मनोहर महाजन, मुंबई:
दिल जलता है तो जलने दे, आंसू न बहा फ़रियाद न कर... यह गीत आपको याद होगा। आपके पिता या आपके दादाजी ने भी सुना होगा और आपके बच्चे सुन रहे होंगे। गायक मुकेश इसी गीत को गाकर लोकप्रिय हुए थे। इसे लिखा था महान शायर और जाने-माने गीतकार, निर्माता, निर्देशक, पटकथा-लेखक डॉ. सफ़दर 'आह' सीतापुरी उर्फ़ सफदर 'आह' ने! हालाँकि आज उन्हें भुला दिया गया है! 28 अगस्त 1905 को इनका जन्म उत्तरप्रदेश के ज़िला सीतापुर के मोहल्ला कजियारा में हुआ था। '1945 में फिल्म "पहली नज़र" में गायक मुकेश द्वारा गाया उनका पहला प्रमुख गीत था। उन्होंने अपनी शिक्षा सीतापुर, लखनऊ और वाराणसी में प्राप्त की। पढ़-लिखकर वह अरबी, फ़ारसी, अंग्रेजी, संस्कृत, उर्दू और हिंदी भाषाओं में पारंगत हो गए। अपने स्कूली जीवन के दौरान ही सफ़दर ने शायरी शुरू कर दी थी।जब वो सिर्फ़ 14 साल के थे, उनकी रचनाएं विभिन्न समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लग गईं थीं। मात्र 17 साल की उम्र में उनका पहला कविता-संग्रह "अंजाम-ए-मोहब्बत" प्रकाशित हुआ। वर्ष 1928 में उन्होंने अपना उर्दू साप्ताहिक "हातिफ़" शुरू किया और कुछ ही समय में वे लोकप्रिय हो गए। इसके बाद उन्होंने हिन्दी साप्ताहिक "जनता" का संपादन और प्रकाशन किया। अपनी नज़्मों और ग़ज़लों की वजह से उनकी शोहरत पूरे देश मे फैलने लगी। उनके इस कौशल को फिल्मी हस्तियों ने भी महसूस किया था। एक्टर, निर्माता निर्देशक महबूब खान ने उन्हें बॉम्बे आने का निमंत्रण दिया। सफ़दर 'आह' को फिल्मी दुनिया से जुड़ने में कोई दिलचस्पी नहीं थी, वह केवल एक 'पर्यटक' के रूप में बंबई आए पर महबूब खान के पुरज़ोर इसरार पर फिल्मीं दुनिया से जुड़ गये।
बॉम्बे की यात्रा ने उनके जीवन में समृद्धि और सफलता के नये द्वार खोल दिए। उन्होंने महबूब खान की फिल्मों जैसे अलीबाबा (1950), बहन और नई रोशनी (1941), 'गरीब' और 'रोटी' (1942) के लिए गीत लिखे। जल्द ही वह अन्य फिल्म निर्माताओं में भी उनका मांग बढ़ गई। 1945 में सफ़दर 'आह' ने फ़िल्म "पहली नज़र" के लिए कहानी, संवाद और गीत लिखे। संगीत अनिल बिस्वास के संगीत निर्देशक में गायक मुकेश का पदार्पण हुआ, जिन्होंने अपना पहला हिट गीत "दिल जलता है तो जाने दे ..." गाया। इस मक़बूल गीत ने सफ़दर को फिल्मी दुनिया पूरी तरह स्थापित कर दिया। इसके बाद उन्होंने प्रार्थना (1943),1857 (1946) और उमर ख़य्याम (1946) जैसी फिल्मों के लिए कहानी और संवाद लिखे।1947 में उन्होंने हुस्ना, कन्हैया लाल, शैख़ मुख़्तार जैसे अभिनेताओं के साथ बतौर निर्माता निर्देशक उन्होंने फिल्म "भूख" बनाई। अभिनेत्री किरन की भी सेकंड लीड में यह 'डेब्यू फिल्म' थी। फ़िल्म 'भूख' को आज भी अपने समय के ऐतिहासिक एवं सामाजिक ड्रामे के रूप में याद किया जाता है।
ये भी इत्तेफ़ाक़ की बात है कि महबूब खान के लिये उनकी पहली फ़िल्म 'औरत' (1940) के लिए एक गीतकार के रूप में और उनकी आख़री फ़िल्म 'सन ऑफ़ इंडिया' (1962) के लिये सफदर 'आह' ने संवाद लिखे। इसी तरह संगीतकार अनिल बिस्वास और सफ़दर की जोड़ी कई फिल्मों तक साथ चली। अनिल बिस्वास के संगीत के तहत सफ़दर ने अपना करियर शुरू किया और अनिल बिस्वास के संगीत-निर्देशन में ही फ़िल्म "मान" (1954) में उनके साथ अपना आख़री गाना लिखा। 1962 के बाद सफ़दर ने फिल्मों से ख़ुद को दूर कर लिया और साहित्य, पर्यटन और तत्व-मीमांसा जैसे विविध विषयों की खोज शुरू कर दी। वह महाराष्ट्र के गणेशपुरी चले गए और अपना शेष जीवन वहीं बिताया.गणेशपुरी में अपने प्रवास के दौरान उन्होंने उर्दू भाषा में 'मीरा' और 'कबीर' सहित कई अन्य किताबें लिखी और प्रकाशित कीं। उनके अन्य उल्लेखनीय कार्यों में "अमीर ख़ुसरो बा-हैसियत हिंदी शायर", "रूबियत ज़मज़मा" "तुलसीदास और रामचरितमानस" शामिल हैं।
सफ़दर 'आह' सीतापुरी का 1935 से शुरू हुआ फ़िल्मी-सफ़र 1962 तक आब-ओ-ताब के साथ जारी रहा। फ़िल्में कामयाब होती रहीं गीत गुनगुनाये जाते रहे। लेकिन सफ़दर आह को वह मक़बूलियत नसीब न हुई जो उनका हक़ था। आख़िरकार 1962 में उन्होंनें फिल्म जगत को हमेशा के लिये अलविदा कह दिया। एकांतावास अख़्तियार कर गेरूआ लिबास धारण कर उन्होनें गणेशपुरी मुम्बई में अपने आपको एक कुटिया तक सीमित कर लिया। अपनी इसी ख़ामोश कुटिया में 29 जुलाई 1980 को सफ़दर 'आह' सीतापुरी ने इस फानी दुनिया से कूच कर गए।
आज उनकी 116वीं सालगिरह पर अपनी समस्त संवेदनाओं के साथ हम इस महान विभूति को साहित्य और फिल्मों में उनके योगदान के लिए सलाम करते हैं।
(मनोहर महाजन शुरुआती दिनों में जबलपुर में थिएटर से जुड़े रहे। फिर 'सांग्स एन्ड ड्रामा डिवीजन' से होते हुए रेडियो सीलोन में एनाउंसर हो गए और वहाँ कई लोकप्रिय कार्यक्रमों का संचालन करते रहे। रेडियो के स्वर्णिम दिनों में आप अपने समकालीन अमीन सयानी की तरह ही लोकप्रिय रहे और उनके साथ भी कई प्रस्तुतियां दीं।)
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