मनोहर महाजन, मुम्बई:
अपने अभिनय से लाखों दिलों को जीतने वाले जबलपुर के 'गौरव पुत्र' अभिनेता प्रेमनाथ का पूरा नाम प्रेमनाथ मल्होत्रा (21 नवंबर 1926, 3 नवंबर 1992) था। उनका पाकिस्तान के पेशावर में हुआ था। देश के विभाजन के बाद उनका परिवार मध्य प्रदेश के जबलपुर शहर में आकर बस गया। प्रेमनाथ और राजकपूर पेशावर से ही गहरे मित्र थे एक बार दोनों जबलपुर से कुछ दूर बसे एक कस्बे रीवा गए जहां राज कपूर ने प्रेमनाथ की बहन कृष्णा को देखा और दिल दे बैठे। दोस्ती रिश्तदारी में बदल गई।
बड़े ताज्जुब की बात है कि 100 से अधिक फिल्मों के ज़रिए तीन दशकों तक फ़िल्म-उद्योग पर छाए रहने वाले प्रेमनाथ ने जिन फिल्मों में 'नायक' की भूमिका निभाई, वे अच्छा प्रदर्शन करने में विफल रहीं, लेकिन जिन फिल्मों में उन्होंने 'खलनायक' की या 'सहायक भूमिकाएं' निभाईं, वे भारतीय फिल्म इतिहास की कुछ सबसे बड़ी ब्लॉकबस्टर फिल्में साबित हुईं। उनकी कुछ सबसे उल्लेखनीय फिल्में थीं आन (1952), तीसरी मंजिल (1966), जॉनी मेरा नाम (1970), तेरे मेरे सपने (1971), रोटी कपड़ा और मकान (1974), धर्मात्मा (1975), कालीचरण (1976) और देश प्रीमी (1982)। उन्होंने धार्मिक पंजाबी फिल्म 'सत श्री अकाल' (1977) में भी अभिनय किया। यही नहीं उन्होंने फ़िल्म शोर (1972), बॉबी (1973), अमीर गरीब (1974) और रोटी कपड़ा और मकान (1974) के लिए सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता के रूप में फिल्मफेयर नामांकन अर्जित किया।उन्होंने फिल्म 'समुंदर' (1957) का भी निर्देशन किया। उनकी आख़िरी उपस्थिति फ़िल्म 'हम दोनों (1985) में थी जिसके बाद उन्होंने अभिनय से संन्यास ले लिया।
उनके इस संक्षिप्त फिल्मी-सफ़र बाद जबलपुर के इस लाडले की जबलपुर से जुड़ी कुछ बातें आपके साथ शेयर करना चाहता हूँ। एक ज़माने में अंग्रेजों द्वारा निर्मित 'इंपायार टाकीज़ जो आज खंडहर में बदल चुकी है जबलपुर शहर का आकर्षण और गौरव थी। यही वो समय था जब अपने जीवंत अभिनय के लिए जाने जाने वाले प्रेमनाथ मल्होत्रा मेरा मतलब अभिनेता प्रेमनाथ स्कूल में पढते थे। उन्हें फिल्में देखने का जुनून की हद तक शौक़ था। एक दिन वो इंपायार टाकीज़ की दीवाल फांदकर बिना टिकट लिए चोरी से पिक्चर हॉल में पिक्चर देखने बैठ गए। टिकिट चैक करने वाला बंदा आया। उसने प्रेमनाथ से टिकिट मांगी तो उन्होंने टिकिट न होने की बात कही और बताया कि वो बाउंड्री वाल फांदकर अंदर आये हैं। उस टिकिट चैक करने वाले बंदे ने प्रेमनाथ को जोर से एक थप्पड़ जड़ दिया और कॉलर पकडकर हॉल के बाहर लाया और बोला: "जैसे दीवार फांदकर आये हो वैसे ही फांदकर दफ़ा हो जाओ।" अपमान से बुरी तरह विचलित किशोर प्रेमनाथ ने उस बंदे से कहा: "एक दिन ये टाकीज़ मेरी होगी।
प्रेमनाथ जब बडे़ हुए और पिता की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ अभिनय करने मुंबई चले गए। लेकिन इस थप्पड़ को कभी नही भूले। 1952 में अंग्रेजों द्वारा निर्मित इंपायार टाकीज़ को उन्होंने खरीद लिया। मालिक बनने के बाद उद्घाटन के दौरान प्रेमनाथ उसी तरह से बाउंड्री वाल फांदकर टाकीज़ के भीतर गये जैसे वो किशोर अवस्था में दीवार फांदकर टाकीज के भीतर गये थे। यह भी संयोग ही था कि प्रेमनाथ को झापड़ मारने वाला टिकिट चैक करने वाला वो बाँदा तब भी वहीं काम कर रहा था। प्रेमनाथ ने उस थप्पड़ मारने वाले टिकिट चेकर को बुलाया। घबराया हुआ टिकिट-चेकर प्रेमनाथ के सामने आया। प्रेम नाथ प्रेम से उसके गले मे हाथ डालकर बड़े उसे उसी कुर्सी तक लेकर आये, फूल माला पहनाकर उसी कुर्सी पर उसे बिठाया और उससे बोले: "अगर तुमने मुझे थप्पड़ मार कर भगाया न होता तो आज मैं इस एम्पायर टाकीज का मालिक नहीं बनता। इस नज़ारे को देखकर सब दंग रह गए। इस घटना के बाद 'प्रेमनाथ'और 'इंपायार टाकीज़' के नाम जबलपुर शहर के पर्याय बन चुके थे। अब आपको ले चलता हूँ 60 के दशक की शुरुआत की ओर,जब मैं रॉबर्ट्स कॉलेज का छात्र था। उन दिनों जबलपुर- यूनिवर्सिटी के अन्तर्गत कॉलेज स्तर पर होने वाले नाटकों की प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ अभिनय के लिए प्रेमनाथ के नाम से "प्रेमनाथ बेस्ट एक्टर गोल्ड मैडल " दिया जाता था। इसे पाने की चाहत हर उभरते कलाकार को होती थी। गोंटिया सर निर्देशन में मैंने लगातार तीन वर्षों तक यह अवार्ड जीता।
इन्ही दिनों के आसपास प्रेमनाथ ने जबलपुर के स्थानीय कलाकारों को लेकर एक फ़िल्म बनाने की उद्घोषणा की और इम्पायर टॉकीज़ में ऑडिशन लेने आरम्भ किये। जबलपुर के तत्कालीन मंझे हुए कलाकारों में बलभद्र,राजेन्द्र दुबे, बारेलाल खुशाल, राजेश सोलंकी, बनारसीदास,राकेश श्रीवास्तव,अन्य अनेक (कुछ नाम विस्मृत) वहाँ पहुंचे हुए थे- इनके सामने मेरी हैसियत न के बराबर थी।ये ऑडिशन दो दिन चले। पहले दिन मेरा नंबर नहीं लगा। दूसरे दिन दोपहर परफॉर्मेंस देने के लिये मुझे मंच पर बुलाया गया। मैने मंच को प्रणाम कर उस पर चढ़ने वाली पायदान को चूमा- और मंच पर चढ़ने लगा।तभी एक गरजदार आवाज़ मेरे कानों में पड़ी-"नो नीड ऑफ परफॉर्मेंस,यू आर सलेक्टेड फ़ॉर द फ़िल्म." मैने मुड़कर उस आवाज़ की तरफ़ देखा। वो आवाज़ प्रेमनाथ की थी जो उठकर मेरी तरफ़ आ रहे थे। पास आकर उन्होंने मेरी पीठ थपथपाई। मैंने प्रश्नवाचक नज़रों से उनकी ओर देखा। उन्होंने कहा -"कल से जितने भी कलाकार अपना परफॉर्मेंस देने के लिए मंच पर आये, किसी ने भी मंच पर चढ़ने से पहले मंच का सम्मान नही किया।तुमने न केवल मंच को सम्मान दिया बल्कि उसे चूमा । जो कलाकार मंच का सम्मान करता है वो तन और मन दोनों सेकलाकार होता है,जो तुम हो.इसलिए तुम चुन लिए गए हो।" फ़िल्म भले ही परवान न चढ़ी लेकिन वो पल प्रेमनाथ की वो ऊर्जावान शख़्सियत आज भी मेरी यादों में महफ़ूज़ हैं।
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(मनोहर महाजन शुरुआती दिनों में जबलपुर में थिएटर से जुड़े रहे। फिर 'सांग्स एन्ड ड्रामा डिवीजन' से होते हुए रेडियो सीलोन में एनाउंसर हो गए और वहाँ कई लोकप्रिय कार्यक्रमों का संचालन करते रहे। रेडियो के स्वर्णिम दिनों में आप अपने समकालीन अमीन सयानी की तरह ही लोकप्रिय रहे और उनके साथ भी कई प्रस्तुतियां दीं।)
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।