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विचार: बंगाली के बहुत बाद अब बिहार में गुजराती दबदबा की शुरुआत

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प्रेमकुमार मणि, पटना: 

एक खबर के अनुसार गुजरात के भीखू भाई दलसानिया को बिहार भाजपा का संगठन मंत्री बनाया गया है। किसी दल विशेष के अंदरूनी मामले में हस्तक्षेप उस दल के लोग ही करें, तो बेहतर होता है। लेकिन यहाँ मुझे बिहार का मामला भी प्रभावित दिखा, इसलिए हस्तक्षेप कर रहा हूँ। मुझे अनुभव हो रहा है कि धीरे-धीरे गुजराती उपनिवेशवाद सम्पूर्ण भारत पर हावी हो रहा है। इसकी पदचाप मुझे तभी सुनाई पड़ी थी, जब मौजूदा सरकारी दल भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष और देश के प्रधानमंत्री दोनोंगुजराती हो गए थे। आज भी प्रधानमंत्री और गृहमंत्री दोनों गुजराती हैं। पिछले स्वाधीनता दिवस, जिससे स्वाधीनता के अमृत जयन्ती का आरम्भ हो रहा था के कार्यक्रमों को निदेशित करने केलिए भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय की ओर से एक परिपत्र जारी किया गया। अंग्रेजी भाषा में जारी इस पत्र में 'अमृत ' को रोमन लिपि में amrit  न लिख कर amrut (अम्रुत ) लिखा गया था। मैंने पता किया तब जानकारी मिली कि अमृत का उच्चारण गुजराती जन अम्रुत करते हैं। इस विविधता का मैं सम्मान करता हूँ। मराठी जन अनुस्वार का उच्चारण नहीं करते। यह उनकी पहचान है। लेकिन इसे दूसरों पर थोपना औपनिवेशिक मानसिकता है। यहाँ सांस्कृतिक वर्चस्व का प्रश्न उठना चाहिए।

 

ऐसी उपनिवेशवादी मानसिकता आज़ादी के पूर्व बंगाली अभिजनों में थी। सूक्ष्मता से देखें तो उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी में भारत दोहरी औपनिवेशिकता झेल रहा था। यहाँ ब्रिटिश उपनिवेश तो था ही बंगाली उपनिवेश भी था। हर बड़े शहर में बंगालियों का वर्चस्व था। लाहौर से लेकर पूरे उत्तरभारत के तत्कालीन शहरों का आप अध्ययन कर सकते हैं। ऐसा लगता है अंग्रेज भी इससे परेशान थे। 1911 में देश की राजधानी कलकत्ता से जब दिल्ली लाई गई, तब बड़ी संख्या (लगभग पंद्रह हजार परिवार ) में  बंगाली भी दिल्ली आए। अगले बीस-पचीस  वर्षों तक दिल्ली पर बंगालियों का प्रभुत्व रहा। देश विभाजन के बाद बड़ी संख्या में जब पंजाबी शरणार्थी आए, तब दिल्ली का मिजाज पंजाबी हो गया। बिहार ने बंगाली उपनिवेशवाद की पीड़ा को खूब झेला है। बीसवीं सदी के आरम्भ या उससे कुछ पहले इस बंगाली उपनिवेशवाद के खिलाफ बिहार के मध्यवर्ग में आवाज उठने लगी थी। महेश नारायण और सच्चिदानंद सिन्हा ने इस आवाज को बुलंद किया था। अपने संस्मरण में सच्चिदा बाबू ने लिखा है कि लंदन में अपनी पढाई पूरी कर अपने गांव ( कोरानसराय, जिला बक्सर ) लौटने के क्रम में जब वह बक्सर रेलवे स्टेशन पर उतरे तो एक कांस्टेबल को बंगाल पुलिस का बिल्ला लगाए देख कर बिफर पड़े। उसी क्षण बिहार को बंगाल से मुक्त एक अलग प्रान्त बनाने की प्रतिज्ञा की। इस संघर्ष की लम्बी दास्ताँ है, जिसे मैं अन्यत्र लिख चुका हूँ।

सच्चिदा बाबू के प्रयासों से ही 1912 में बिहार एक पृथक प्रान्त बना। बिहार के कम्युनिस्ट आंदोलन पर तो बंगाली बीसवीं सदी के आखिर तक हावी रहे। कम्युनिस्ट पार्टी का मतलब होता था सुनील मुखर्जी और जगन्नाथ सरकार। इसका नुकसान बिहार के कम्युनिस्ट आंदोलन को बहुत हुआ। इसका अध्ययन रोमांचक हो सकता है। बिहार के चप्पे -चप्पे पर बंगाली हावी थे। गाँव-गाँव में बंगाली डॉक्टरों और वकीलों की पहुँच थी। इन सब से मुक्त होने में बिहार को बहुत वक्त लगा। अब गुजराती दबदबा शुरू हुआ है। इसे आरम्भ में ही पहचानने और झटकारने की जरुरत है। यह अभी पार्टी विशेष से आरम्भ हुआ है। वहीँ से इसका प्रतिकार आरम्भ हो तो अच्छा। बिहार भाजपा के लोग इस गुजराती मारीच भीखू दलसानिया को खदेड़ सकें तो अच्छी  बात होगी। गुजराती उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ाई की शुरुआत बिहार से हो  यह इसके लिए गौरव की बात होगी।

 

(प्रेमकुमार मणि हिंदी के चर्चित कथाकार व चिंतक हैं। दिनमान से पत्रकारिता की शुरुआत। अबतक पांच कहानी संकलन, एक उपन्यास और पांच निबंध संकलन प्रकाशित। उनके निबंधों ने हिंदी में अनेक नए विमर्शों को जन्म दिया है तथा पहले जारी कई विमर्शों को नए आयाम दिए हैं। बिहार विधान परिषद् के सदस्य भी रहे।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।