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उस धुरंधर संगीतकार की कहानी जिन्होंने सबसे पहले लता मंगेशकर को दिया ब्रेक

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मनोहर महाजन, मुम्बई:

आज फ़िल्म-संगीत के एक ऐसे धुरंधर संगीतकार की कहानी, जिन्होंने पंजाबी संगीत में लोकप्रिय रागों को मिलाकर फिल्म संगीत के चेहरे को ही बदल दिया। यही नहीं फिल्म संगीत निर्देशकों की हैसियत को बढ़ाने में भी मदद की। उन्हें ही प्रसिद्ध पार्श्व गायक लता मंगेशकर को ब्रेक देने के लिए भी जाना जाता है। लता मंगेशकर के सिने करियर के शुरुआती दौर में कई निर्माता और निर्देशक और संगीतकारों ने पतली आवाज के कारण उन्हें गाने का अवसर नहीं दिया लेकिन उस समय एक संगीतकार ऎसे भी थे, जिन्हें लता मंगेशकर की प्रतिभा पर पूरा भरोसा था और उन्होंने उसी समय भविष्यवाणी कर दी थी। यह लड़की आगे चलकर इतना अधिक नाम क रेगी कि बडे से बडे निर्माता-निर्देशक और संगीतकार उसे अपनी फिल्म में गाने का मौका देंगे। वो संगीतकार थे-गुलाम हैदर।

2013 में  अपने 94वें जन्मदिन  के एक इंटरव्यू में अपनी 'शुरुआती अस्वीकृति' को याद करते हुए, लता जी ने कहा था : "गुलाम हैदर पहले संगीत निर्देशक थे, जिन्होंने मेरी प्रतिभा पर पूरा विश्वास दिखाया। उन्होंने मुझे एस.मुकर्जी सहित कई निर्माताओं से मिलवाया, जो फिल्म निर्माण में एक बड़ा नाम थे। जब सबने मुझे लेने से मना कर दिया तो ग़ुलाम हैदर  ग़ुस्से से तिलमिला उठे, उनका स्वभिमान और जलाल जाग उठा। अंततः उन्होंने बॉम्बे टॉकीज़ वालों को मना लिया जो एस.मुकर्जी से भी बड़ा बैनर था। फ़िल्म मजबूर (1948 फिल्म) के माध्यम से हैदर साहब ने मुझे फ़िल्म इंडस्ट्री में स्थापित करके ही दम लिया। ग़ुलाम हैदर वास्तव में मेरे गॉडफादर हैं।" 

 

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ग़ुलाम हैदर का जन्म 1908 में पंजाब के नारोवाल में हुआ था,(अब पाकिस्तानी पंजाब में )। एक अन्य खाते में कहा गया है कि उनका जन्म हैदराबाद, सिंध में हुआ था। बहरहाल,अपनी इंटरमीडिएट परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद, उन्हें दंत चिकित्सा के एक कॉलेज में भर्ती कराया गया और एक 'दंत चिकित्सक' के रूप में अपनी शिक्षा पूरी की। संगीत के प्रति लगाव के कारण, उन्होंने बाबू गणेश लाल से संगीत सीखना शुरू किया। संगीत के प्रति  बेहद प्रेम ने उन्हें एक डेंटिस्ट के रूप में अपना करियर छोड़ने पर आमादा कर दिया। उनके परिवार के क्रोध का सामना करना पड़ा पर उन्होंने उसकी परवाह न करते हुए 'अल्फ्रेड थियेट्रिकल कंपनी' और 'अलेक्जेंडर थियेट्रिकल कंपनी' के साथ कलकत्ता में एक पियानो वादक के रूप में काम करना शुरू कर दिया। बाद में 'जेनाफ़ोन रिकॉर्डिंग कंपनी' के साथ संगीत संगीतकार के रूप में जुड़ गए। वहां उन्होंने तत्कालीन प्रसिद्ध गायिका,उमराव ज़िया बेगम के लिए संगीत तैयार किया,और बाद में उन्हीं से शादी कर ली। 

ग़ुलाम हैदर ने पिता-पुत्र की जोड़ी रोशन लाल शौरी और रूप कुमार शोरे के साथ फिल्मों में क़दम रखा। ए.आर.कारदार ने उन्हें 1935 की फिल्म, 'स्वर्ग की सेहरी: के लिए संगीत तैयार करने का मौक़ा दिया। लेकिन उन्हें पहली बड़ी सफलता डी.एम.पंचोली की पंजाबी फिल्म, 'गुल-ए-बकावली' (1939) में नूरजहाँ के साथ मिली। इसके बाद फिल्म 'यमला जट' (1940) आई । 1941 में उनकी सुपर हिट फ़िल्म खजांची के संगीत ने फ़िल्म-उद्योग में तहलका मचा दिया। विशेष रूप से,उनका और शमशाद बेगम द्वारा गाया गया गीत "सावन के नज़ारे हैं" संगीत रचनाओं  में आज भी अग्रणी माना जाता है 'खजांची' के संगीत के बाद अन्य फिल्म संगीत-निर्देशकों को भी नोटिस किया जाने लगा। 


फ़िल्म गायिका एवं अभिनेत्री के रूप में नूरजहाँ की पहली फिल्म ख़ानदान (1942) भी एक बड़ी हिट थी और इस फ़िल्म ने उन्हें एवं नूरजहां को क्रमशः एक शीर्ष सिंगिंग स्टार और फिल्म संगीतकार के रूप में स्थापित कर दिया। फिल्म पूंजी (1943) भी सफल रही। फिर हैदर ने बंबई का रुख़ किया और हुमायूँ (1945) और फ़िल्म मजबूर (1948 ) सहित कई फ़िल्मों के लिए संगीत तैयार किया, जो हिंदी फ़िल्मों में लता मंगेशकर की पहली बड़ी सफल फ़िल्म थी। फ़िल्म शहीद (1948) और कनीज़ ( 1949) उनकी अन्य बड़ी हिट फ़िल्में रहीं। उन्होंने लता मंगेशकर, सुधा मल्होत्रा और सुरिंदर कौर को भारतीय फिल्म उद्योग में पेश किया।इसके अलावा फिल्म संगीत में 'पंजाबी लोक संगीत' और 'ढोलक' जैसे वाद्य यंत्रों को पेश करने का श्रेय भी मास्टर गुलाम हैदर को ही जाता है। संगीत में उनके अग्रणी काम ने बाद में हंसराज बहल,श्याम सुंदर, हुस्नलाल भगतराम और फ़िरोज़ निज़ामी जैसे कई  दिग्गज पंजाबी फ़िल्म संगीत निर्देशकों को प्रेरित किया। मुंबई में उनके सहायक संगीतकारों में मदन मोहन और नाशाद  प्रमुख थे। बाद में पाकिस्तान के मशहूर संगीत निर्देशक ए.हमीद ने  भी उनके सहायक के रूप में काम किया। 1947 में आजादी के बाद, वह लाहौर लौट गए। वहां भी उन्होंने कई  पाकिस्तानी फ़िल्मों जैसे कि 'बीकर' (1950),'अकेली' (1951) और 'भीगी पलकें' (1952) के लिए संगीत तैयार किया लेकिन वो फिल्में वो जादू न कर सकीं जो आज़ादी के पहले की  फ़िल्मों ने किया था। फ़िल्म 'गुलनार' (1953) की रिलीज़ के कुछ दिनों बाद ही 9 नवम्बर 1953 को लाहौर पाकिस्तन में उनकी मृत्यु हो गई। फ़िल्म संगीत के स्वर्णिम युग के इस सारथी को उनकी 68वीं बरसी पर हम उन्हें सलाम करते हैं, उनका नमन करते हैं।

 

(मनोहर महाजन शुरुआती दिनों में जबलपुर में थिएटर से जुड़े रहे। फिर 'सांग्स एन्ड ड्रामा डिवीजन' से होते हुए रेडियो सीलोन में एनाउंसर हो गए और वहाँ कई लोकप्रिय कार्यक्रमों का संचालन करते रहे। रेडियो के स्वर्णिम दिनों में आप अपने समकालीन अमीन सयानी की तरह ही लोकप्रिय रहे और उनके साथ भी कई प्रस्तुतियां दीं।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।