पुष्परंजन, दिल्ली:
रूसी नेतृत्व को भ्रम था कि तालिबान उनके ताबेदार हो गये। तीन दिन पहले तालिबान द्वारा तबाही बरपाने वाले रुख को देखकर रूस और तुर्की ने उत्तरी अफगानिस्तान के मजारे शरीफ में अपने वाणिज्य दूतावास बंद कर दिये। कंधहार कौंसुलेट से भारतीय दूतावास के कूटनीतिक बुला लिये गये हैं! काबुल स्थित भारतीय दूतावास की चौकसी बढ़ा दी गयी है. पांच सीमावर्ती देशों ईरान, पाकिस्तान, चीन, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान की नींद उड़ चुकी है। क्या हो सकती है इसकी वजह? सबसे अधिक बेचैनी में चीन है। वह तीन सवालों से रूबरू है। पहला, तालिबान लड़ाके ओबीओआर को यथावत रहने देंगे, दूसरा, तांबे के विशाल भंडार से खनन का कार्य अवरुद्ध तो नहीं कर देंगे, और तीसरा, शिन्चियांग की स्वायत्तता को लेकर तालिबान का कोई समूह मदद तो नहीं करेगा? यह तीनों विषय चीनी मीडिया में जेरे बहस है। चीन का मुंह पहले से जला हुआ है, इसलिए वह शीतल जल भी फूंक-फूंक कर पी रहा है। चीन फरवरी 1993 की घटना को याद रखता है, जब काबुल स्थित दूतावास पर रॉकेट से ताबड़तोड़ हमले हुए थे। इस घटना के तुरंत बाद चीन ने काबुल दूतावास स्थाई रूप से बंद कर दिया था। इसके तीन साल बाद1996 में तालिबान सत्ता में आए और 2001 तक राज किया। तालिबान शासन की समाप्ति के बाद 6 फरवरी 2002 को चीन ने दोबारा से काबुल में दूतावास खोला। धीरे-धीरे चीन ने अफगानिस्तान में पांव जमाना आरंभ किया । वन बेल्ट वन रोड (ओबीओआर) के बहाने चीन छह कॉरिडोर का निर्माण करना चाहता है। इनमें से दो, चीन-पाकिस्तान कॉरिडोर और सेंट्रल-वेस्ट एशिया कॉरिडोर इस इलाके में पेइचिंग के लिए प्राणवायु जैसे हैं।
अफगानिस्तान-चीन की सीमा 76 किलोमीटर लंबी
अफगानिस्तान-चीन की सीमा 76 किलोमीटर लंबी है। इस सीमा का उत्तरी सिरा तेगरमांसू दर्रे को छूता है, और दक्षिण सिरा वाखजिर दर्रे को। इनके बीच वखान कॉरिडोर एक ऐसे त्रिकोण पर है, जो पाकिस्तान, चीन और ताजिकिस्तान की सीमाओं को छूता है। पाकिस्तान के काराकोरम मार्ग का यह उद्गम स्थल है। अफगानिस्तान का बदख्वशान प्रांत हिंदूकुश पर्वतमाला और आमू दरिया के बीच है। वखान कॉरिडोर चीन को मिडिल ईस्ट के देशों तक शार्ट कट से पहुंचाता है। इस रूट से मध्य-पूर्व की दूरी मात्र 3 हजार 700 किलोमीटर रह जाती है, वरना मलक्का जलडमरूमध्य की परिक्रमा करते हुए उसे 15 हजार 900 किलोमीटर की दूरी तय करनी होती है। यही कारण है कि चीन की महत्वाकांक्षी ‘ओबीओआर’ के लिए ‘सेंट्रल-वेस्ट एशिया कॉरिडोर’ सर्वाधिक अहम होता चला गया है। कनेक्टिीविटी के अलावा दूसरा महत्वपूर्ण कारण शिन्चियांग की उईगुर आबादी है। उरूम्छी शिन्चियांग की राजधानी है, जहां आबादी का घनत्व सबसे अधिक है। जो लोग शिन्चियांग से बाहर निकलें, उन्होंने कजाकिस्तान, उज्बेकिस्तान, किर्गिस्तान, तुर्की, सऊदी अरब, जार्डन, ऑस्ट्रेलिया, रूस, स्वीडेन जैसे देशों में उईगुर डायसपोरा को मजबूत किया। इन देशों से शिन्चियांग को स्वायत किए जाने की मांग निरंतर उठ रही है। चीन की चिंता यह रही है कि तालिबान ने सत्ता की बागडोर संभाल ली, तो उईगुर अलगाववाद को ताकत मिलनी शुरू हो जाएगी।
तालिबान ने उईगुर युवाओं के लिए पाक सरहदों में खोले कैंप
1996 से 2001 तक सत्ता में रहते तालिबान ने उईगुर युवाओं के वास्ते अफगानिस्तान व उससे लगे पाक सरहदों में कैंप खोले, उन्हें जिहादी बनाया। इनके पंख इतने फैले कि अल कायदा और आइसिस के मोर्चे तक पर कुछ उईगुर लड़ाकों को लोगों ने लड़ते देखा। 25 सितंबर 2018 को जकार्ता पोस्ट ने एक खबर दी थी कि एक करोड़ 40 लाख की आबादी वाले शिन्चियांग में 24 हजार 400 मस्जिद हैं, और उनकी देखरेख के लिए 29 हजार मौलाना तैनात हैं। समझिए कि इतनी मस्जिदें अमरीका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस को मिला दें, तो भी नहीं होंगी। इंडोनेशिया जहां 250 मिलियन मुस्लिम आबादी है, वहां आठ लाख मस्जिदें हैं। भारत में तीन लाख से अधिक एक्टिव मस्जिदें हैं, उसके मुकाबिल शिन्चियांग जैसे प्रांत में इतनी बड़ी संख्या में मस्जिदें हैरान करती हैं। चीन को शिन्चियांग से मक्का हज के लिए हर साल चार्टर विमान मुहैया करानी होती है, यह भी एक तथ्य है। शिन्चियांग की कुल आबादी में उईगुर 45 प्रतिशत और हान 40 प्रतिशत बताए जाते हैं।
51 देशों ने 2019 में जेनेवा में उठाया था चीनी मुसलमानों का मामला
2019 में 51 देशों के राजदूतों ने जेनेवा स्थित संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार कार्यालय को साझा पत्र लिखकर शिकायत की कि शिन्चियांग में चीन अल्पसंख्यक मुसलमानों पर सितम ढा रहा है। उनके मानवाधिकारों की रक्षा होनी चाहिए। यह दीगर है कि हस्ताक्षर करने वाले 51 कूटनीतिकों में से 28 ओआईसी (आर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन) सदस्य देशों के राजदूत थे। चीन हर हाल में उईगुर अलगाववाद को रोकना चाहता है, इसलिए तालिबान लीडरशिप उसकी मजबूरी बनती चली गई।
शिन्चियांग वर्षों से सुलगता रहा है, इस बात के लिए तारीख गवाह है। 5 जुलाई 2009 को शिन्चियांग की राजधानी उरूम्छी में लोग सरकार के दमन के विरुद्ध हिंसक हो उठे, जिसमें 197 प्रदर्शनकारी मारे गए और 1700 से अधिक घायल हुए थे। 25 फरवरी 1992 में उरूम्छी शहर से गुजरने वाली एक बस में विस्फोट हुआ, जिसमें नौ लोग मारे गए और 68 घायल हो गए। चीनी खुफिया तंत्र को शक हुआ कि इस कांड के पीछे कहीं न कहीं तालिबान के लोग शामिल रहे थे। इस तरह की हिंसक वारदातें समय-समय पर होती रही हैं । चीन दावा करता है कि अब तक 270 लोेगों की मौत के लिए तुर्किस्तान समर्थक अतिवादी जिम्मेदार हैं । 2002 से ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ईटीआईएम) अमरीका की आतंकी सूची में था, मगर 2020 आते-आते अमरीका ने इसे उस सूची से बाहर कर दिया। चीन ने आरोप लगाया कि ‘ईटीआईएम’ को सीआईए मदद दे रहा है। अमरीका चाहता है कि शिन्चियांग अशांत रहे।
कभी चीनी उत्पीड़न के विरुद्ध तुर्की ने उठाई थी आवाज
शिन्चियांग में चीनी उत्पीड़न के विरुद्ध सबसे अधिक आवाज तुर्की ने उठाई थी। तुर्की में कोई 45 हजार उईगुर मुसलमान रहते हैं। इनके पूर्वज 1952 में तुर्की आए, जब इन्हें शरण देने की अनुमति अंकारा से मिली। नई पीढ़ी ने अब भी बेटी-रोटी का रिश्ता शिन्चियांग में रहने वाले मुस्लिम परिवारों से बनाए रखा है। तुर्की और उईगुर खान-पान, संस्कृति और भाषा के स्तर पर भी एक दूसरे से हमनवा हैं। शिन्चियांग स्वायत प्रदेश बने, उस वास्ते तुर्की ने बाकायदा अभियान छेड़ रखा था। 2009 में रिजेब तैयप एर्दोआन ने बयान दिया था कि शिन्चियांग में चीन, उईगुर मुसलमानों का नरसंहार कर रहा है। ऐसे बयानों से पेइचिंग और अंकारा के बीच तनातनी बनी रहती थी। शिन्चियांग का नाम बदलकर ‘पूर्वी तुर्किस्तान’ रखा जाए, इसका भी अहद अलगाववादियों ने किया था। तुर्किस्तान इस्लामिक पार्टी (टीआईपी), तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट (टीआईएम), ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ईटीआईएम) जैसे संगठन को नैतिक और आर्थिक समर्थन अंकारा दे रहा था। फिर शी ने ऐसा क्या सुंघाया कि एर्दोआन बदल गए?
शिन्चियांग में एकदम खुशहाल मुस्लिम, तुर्की के बयान से नाराजगी
2017 में कोई 200 उईगुर शरणार्थियों को एर्दोआन ने मिस्र के रास्ते चीन के हवाले किया। फिर यह सिलसिला रुका नहीं। फरवरी 2019 में तुर्की के विदेश मंत्रालय ने बयान जारी किया कि शिन्चियांग क्षेत्र में उईगुर व अन्य मुसलमानों के साथ किसी तरह की जोर-जबर्दस्ती नहीं हो रही है। जो मुस्लिम यहां रह रहे हैं, एकदम खुशहाल हैं। यह वाकई हैरान कर देने वाला बयान था। मगर इससे भी अधिक धोखा और फरेब तब महसूस हुआ, जब तुर्की और चीन के बीच 26 दिसंबर 2020 में प्रत्यर्पण संधि पर मुहर लगी। इसकी पटकथा कई महीनों से लिखी जा रही थी। सारा कुछ तभी तय हो चुका था, जब तुर्की के राष्ट्रपति रेजेब तैयप एर्दोआन 2 जुलाई 2019 को पेइचिंग में थे। वह एक ऐसे ग्रेट गेम का हिस्सा बन चुके थे, जो अब अंकारा से स्थानांतरित होकर काबुल पहुंच चुका है। तुर्की से सैकड़ों उईगुर लोकतंत्रकामी चीन के हवाले किए जा चुके हैं । अफगानिस्तान और पाकिस्तान ने भी ऐसा ही किया। ओआईसी के देशों को यह क्यों नहीं दिखता?
एर्दोआन को भी शक की निगाह से देखता है तालिबान
ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट के नेताओं के साथ राष्ट्रपति एर्दोआन ने छल किया, उससे तालिबान का बड़ा खेमा उन्हें शक की निगाह से देख रहा है। तालिबान का एक बड़ा धड़ा अफगानिस्तान में तुर्की द्वारा सुरक्षा की जिम्मेदारी लेने के पक्ष में नहीं दिखता। तीन दिन पहले तालिबान द्वारा तबाही बरपाने वाले रुख को देखकर रूस और तुर्की ने उत्तरी अफगानिस्तान के मजारे शरीफ में अपने वाणिज्य दूतावास बंद कर दिए । कोई एक हजार अफगान फोर्स के जवानों ने ताजिकिस्तान सीमा में भागकर शरण लिया है। रूसी नेतृत्व को भ्रम था कि तालिबान उनके ताबेदार हो गऐ। यह भ्रम बहुत जल्द टूट गया। एस. जयशंकर मास्को में इसी चिंता से रूबरू हो रहे थे। आगे की रणनीति भी भारतीय विदेश मंत्री मास्को से शेयर कर आए।
तालिबान के साथ सेफ गेम खेल रहा चीन
आज की तारीख में चीन रूस के बाद दूसरा देश है जो तुर्की को माल निर्यात कर रहा है। 2016 से 2019 के बीच चीन ने तीन अरब डॉलर तुर्की में निवेश किए। इस्तांबुल के कुम्पोर्ट में तुर्की का तीसरा सबसे बड़ा कन्टेनर टर्मिनल चीनी सहयोग से बना है। इस्तांबुल में ही एशिया और यूरोप को जोड़ने वाला यावुज सुल्तान सेलिम ब्रिज का मेंटेनेंस ठेका इटली से छीन कर चीन के हवाले कर दिया गया। चीन इस समय तुर्की के नाभिकीय ऊर्जा से लेकर हथियार निर्माण के क्षेत्र में सहकार बना हुआ है। मगर अब असल खेल अफगानिस्तान में होना है। चीन तालिबान के साथ सेफ गेम खेल रहा है। तालिबान नेता जिस तरह लगातार पेइचिंग के संपर्क में रहे, चीन को भरोसा है कि शिन्चियांग में छेड़छाड़ नहीं होगी, आयनक माइंस से तांबा अयस्क के खनन में भी कोई बाधा नहीं पहुंचेगी। मगर, मामला फंसना है तुर्की के साथ।
भारत ने भी अपने 50 राजनायिक वापस बुला लिये
तालिबान को जब किसी पर ऐतबार नहीं, तो तुर्की क्या खाक अफगानिस्तान को महफूज रखेगा? राष्ट्रपति रेजेब तैयप एर्दोआन का ‘मिशन अफगानिस्तान’ फ्लॉप शो बनकर न रह जाए इसका अंदेशा मुझे बिल्कुल है। तुर्की ने स्वयं यह प्रस्ताव दिया था कि अमरीकी फोर्स के जाने के बाद काबुल स्थित हामिद करजई इंटरनेशनल एयरपोर्ट की चौकसी हम कर सकते हैं। एर्दोआन ने पाकिस्तान और हंगरी की मदद लेने की पेशकश की है । पांच किलोमीटर की परिधि में बने इस एयरपोर्ट के गिर्द कई सारे मिलिट्री बेस हैं, जिनकी सुरक्षा में नाटो फोर्स, अमरीकी सेना, इंटरनेशनल सिक्योरिटी असिस्टेंट फोर्स, अफगान एयरफोर्स के जवान लगे हुए थे। काबुल से 70 किलोमीटर दूर बगराम एयरफील्ड कभी भी तालिबान लड़ाकों के कब्जे में आ सकता है। कंधहार कौंसुलेट से भारतीय दूतावास के कूटनीतिक बुला लिये गये हैं. काबुल स्थित भारतीय दूतावास की चौकसी बढ़ा दी गयी है. अफगानिस्तान को हमने भी थोड़ा-बहुत संवारा है, और भारतीय मूल के लोग भी वहां हैं।
(मूलत: बिहार के रहने वाले पुष्परंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं। देश-विदेश के कई मीडिया हाउस में रहे। संप्रति ईयू-एशिया न्यूज के नई दिल्ली संपादक।)
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।