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जब एक होटल बेयरा को मिला भारत की पहली फिल्म में नायिका बनने का अवसर

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अशोक पांडेय, दिल्‍ली:

1913 में भारत की पहली फिल्म राजा हरिश्चंद बनाते समय तमाम सामाजिक-आर्थिक दिक्कतों से जूझते दादासाहब फाल्के के सामने सबसे बड़ी समस्या महिला पात्रों के लिए अभिनेत्रियां ढूँढने में आई। पहले वे अपनी पत्नी से तारामती का रोल कराना चाहते थे लेकिन उन्होंने मना कर दिया। उन्होंने इस बाबत दोस्तों-रिश्तेदारों और हितैषियों से भी बात की लेकिन घर की महिलाओं से अभिनय करवाने को कोई भी तैयार न हुआ। किस्सा यूं चलता है कि हार कर वे एक वेश्या के पास गए। उसने भी यह कहते हुए फिल्म में काम करने से इनकार कर दिया कि जिस धंधे में फाल्के उन्हें चलने को कह रहे हैं वह उनके पेशे से भी बुरा है। उस स्त्री की एक जवान बेटी भी थी। जब दादासाहब ने तारामती की भूमिका के लिए उसे मांगा तो उसने शर्त रख दी कि फाल्के पहले उसकी बेटी से शादी करें।

 

फोटो: 'लंका दहन' में सीता के रोल में अन्ना हरि सालुंके

 

बंबई की ग्रांट रोड के एक रेस्तरां ने दादासाहब फाल्के का बहुत आना जाना था। एक दिन वे वहां चाय पीने गए हुए थे। हमेशा की तरह बेयरा चाय लेकर आया। वह मेज पर कप-प्लेट रख ही रहा था जब उनकी निगाह बेयरे की लम्बी-पतली उँगलियों पर पड़ी। उन्होंने उसे गौर से देखना शुरू किया। उसकी छरहरी देहयष्टि उन्हें ख़ासी स्त्रैण लगी। उनके जेहन में था शेक्सपीयर के जमाने से लेकर उस समय के महाराष्ट्र तक के रंगमंच में महिला पात्रों की भूमिकाओं के लिए पुरुषों से काम लिया जाता रहा था। उन्होंने बेयरे को बुलाया और उसे फिल्म में काम करने का प्रस्ताव दिया। बेयरा रेस्तरां में भोजन पकाने से लेकर बरतन धोने तक के काम किया करता था जिसके लिए उसे महीने की पगार के तौर पर दस रुपये मिलते थे। फाल्के ने उसे पंद्रह रुपये देने का प्रस्ताव किया और तारामती की भूमिका के बारे में बताया। अन्ना हरि सालुंके नाम के उस बेयरे ने कभी फिल्मों का नाम तक नहीं सुन रखा था. पैसे के लालच में उसने हां कह दिया। इस तरह एक पुरुष के रूप में भारत की पहली फिल्म को अपनी पहली नायिका मिली। 

अन्ना सालुंके ने उसके बाद कई फिल्मों में स्त्री चरित्र निभाये। फाल्के के ही फिल्म ‘लंका दहन’ में तो उन्होंने सीता और राम दोनों का डबल रोल किया।अन्ना की कहानी इस लिहाज से दिलचस्प और प्रेरक है कि सिनेमा निर्माण के उस शुरुआती दौर में अभिनय करते हुए उन्होंने फाल्के और अन्य फिल्मकारों के साथ काम करते हुए कैमरा चलाना सीख लिया और बाद के वर्षों में अभिनय छोड़ कर केवल सिनेमेटोग्राफी की। उधर ‘राजा हरिश्चंद्र’ के हिट होने के साथ समाज में दादासाहब फाल्के और उनके काम को स्वीकृति मिलनी शुरू हो गयी और 1914 के साल उनकी अगली फिल्म ‘भस्मासुर-मोहिनी’ में पार्वती और मोहिनी के रोल के लिए अभिनेत्रियां मिल गईं। पच्चीस साल की तलाकशुदा थियेटर अभिनेत्री दुर्गा कामत पार्वती बनीं और पांच साल की उनकी बेटी कमलाबाई मोहिनी। दस साल के अन्दर कमलाबाई ने भारतीय फिल्मों में एक सेलेब्रिटी की हैसियत पा लेनी थी मगर वह बहुत बाद की कहानी है।

‘राजा हरिश्चंद्र’ की एडिटिंग का काम फाल्के की पत्नी सरस्वतीबाई फाल्के ने किया था। उन्हीं के गहने बेच कर फाल्के ने जर्मनी से कैमरा और अन्य उपकरण मंगवाने का पैसा जुटाया था। फाल्के की फिल्म बनाने की जिद से परेशान हो चुके उनके मित्र-सम्बन्धी जिन दिनों उन्हें पागलखाने भिजवाने की सलाह दे रहे थे, सरस्वतीबाई संसार की इकलौती शख्स थीं। जिन्हें अपने पति के जीनियस पर पूरा भरोसा था। यह और बात है कि उनके नाम पर कोई सम्मान तो क्या विकीपीडिया में कोई एंट्री तक नहीं है।

 

(उत्‍तरांचल के रहने वाले लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं। संप्रति स्वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। सहमति के विवेक के साथ असहमति के साहस का भी हम सम्मान करते हैं।