से निकल पड़ा। याद आया कि तलवार तो यहीं छूट गयी उसे ही लेने अभी आया हूँ। उस व्यक्ति ने तुरंत ही क्षमा-याचना की और शिष्य बन गया। ऐसा कई किस्से हैं जो इंसानियत को रौशन करते हैं।
एक कहानी सुनिये। अरब के एक शहर में एक बुढ़िया को खौफ़ सताने लगा कि एक जादूगर उसके मज़हब को बर्बाद कर देगा। उसके बाप-दादाओं का मज़हब ख़त्म हो जाएगा। वो बेचैन रहने लगी। उसके दिल में डर ने जगह बना ली। ये सब सोचकर उसने शहर छोड़ने का इरादा किया। अपना सामान बांधा और घर से निकलने को तैयार हुई। सामान वज़नी था। किसी की मदद के इंतज़ार में थी कि कोई उसकी गठरी उठाने में मदद कर दे। काफ़ी इंतज़ार के एक शख़्स का गुज़र उधर से हुआ। बूढ़ी औरत ने गठरी उठाने की इल्तिजा की। उन्होंने गठरी उठाई। और बोझ को उठा कर खुद ले चलने की दरख़्वास्त की। बूढ़ी औरत खुशी-खुशी तैयार हो गई। रास्ते में उसने बताया कि मोहम्मद(सल्ल.) नाम का एक शख्स आया हुआ है जो हमारे बाप-दादाओं के मज़हब को बुरा-भला कहता है। नए मज़हब की तरफ़ लोगों को बुलाता है। मै अपना धर्म नष्ट होने के डर से यहां से जा रही हूं। इसके साथ वो मलामत करती गई। नौजवान मुस्कुराता रहा। बुढ़िया बोली लेकिन तुम जैसे अच्छे लोग भी वहीं रहते हैं। जब मंज़िल आ गई तो बूढ़ी औरत बोली, बेटा नाम तो बता दे। तुम्हारे बारे में लोगों बताऊंगी। उस शख्स ने कहा, मैं वही मोहम्मद हूं, जिसकी चर्चा आप कर रही थीं। बूढ़ी औरत इतना सुनते ही उनकी मुरीद हो गई।
वही मोहम्मद जिनकी आमद की खुशी में आज समूची दुनिया जश्न -ए-ईद-मिलादुन्नबी मना रही है। एक बार का किस्सा है और बहुत मशहूर। उनका गुज़र जिस गली से होता एक दूसरी बुजुर्ग औरत रोज उनपर कूड़ा फेक देती। आप उसे कुछ न कहते। कपड़े झाड़कर आगे बढ़ जाते। एक दिन उस औरत ने कूड़ा न फेका, तो उन्हें हैरानी हुई। पास-पड़ोस से पता चला कि वह बीमार है। आप तुरंत उसके पास पहुंचे। खैरियत ली। दवा का इंतजाम किया।
वही रसूलल्ल्लाह जिसके घर में कभी कोई फल घर आता तो आस-पास-पड़ोस के बच्चे को पहले देते। ये नहीं देखते कि वो मुस्लिम है कि ग़ैर-मुस्लिम है। एक दिन एक यहूदी ने उनसे कहा कि हम अपने बच्चे से भी इतना प्यार नहीं करते तो रसूल का जवाब था, जो दूसरे पर रहम नहीं करता तो उस पर भी कृपा नहीं होती।
जब उनके मानने वाले काफी संख्या। में हो चुके थे। किसी दिन गली से जब एक जनाज़ा गुज़रा तो रसूललल्लाह सम्मान में उठ खड़े हो गए। सहाबियों (समकालीन शिष्यों) ने कहा, या रसूल्लल्लाह जनाज़ा किसी मुस्लिम का नहीं था। बोलने वाले की तरफ ज़रा तुर्शी अंदाज़ में अल्लाह के रसूल ने फ़रमाया, क्या वो इंसान न था। उनका स्प ष्ट् कहना था कि कोई गैर-मुस्लिएम को परेशान न करे। अगर ऐसा हुआ तो अल्लााह के दरबार में वह उस गैर-मुस्लिईम का वकील बनकर जालिम मुसलमान के खिलाफ खड़े हो जाएंगे।
बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी। बस कुछ जरूरी जिक्र। बरबस प्रभुनारायण विद्यार्थी की किताब हज़रत मोहम्मद की प्रेरक कथाएं याद आ रही है। जिसमें वह लिखते हैं, एक बार एक व्यक्ति ने किसी पक्षी का अंडा उठा लिया तो पक्षी उस अंडे के लिए बेचैन हो उठी। वो कातर द़ृष्ठि से व्यरक्ते कर रही थी कि उसका प्रिय अंडा किसी ने उठा लिया हे। यह देखकर हज़रत मोहम्मद (सल्ल) करुणा से भर गए। और अपने मित्रों से पता लगाने को कहा। पता चला कि एक आदमी ने उसका अंडा उठा लिया है। तत्क्ष ण उन्होंलने आदेश दिया कि जहां से अंडा उठाया है, वहीं जाकर रख दो। उनका कहना रहा, जिस चीज़ में भी नरमी (रहम, दया, नम्रता) होती है, वो इसे और खूबसूरत बना देती है। वहीं जिस चीज में से नरमी निकाल दी जाती है, वो बहुत बदसूरत हो जाती है। ऐसी अनगिनत बातें उसने कहीं, जो जो उम्मी [अनपढ़] था, और जो सिर्फ 22 हज़ार, 330 दिन और 6 घंटे इस नश्वर संसार में रहा।
महात्मा गांधी ने लिखते हैं, पैग़म्बरे-इस्लाम की जीवनी का अध्ययन कर रहा था। जब मैंने किताब का दूसरा हिस्सा भी ख़त्म कर लिया तो मुझे दुख हुआ कि इस महान प्रतिभाशाली जीवन का अध्ययन करने के लिए अब मेरे पास कोई और किताब बाकी नहीं। अब मुझे पहले से भी ज़्यादा यक़ीन हो गया है कि यह तलवार की शक्ति न थी जिसने इस्लाम के लिए दुनिया में जीत हासिल की, बल्कि यह इस्लाम के पैग़म्बर का बेहद सादा जीवन, अपने वादों के लिए ईमानदारी थी, आपका अपने मित्रों और अनुयायियों से प्रेम करना और ईश्वर पर भरोसा रखना था। यह तलवार की शक्ति नहीं थी, बल्कि ये सब विशेषताएं और गुण थे जिनसे सारी बाधाएं दूर हो गयीं और आपने समस्त कठिनाइयों पर विजय प्राप्त कर ली।
अंत में कुंवर महेंद्र सिंह सहर का शेर:
इश्क़ हो जाए किसी से कोई चारा तो नहीं
सिर्फ मुस्लिम का मोहम्मद पे इजारा तो नहीं।