मनोहर महाजन, मुम्बई:
गायक-अभिनेता सुरेंद्र जिनका पूरा नाम सुरेंद्र नाथ शर्मा था- का जन्म 11 नवंबर 1910 को पंजाब के गुरदासपुर जिले के बटाला में हुआ था। उनके पिता का नाम रौला राम शर्मा था। स्कूलिंग के दौरान ही वह संगीत कार्यक्रमों में भाग लेते थे और उन्होने एक 'अच्छे गायक' की प्रतिष्ठा अर्जित की थी। सुरेन्द्र ने 1935 में पंजाब विश्व विद्यालय, अंबाला में अपनी शिक्षा पूरी की। उन्होंने अपनी बीए, एलएलबी की डिग्री प्राप्त की और पंजाब में एक वकील के रूप में काम करने की तैयारी शुरू कर दी। लेकिन दिल्ली के तत्कालीन अग्रणी वितरक लाला अलोपी प्रसाद और उनके मित्रों ने युवा सुरेन्द्र को फिल्मों में जाने के लिए की सलाह दी. वितरक और अपने दोस्तों की सिफ़ारिश पर 'गायक' बनने के लिए बॉम्बे आए। किस्मत ने साथ दिया वो महबूब खान द्वारा कलकत्ता के तत्कालीन गायक अभिनेता के.एल. सहगल के 'विकल्प' के रूप में फिल्मों में गाने और अभिनय करने के लिए "चुन" लिया गया। मेंहबूब खान द्वारा निर्देशित 'डेक्कन क्वीन' (1936) से उन्होंने अपने करियर की शुरुआत की। 'डेक्कन क्वीन' में सुरेंद्र द्वारा निभाई गई एक पुलिस इंस्पेक्टर की कहानी थी, जिससे जुड़वाँ बहनें प्यार करने लगती हैं.अनिल बिस्वास द्वारा संगीतबद्द सुरेन्द्र द्वारा गाया गया एक गीत "बिरहा की आग लागी", जो के.एल.सहगल के गीत "बालम आये बसो" से प्रेरित था,बेहद लोकप्रिय हुआ।
1936 में महबूब ख़ान बॉम्बे में एक फिल्म बनाना चाहते थे जो कलकत्ता के 'देवदास' को टक्कर दे। परिणाम फ़िल्म 'मनमोहन :(1936) में एक बार फिर सुरेंद्र मुख्य भूमिका में थे। जिया सरहदी ने फिल्म के लिए कहानी, पटकथा और संवाद लिखे। "गरीब आदमी के देवदास" के रूप में संदर्भित यह फिल्म एक बड़ी हिट साबित हुई। 1936 में तीसरी फिल्म सागर की 'ग्राम कन्या' थी, जिसका निर्देशन सर्वोत्तम बादामी ने किया था। इस फिल्म में सुरेंद्र ने सबिता देवी और अरुणा देवी के साथ अभिनय किया था.प्रसिद्ध भजन गायक शंकरराव खाटू द्वारा रचित फिल्म का संगीत जनता के बीच लोकप्रिय हुआ।
1938 में, सुरेंद्र अभिनीत फ़िल्म 'ग्रामोफोन सिंगर' रामचंद्र ठाकुर की पहली निर्देशित फिल्म थी, जिसे उन्होंने वी.सी. देसाई के साथ मिलकर निर्देशित किया था। फिल्म में संगीत अनिल बिस्वास का था। इसे 'संगीतमय प्रेम त्रिकोण' के रूप में प्रस्तुत किया गया था जिसमें सुरेंद्र ने बिब्बो और प्रभा के साथ अभिनय किया था. बिब्बो ने उनकी पत्नी की भूमिका निभाई थी। फिल्म की रिलीज़ के बाद,सुरेंद्र और बिब्बो फिल्मी पर्दे की एक लोकप्रिय जोड़ी बन गए और एक साथ कई फिल्मों में काम किया.सुरेंद्र का गीत "एक छोटा सा मंदिर बनाया हुआ है" लोकप्रिय हुआ था।
1940 में,महबूब खान ने 'नेशनल स्टूडियो' के बैनर तले फ़िल्म'औरत' का निर्माण किया। महबूब ने बाद में 1957 में फ़िल्म 'औरत' का 'मदर इंडिया' के रूप में सफल 'रीमेक' बनाया था। 'औरत' में उन्होंने सुरेंद्र को बड़े भाई के रूप में कास्ट किया, जो कि मदर इंडिया में राजेंद्र कुमार द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका थी। याकूब को छोटे भाई बिरजू के रूप में चुना गया। सरदार अख्तर ने माँ की भूमिका निभाई थी। सुरेंद्र और ज्योति द्वारा गाया गया गीत "उठ सजनी खोल किवाड़े, तेरे सजन हैं द्वारे" बहुत हिट हुआ था. सिने-पत्रिका 'फिल्मइंडिया' के संपादक बाबूराव पटेल ने इस गीत के बारे में दावा किया कि "सुरेंद्र ने इससे कभी बेहतर नहीं गाया". (जून 1940 का अंक)। फ़िल्म'अली बाबा' (1940) में सरदार अख़्तर और वहीदन बाई के साथ शीर्षक भूमिका में सुरेंद्र ने अभिनय किया, जिसे हिंदी और पंजाबी दोनों भाषाओं में बनाया गया था। इसमें सुरेंद्र ने 'अलीबाबा' और उसके 'बेटे' की दोहरी भूमिका निभाई. इस फिल्म का लोकप्रिय गीत "हम और तुम और ये ख़ुशी ये क़हक़हे ये दिल्लगी",सुरेंद्र और वहीदन द्वारा गाया गया था।
1940 में, जून 1940 के अंक में 'फिल्मइंडिया' के संपादक बाबूराव पटेल ने लिखा कि सुरेंद्र बॉम्बे टर्फ क्लब के लॉन में घुड़सवारी करते हुए गिर गए थे. वह कई महीनों तक अस्पताल में भर्ती रहे। उस समय अफ़वाहें सामने आई थीं कि सुरेंद्र ने अभिनय से संन्यास ले लिया था। हालांकि, समाचार में रिपोर्ट को खारिज करते हुए, सुरेंद्र ने अपनी फिल्मों को पूरा करने के लिए लगभग दस महीने बाद वापसी की.तब उनके पैर में लंगड़ाहट आ गयी जो जीवन भर बनी रही.. दो साल के अंतराल के बाद सुरेंन्द्र ने वजानी मिर्ज़ा द्वारा निर्देशित फ़िल्म 'जवानी' (1942) से वापसी की.1943 में उन्होंने संगीत निर्देशक ज्ञान दत्त द्वारा निर्देशित : 'पैगाम, किदार शर्मा द्वारा निर्देशित: 'विश्वकन्या' और होमी वाडिया द्वारा निर्देशित फ़िल्म:'विश्वास' में अभिनय किया। 1944 में, सुरेन्द्र ने तीन फिल्मों: 'लाल हवेली', 'भृतहरि' और 'मिस देवी' में अभिनय किया. पहली दो फ़िल्में 1944 की सफलतम फिल्में थीं.। लाल हवेली' में उन्होंने गायिका अभिनेत्री नूरजहाँ के साथ काम किया। के.बी. लाल द्वारा निर्देशित,इस फ़िल्म में मीर साहब का संगीत था,इसका युगल गीत "दिल ले के मुकर ना जाना, नाज़ुक है बहुत ज़माना", नूरजहां और सुरेंद्र द्वारा गाया गया और सुरेंद्र द्वारा दो सोलो गीत:"ये फ़िक्र हैं श्याम पिछले सवेरे" और "क्यूं मन दौड़े प्रेम नदी का किनारा" प्रसिद्ध हुए।
चतुर्भुज दोषी द्वारा निर्देशित फ़िल्म 'भर्तृहरि' का संगीत खेमचंद प्रकाश ने दिया था। लोकप्रिय गीत "भंवरा मधुबन में जा", प्रेम बिना सब सूना", "भिक्षा दे दे माँ पिंगला" और "अल्लाह नाम रस पीना प्राणी" थे। 1946 में सुरेंद्र ने और नूरजहाँ और सुरैया के साथ उस वर्ष की सबसेअधिक कमाई करने वाली फ़िल्म 'अनमोल घड़ी' में अभिनय किया.महबूब ख़ान द्वारा निर्देशित इस फ़िल्म में संगीत नौशाद का था। पत्रकार और लेखक रऊफ अहमद के अनुसार, महबूब ख़ान ने शुरू में एक ग़लतफ़हमी के कारण अनमोल घड़ी में सुरेंद्र को नहीं लेने का फैसला किया था। हालांकि यह भूमिका सुरेंद्र को ध्यान में रखकर लिखी गई थी। इस फ़िल्म में सुरेन्द के गायन और अभिनय ने सिद्ध कर दिया कि उनका चुनाव सही और उपयुक्त था.सुरेंद्र के एकल "क्यूं याद आ रहे हैं " और "अब कौन है मेरा" और नूरजहाँ के साथ एक युगल "आवाज दे कहां है" बहुत "बड़े हिट" साबित हुए।
1946 की अन्य फिल्मों में मोहन सिन्हा की ,'1857' में सुरैया के साथ,और वी.एम.गुंजल द्वारा निर्देशित 'पनिहारी' थी। 1947 में बनी फ़िल्म'एलान' महबूब ख़ान द्वारा निर्देशित एक मुस्लिम सामाजिक फिल्म थी। इसमें नौशाद का संगीत था.'एलान' को दर्शकों द्वारा इसे पूरी तरह नकार दिया गया।जबकि सुरेंद्र के अभिनय को "सरल-हृदय" सौतेले भाई के रूप में सराहा गया था। सुरेंद्र ने मोहन सिन्हा द्वारा निर्देशित दो फिल्मों में अभिनय किया गया-'मेरे भगवान' और 'चित्तौड़ विजय', जो व्यावसायिक रूप से असफल रहीं।1949 में मोहन सिन्हा द्वारा बनाई गई एक तीसरी फिल्म 'इम्तिहान' भी फ्लॉप हो गई। सुरेन्द्र की फिल्मोंं के खराब प्रदर्शन ने उनके अभिनय करियर में एक रुकावट ला खड़ी की।1948 में, महबूब खान ने 'अनोखी अदा' में सुरेंद्र को नसीम बानो और प्रेम अदीब के साथ कास्ट किया। 'अनोखी अदा' ,अनमोल घड़ी जैसा "जादू" जगाने में असफल रही और बॉक्स ऑफिस पर मामूली प्रदर्शन कर पाई। शमशाद बेगम के साथ उनका युगल गीत "क्यूं उन्हे दिल दिया" बेहद सराहा गया। फ़िल्म अनोखी अदा आखिरी फिल्म थी जिसमें महबूब और सुरेंद्र ने एक साथ काम किया।
1950 में भारत की 'डॉक्यूमेंट्री यूनिट' द्वारा प्रस्तुत पॉल ज़िल्स द्वारा निर्देशित फ़िल्म 'हिंदुस्तान हमारा में पृथ्वीराज कपूर, देव आनंद, दुर्गा खोटे और पी.जयराज के साथ सुरेंद्र ने भी काम किया। 1954 में, फ़िल्म 'गवैया' के गीत "तेरी याद का दीपक जलता है दिन रात मेरे वीराने " के "सुपर-हिट" होने के बावजूद उनकी भूमिकाएँ सिमटती गईं। वो चरित्र भूमिकाएं करने लगे। 1952 में उन्हें विजय भट्ट की फिल्म 'बैजू बावरा' में 'तानसेन' एक छोटी भूमिका की। फिल्म में खुद के लिए गाने के बजाय,सुरेंद्र को गीत के लिए उस्ताद अमीर खान से लिप-सिंक करना पड़ा. रानीरूपमती'(1957),'मुग़ल-ए-आज़म' (1960) शामिल थीं, जहाँ उन्होंने फिर से 'तानसेन' का रोल निभाया. इसके अलावा फ़िल्म 'हरियाली और रास्ता' (1962),गीत गाया पत्थरों ने (1964), वक़्त (1965), बून्द जो बन गयी मोती,मिलन (1967) और सरस्वतीचंद्र (1968) आदि में उन्होंने छोटे मोटे रोल किये। सुरेंद्र ने अपनी मृत्यु से कई साल पहले एक विज्ञापन फिल्म कंपनी 'सुरेंद्र फिल्म प्रोडक्शंस' शुरू की थी जिसके अंतर्गत उन्होंने 'कोलगेट' और 'लिरिल सोप' जैसे "बड़े ब्रांडों" के लिए विज्ञापन फिल्में और टेलीविजन विज्ञापन बनाना शुरू कर दिए थे। बाद में इसका नाम बदलकर 'जे के एडवर्टाइजर्स' और और फिर 'एफ.ए.आर. प्रोडक्शंस' कर दिया गया। उन्हीं के पदचिन्हों पर चलकर आज उनके बेटे कैलाश सुरेंद्रनाथ एक 'विज्ञापन' और 'फीचर फिल्म' निर्माता और 'कैलाश पिक्चर कंपनी' के संस्थापक हैं। उनकी शादी अपने दौर की 'टॉप मॉडल' आरती गुप्ता से हुई है। इन दोनों के साथ मुझे काफी सारे फैशन शोज़ और एड फिल्में करने का सौभाग्य प्राप्त है। सुरेंद्र की मृत्यु 11 सितंबर 1987 को 76 वर्ष की आयु में मुंबई, महाराष्ट्र में हुई। उनकी फ़िल्में और उनके गाये नग़मे आज भी संगीत-प्रेमियों के दिलों में बसे हैं,जो हमेशा उन्हें ज़िंदा रखेंगे।
(मनोहर महाजन शुरुआती दिनों में जबलपुर में थिएटर से जुड़े रहे। फिर 'सांग्स एन्ड ड्रामा डिवीजन' से होते हुए रेडियो सीलोन में एनाउंसर हो गए और वहाँ कई लोकप्रिय कार्यक्रमों का संचालन करते रहे। रेडियो के स्वर्णिम दिनों में आप अपने समकालीन अमीन सयानी की तरह ही लोकप्रिय रहे और उनके साथ भी कई प्रस्तुतियां दीं।)
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