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Squid Game ड्रामा सीरीज में जितनी क्रूरता उतनी ही गहरी मानवीय करुणा भी

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आशुतोष कुमार, दिल्ली:

स्क्विड गेम बार बार देखने लायक ड्रामा सीरीज है। यह वर्तमान पूंजीवाद का विराट त्रासदी रूपक  है। यहाँ पूँजीवाद के आर्थिक-सामाजिक  चरित्र के अलावा उसके द्वारा पोषित नैतिक मूल्यों की भी गहराई से पड़ताल की गई है। मसलन लोकतंत्र, फेयर प्ले, बोलने की आजादी और टीम-भावना। सीरीज़ के मुख्य खेल को ही लीजिए। यह एक ऐसा खेल है, जिसमें जीतने पर हासिल होने वाली राशि एक एक खिलाड़ी की हार के साथ बढ़ती जाती है। खेलने वालों को यह बात  पता नहीं होती है या वो इस बारे में सचेत नहीं होते कि इस खेल की संरचना में यह निहित है कि आखिरकार केवल एक ही खिलाड़ी विजयी होगा। इस खेल में जो खिलाड़ी हार जाते हैं, उनका क्या होता है? अब तो सभी जानते हैं कि स्क्विड गेम में खेल रहे 456 खिलाड़ियों में से केवल एक ही अंत तक  जीवित बचता है। यह बात पर्दे पर देखने में दिल दहलाने वाली लगती है। हकीकत में रोज हम इसे अपने आसपास घटित होता हुआ देखते हैं। अंतर सिर्फ इतना है कि आसपास हो रही वे तमाम मौतें हमें दिखाई नहीं देतीं, इसलिए हमें सकते में नहीं डालतीं। लेकिन हम उनसे अनजान भी नहीं है।

भारत और कोरिया जैसे देशों में ही नहीं, सारी दुनिया में हमने देखा है कि पूंजीवाद हर किसी की मेहनत से उपजी दौलत को सब से  छीन कर चंद मुट्ठियों में पहुंचा देता है।  जो इस खेल में पिछड़ जाते हैं वे किसी न किसी बहाने अपनी मौत मर जाते हैं।  भूख से मरें या बीमारी से, अथवा आपराधिक हिंसात्मक गतिविधियों के शिकार होकर मरें, या आत्महत्या कर लें। वे सब हारे हुए लोग हैं और सिर्फ़ इसीलिए मारे जाते हैं, कि हारे हुए हैं। और यह खेल ऐसा है कि एक के सिवा सबको हारना है। इस ड्रामा सीरीज में ये वही लोग हैं, जो अपनी मर्जी से उस जानलेवा खेल में शामिल होते हैं। वे अपनी मर्जी से क्यों शामिल होते हैं? इसलिए कि वे जानते हैं कि उनका यही अंजाम उस खेल के बाहर की असली दुनिया में भी होने वाला है। उसी दुनिया में धीरे-धीरे मरने, घुट-घुट कर मरने, अपमानित होकर मरने से मौत के खेल में जीतने का  वास्तविक मौका हासिल करना कहीं अधिक सम्मानजनक लगता है।

 

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पूंजीवादी समाज में लोकतांत्रिक अधिकारों का मतलब अपनी मौत चुनने की आजादी से कम या ज्यादा कुछ नहीं होता। इस फिल्म में हत्याएं इस तरह होती है जैसे  बच्चों का खेल हो। हकीकत की दुनिया में भी वे इसी तरह होती हैं। लोग खेल-खेल में मर जाते हैं। कोई नोटिस तक नहीं लेता। लेकिन यही चीज जब हम फिल्म में देखते हैं तो  दहशत से भर उठते हैं। क्यों? खेल में हार कर मारे जाने में कोई नाटकीयता नहीं है। संहार के उन दृश्यों के साथ कोई भयावह संगीत शोर-शराबा चीख पुकार नहीं है। हम उन्हें बहुत सलीके से शांति से मरते हुए देखते हैं। जैसे वे किसी कंप्यूटर खेल में मारे जा रहे खिलाड़ी हों। यह फिल्म अपने दर्शकों को  अपने भीतर शामिल कर लेती है। कुछ वीआईपी ‘दर्शक’ फ़िल्म के अपने चरित्र भी हैं। ये चरित्र फ़िल्म के वास्तविक दर्शकों का सांकेतिक प्रतिनिधत्व करते लगते हैं। भले ही दर्शक ख़ुद को मारे जा रहे खिलाड़ियों से जोड़कर भी देखता हो।

मौत का यह खेल देखने वाले जो लोग अलग तरह के नकाब पहन कर आते हैं। वे जानवरों के शानदार नक़ाब पहने हैं। नक़ाब से भी हैसियत का पता चलता है। वी आई पी लोग अपनी अमीरी  और ताकत से बोर हो चुके लोग हैं। उन्हें मनोरंजन के लिए मौत का खेल चाहिए। वे मौत का खेल खरीद सकते हैं। हमें इन लोगों के चेहरे प्रायः दिखाई नहीं देते। चेहरे केवल उन के दिखाई देते हैं जो मारे जा रहे हैं। जो मारने वाले हैं वे सभी नकाब में है। हालांकि वे सभी एक ही तरह के लोग नहीं है। उनमें से कुछ लोग तो वेतन भोगी कर्मचारी हैं, जिनकी क़िस्मत उन लोगों से खास अलग नहीं है, जो उनके द्वारा मारे जा रहे हैं। बीच में एक व्यक्ति है जो वीआईपी लोगों के लिए इस खेल का इंतजाम करता है । इन सब से परे एक व्यक्ति है जो समूचे खेल का संचालन करता है। यह व्यक्ति कुछ देर के लिए  उन लोगों की कतार में शामिल हो जाता है जो मारे जा रहे हैं। यह उस खेल के रोमांच को भीतर से महसूस करने की उसकी कोशिश है। यह एक ऐसा ऐसा समाज है जिसमें लोग अपने अपने नक़ाब  से या अपने नंबरों से पहचाने जाते हैं। यहां चेहरों का कोई मतलब नहीं है।  पूंजीवाद इसी तरह इंसान को उसके इंसानी चेहरे से महरूम करता है। लोगों को एक नंबर में या एक नक़ाब में बदल देता है। 

 

इस खेल में हम पूंजीवादी बाजार के फेयर गेम की हकीकत को भी पहचानते हैं। फेयर गेम का मतलब है कि सबको बिल्कुल बराबर मौका मिलना चाहिए। हालांकि हम जानते हैं कि पूंजीवाद में इंसाइडर ट्रेडिंग भी होती है, क्रोनीगिरी  भी होती है, लेकिन पूंजीवाद अपने को फेयर गेम  से जस्टिफाई करता है। इस फेयर गेम में सभी के पास मरने  के बराबर अवसर हैं! यह फिल्म अपने दर्शक को अपने आप से यह सवाल पूछने के लिए मजबूर करती है कि वह खुद फ़िल्म के भीतर के उन वीआईपी दर्शकों से किस मानी में अलग है। वह मौत के इस खेल को नकार कर ही उनसे अलग हो सकता है। फ़िल्म देखकर अगर उसे मज़ा आया तो वह भी उन्ही  में एक है। अगर नकार की आवाज उसके भीतर पैदा ना हो, अगर वह ग़म और गुस्से में पागल ना हो, तो वह या तो फ़िल्म के वीआईपी मज़ाखोर दर्शकों में शामिल है या उनमें जो खेलते हुए मारे जा रहे हैं, दर्शक होने के साथ-साथ खिलाड़ी होने के लिए भी मजबूर हैं। 

इस ड्रामा सीरीज में जितनी क्रूरता है उतनी ही गहरी मानवीय करुणा भी है। जितनी त्रासदी है उतना ही महाकाव्य भी है। लालच लूट स्वार्थ नृशंसता कुटिलता और विश्वासघात के खुले खेल के बीच मनुष्य के चरित्र की महानता, प्यार, और आत्म बलिदान की भावना भी प्रस्फुटित होती है। इस कोरियाई ड्रामा सीरीज़ से भारतीय दर्शकों के जुड़ने की दो ख़ास वजहें हैं। पहली वजह तो दोनों देशों में विषमता की एक जैसी खूंखार स्थिति है।  दूसरी वजह  दोनों देशों के इतिहास में घटित हुआ विभाजन भी है। सीरीज़ की एक क़िरदार एक उत्तर कोरियाई लड़की है, जो नई जिंदगी की खोज में दक्षिण कोरिया आ गई है। लेकिन  यह तय कर पाना बहुत मुश्किल  है कि जिंदगी की सूरत किस देश मे अधिक डरावनी है। भारत में भी पड़ोसी देशों से आ रहे शरणार्थियों को शायद ऐसी ही विडंबना से दो चार होना होता होगा। शायद इसीलिए इस फ़िल्म में एक पाकिस्तानी चरित्र अली भी है, जिसकी भूमिका एक भारतीय अभिनेता ने निभाई है। स्क्रिप्ट, निर्देशन, अभिनय और सिनेमेटोग्राफी यानी सिनेमाकला  के हर पहलू में इस सीरीज ने ऐसे कीर्तिमान बनाए हैं, जिनकी व्याख्या लंबे समय तक होती रहेगी। 

(मूलत: बिहार के रहनेवाले लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं। कई किताबें प्रकाशित।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।