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‘तीसरी कसम’ के साथ 12वें पटना फिल्मोत्सव का रंगारंग समापन

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सुधीर सुमन, पटना: 
हिरावल-जन संस्कृति मंच के बैनर तले चल रहे तीन दिवसीय 12वें ‘पटना फिल्मोत्सव: प्रतिरोध का सिनेमा’ का समापन हो गया। उत्सव के आखिरी दिन कालिदास रंगालय में महान कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी पर बनाई गई क्लासिक फिल्म ‘तीसरी कसम’ दिखाई गई। हिरावल के कलाकारों ने चर्चित रंगकर्मी राजेश कुमार के नाटक ‘सुखिया मर गया भूख से’ की नाट्य प्रस्तुति की। फिल्म और नाटक दोनों के केंद्र में गांव था। फिल्म में एक भोलेभाले गाड़ीवान हीरामन और नौटंकी कंपनी की एक अभिनेत्री हीराबाई के बीच एक अनकहे प्रेम की कसक थी, तो नाटक में कर्ज और भूख से एक किसान की मृत्यु और प्रशासन की नौटंकी का यथार्थ था। दोनों में दो भिन्न दुनियाएं है, जो सहज मानवीय प्रेम और जीवन में बाधक हैं।
  

सजनवा बैरी हो गये हमार
हाय गजब कहीं तारा टूटा...
तुम्हारे महल चौबारे यहीं रह जाएंगे सारे
चलत मुसाफिर मोह लिया रे पिंजरे वाली मुनिया
गाड़ीवान हीरामन की नौटंकी की कलाकार हीराबाई के प्रति दुर्निवार आकर्षण की फिल्म
फणीश्वरनाथ रेणु के जन्मशताब्दी वर्ष के मौके पर उन्हें उनकी कहानी ‘मारे गए गुलफाम उर्फ तीसरी कसम’ पर गीतकार शैलेंद्र द्वारा निर्मित और बासु चटर्जी द्वारा निर्देशित मशहूर फिल्म ‘तीसरी कसम’ के प्रदर्शन के जरिए याद किया गया।
फणीश्वरनाथ रेणु अपनी कहानियों और उपन्यासों में ग्रामीण संस्कृति और उसके मोहक रंग-रूप-रस के जीवंत चित्रण के लिए प्रसिद्ध हैं। उनकी कहानी पर आधारित फिल्म ‘तीसरी कसम’ एक गाड़ीवान और नौटंकी कंपनी की अभिनेत्री के लोकगाथात्मक प्रेम को बड़े ही प्रभावशाली ढंग से सिनेमा के पर्दे पर पेश करने में सफल है। सन् 1966 में बनी इस फिल्म का जादू दर्शकों पर आज भी देखा जाता है।
फिल्म का परिचय कराते हुए कहानीकार संतोष दीक्षित ने कहा कि इस फिल्म की कहानी एक गाड़ीवान हीरामन की नौटंकी की कलाकार हीराबाई के प्रति दुर्निवार आकर्षण की कहानी है। हीरामन इस फिल्म में तीन कसमें खाता है- एक तो चोरी का सामान नहीं लादेगा, बांस नहीं लादेगा और कभी किसी नौटंकी की बाई को गाड़ी पर नहीं चढ़ाएगा। यह कहानी मूलतः एक गाड़ीवान के नजरिये को पेश करती है। गाड़ीवान बाल-विधुर है। उसकी भौजाई उसकी शादी कुंवारी लड़की से कराना चाहती है। कुंवारी का मतलब है, चार-पांच साल की उम्र की लड़की। हीरामन जिसकी उम्र चालीस के करीब है वह इसके लिए तैयार है। वह हीराबाई को बताता है कि यहां श्रद्धा यानी शारदा कानून का कोई महत्व नहीं है। हीराबाई धीरे-धीरे हीरामन के प्रति आकर्षित होने लगती है। वह उसे मीता कहती है। उसका गाना सुनती है, तो उसे अपना गुरु मानने लगती है। दोनों के बीच अनकहा प्रेम है, पर उन्हें बिछड़ना पड़ता है। संतोष दीक्षित ने कहा कि फिल्म में आई महुआ घटवारिन की लोककथा का प्रसंग अत्यंत अर्थपूर्ण है। महुआ घटवारिन सौदागर के हाथों बेच दी जाती है और फिल्म में हीराबाई बाजारू संबंधों की दुनिया से मुक्त नहीं हो पाती। लेकिन शैलेंद्र ने एक गीत की पंक्तियां बाजार द्वारा संचालित दुनिया को भी आईना दिखाती है- तुम्हारे महल चैबारे यहीं रह जाएंगे सारे/ अकड़ किस बात की प्यारे, ये सर फिर भी झुकाना है।



सुखिया मर गया भूख से : किसानों के अवश्यंभावी प्रतिरोध की ओर संकेत
हिरावल के कलाकारों द्वारा मंचित राजेश कुमार लिखित नाटक ‘सुखिया मर गया भूख से’ का कथ्य 12वें पटना ¬फिल्मोत्सव के थीम से संबंधित था। नाट्य प्रस्तुति से पूर्व अपने वीडिओ संदेश में आजादी के आंदोलन में नाटकों की भूमिका का जिक्र करते हुए राजेश कुमार ने कहा कि जनता के ज्वलंत मुद्दों पर नाटक करना बहुत जरूरी है। प्रतिरोध के नाट्यकर्म की जरूरत पर उन्होंने बल दिया।
कारपोरेटपरस्त नीतियों की वजह से पिछले तीस वर्षों में भारत में कृषि और किसानों की हालत खराब होती गई है। भुखमरी की घटनाएं भी बढ़ी हैं, परंतु सरकार और प्रशासन इसे कभी मंजूर नहीं करता कि भुखमरी से कोई मौत हुई है। इस नाटक के केंद्र में सुखीराम एक छोटा किसान है। नाम उसका सुखी है, पर वह सुखी है नहीं। आर्थिक बदहाली, महंगाई, सरकारी कर्ज, किश्त चुकाने की समस्या से वह जूझता है। अंततः भूख से उसकी मौत हो जाती है। उसके बाद प्रशासन की नौटंकी शुरू होती है। सभी अधिकारी अपने अधीनस्थ अधिकारियों पर जिम्मेवारी डालते हैं। सुखिया के मर जाने के बाद उसके घर प्रशासन के लोग अनाज पहुंचा देते हैं, उसका बीपीएल कार्ड बन जाता है, उसे इंदिरा आवास भी मिल जाता है। मंत्री और पुलिस-प्रशासन- सब भुखमरी के सच को एक सिरे से नकारने में लग जाते हैं। एसडीएम कहता है- ‘‘इस सफाई से काम करेंगे कि सुखिया का बाप भी आकर कहेगा कि भूख से मरा है, तो कोई विश्वास नहीं करेगा। दरोगा झल्लाकर बोलता है- ‘‘कुएं में कूदकर मरता, कोई रोकने नहीं जा रहा था। डूबना रास नहीं आ रहा था तो कोई सस्ता और भरोसेमंद नुस्खा आजमाया होता। कीटनाशक तो आज हर किसान के घर में मिल जाता है।’’ 



ऐसी घटनाओं पर मीडिया की किस तरह की भूमिका होती है, नाटक ने इसे भी दिखाया। कर्ज वसूलने वाले त्रासदी के शिकार सुखिया के परिवार को भी नहीं छोड़ते। नाटक के अंतिम दृश्य में यमराज और सुखीराम का संवाद काफी अर्थपूर्ण लगा। सुखीराम यमराज के साथ जाने से इनकार कर देता है। यमराज सवाल पूछता है- ‘‘कब तक यहां भटकते रहोगे? सुखीराम जवाब देता है- ‘‘जब तक भूख से मुक्त नहीं हो जाता।’’ इसी बीच उसकी पत्नी और बच्चे फांसी लगा लेते हैं और कई लोग फांसी लगाने लगते हैं। यमराज चिल्लाता है- ‘‘ऐसा हो नहीं सकता, ऐसा तो कभी हो नहीं सकता! आत्महत्या से मरे हुए किसानों के प्राण जो बोरे में बंद थे। हरामजादे लात मारकर बाहर हो आए हैं, न जाने कहां गायब हो गए हैं।’’ अंत में अचानक सारे मरे हुए किसान यमराज पर हंसने लगते हैं। इस प्रकार मौजूदा परिस्थितियों में किसानों का प्रतिरोध अवश्यंभावी है, इस संकेत के साथ नाटक समाप्त होता है।
 
नाटक का निर्देशन सामूहिक था। सुखीराम और इमरती देवी की भूमिकाएं रविभूषण कुमार और मंजरीमणि त्रिपाठी ने निभाई थी। सुधांश शांडिल्य, सम्राट शुभम, राजदीप कुमार और कृष्ण कुमार जायसवाल ने डीएम, अर्दली, दरोगा और यमराज का अभिनय किया। अंकित कुमार पांडेय एसडीएम बने थे और मास्टरनी की भूमिका शांति इस्सर ने निभाई थी। प्रधान, डाॅक्टर, बैंक मैनेजर, रिकवरी एजेंट, कोटेदार, कैमरामैन, रिपोर्टर, झुनिया की भूमिकाएं वेदप्रकाश, सृष्टि कश्यप, सुप्रिया सुमन शुक्ला, राजभूमि, राजन कुमार, शुभम दूबे और अनोखी कुमारी ने निभाई। सिपाही की भूमिका में विकास सिंह और सौरभ तक्षय थे और बच्चे की भूमिका में आदित्य कुमार और कृष कुमार थे। वेदप्रकाश, आशीष, हर्षिता, सम्राट, सृष्टि विकास, शांति आदि ने ग्रामीणों की भूमिका निभाई। प्रकाश व्यवस्था, कास्ट्यूम और प्रोपर्टी की जिम्मेवारी क्रमशः राजभूमि, सृष्टि कश्यप और सुप्रिया सुमन शुक्ला पर थी।

  
तीन नौजवान फिल्म निर्देशकों को सम्मानित किया गया
पटना फिल्मोत्सव आयोजन समिति की ओर से आज तीन नौजवान फिल्म निर्देशकों- अमृत राज, आर्यन कुमार और अभिषेक राज को सम्मान-पत्र दिया गया। फिल्मोत्सव के दूसरे दिन इन तीनों फिल्मकारों द्वारा बनाई गई फिल्मों का प्रदर्शन हुआ था। इनकी फिल्में एक ओर बच्चों की दुनिया में मौजूद वर्गीय विषमता के सच को दर्शाती हैं, वहीं भारत में दृष्टिहीनता की समस्या को उठाती है। 

काव्य-संग्रह ‘कंकड़ियां चुनते हुए’ का लोकार्पण  
इस बार भी फिल्मोत्सव में हर बार की तरह बुक स्टाॅल लगाया गया था। कालिदास रंगालय प्रेक्षागृह के बाहर प्रांगण को पेटाढ़ी (पुआल) से सजाया गया था। गेहूं हरे भरे खेत और सरसों के फूलों के दृश्यों के बड़े फ्लैक्स बोर्ड लगाए गए थे। प्रेक्षागृह के प्रागंण में ही कवि सुनील श्रीवास्तव के पहले कविता संग्रह ‘कंकड़ियां चुनते हुए’ का लोकार्पण किया गया।


फिल्मोत्सव का एक स्थायी दर्शक वर्ग बन चुका है
बारह वर्षों से नियमित रूप से हिरावल-जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित हो रहे ‘पटना फिल्मोत्सव: प्रतिरोध का सिनेमा’ ने अपना स्थायी दर्शक वर्ग निर्मित कर लिया है, जिन्हें इस आयोजन का इंतजार रहता है। ऐसे दर्शकों में प्रो. भारती एस कुमार, प्रो. संतोष कुमार, संस्कृतिकर्मी सुमंत शरण, कहानीकार अवधेश प्रीत, संतोष दीक्षित, वरिष्ठ रंगकर्मी सुमन कुमार, पत्रकार श्रीकांत, सामाजिक कार्यकर्ता गालिब खान, पत्रकार रंजीव, डाॅ. विष्णु प्रभाकर, महिला आंदोलन की नेता सरोज चौबे, अनीता सिंह,राणा संतोष कमल, सुशील कुमार, मधुबाला, कुमार मुकुल, कवि सत्येंद्र कुमार, कवि सुनील श्रीवास्तव, अंचित, शाहनवाज, पी.के. ओझा, मधुबाला, अरुण पाहवा, संगीता जी, सुनील सरीन, अनिल अंशुमन, रंगकर्मी पुंज प्रकाश,  विकास, आकाश, सुधीर, विनय कुमार सिंह, विधायक अजित कुशवाहा, संदीप सौरभ, वीरेंद्र गुप्ता, प्रो. चिंटू कुमारी, प्रो. मनीषा कुमारी, पंकज कुमार श्रीवास्तव, पीयूष राज, प्राची राज, चितरंजन भारती, आशुतोष कुमार, परवेज, दिलराज प्रीतम, प्रकाश कुमार, राजाराम सिंह, संदीप कुमार आदि इस बार भी मौजूद थे। हर बार की तरह संतोष झा, विस्मय चिंतन, राजेश कमल, संतोष सहर, सुमन कुमार, सुधीर सुमन, रामकुमार, प्रकाश, कुमुद रंजन, राजन, फिल्मोत्सव की संयोजक प्रीति प्रभा और हिरावल के तमाम कलाकारों ने फिल्मोत्सव को सार्थक और सफल बनाने के लिए हरसंभव कोशिश की।