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बिहार में 1912 से अबतक कांग्रेस का इतिहास, भाजपा-नीत एनडीए सरकार का कैसे बनी कारण 

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प्रेमकुमार मणि, पटना:

बिहार बनने से पहले बिहार कांग्रेस कमेटी बन चुकी थी। एक स्वतंत्र प्रान्त के रूप में बिहार 1912  में अस्तित्व में आया ; लेकिन बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी 1908 में गठित हो गई थी। 1912 में कांग्रेस का बांकीपुर कांग्रेस हुआ। बांकीपुर पटना का पुराना नाम था। इस कांग्रेस में युवा जवाहरलाल नेहरू ने हिस्सा लिया था। तब वह बाईस वर्ष के रहे होंगे। इस घटना का जिक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा में किया है । उन्हीं को देखिए -  " 1912 की बड़े दिन की छुट्टियों में मैं डेलीगेट की हैसियत से बांकीपुर की कॉंग्रेस में शामिल हुआ। बहुत हद तक यह अंग्रेजी जानने वाले उच्च श्रेणी के लोगों का उत्सव था , जहाँ सुबह पहनने के कोट और सुन्दर इस्त्री किए हुए पतलून बहुत दिखाई देते थे। वस्तुतः वह एक सामाजिक उत्सव था, जिसमें किसी प्रकार की राजनैतिक गरमा -गरमी नहीं थी।" 

 

Mohandas Karmchand Gandhi Become Mahatma Gandhi after Champaran Movement

इस के ठीक पांच साल बाद गांधीजी 1917 में चम्पारण आए और एक नए ढंग के आंदोलन का आरम्भ किया, जो वस्तुतः किसानों का आंदोलन था। चम्पारण प्रसंग ने गांधी को महात्मा बना दिया और राष्ट्रीय आंदोलन को जमीन पर ला दिया। उसे गाँव-गरीब और निम्नवर्गीय प्रसंगों से जोड़ दिया। स्वयं गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में बिहार में कांग्रेस की स्थिति की चर्चा की है। वह भी देखने लायक है - " चम्पारण में मुझे कोई पहचानता नहीं था। किसान वर्ग बिलकुल अपढ़ था। .. यहाँ न कहीं कांग्रेस का नाम सुनाई देता था ,न कोई सदस्य दिखाई देता था। जिन्होंने नाम सुना था, वे नाम लेने या उसमें शामिल होने से डरते थे। साथियों से मशविरा करके मैंने निश्चय किया कि कॉंग्रेस के नाम से कोई काम नहीं किया जाय। हमें नाम से नहीं बल्कि काम से काम है। कॉंग्रेस का नाम यहाँ अप्रिय है। इस प्रदेश में कॉंग्रेस का अर्थ है वकीलों की बहसा -बहसी, कानूनी छिद्रों से सटक जाने की कोशिश। कॉंग्रेस के मानी हैं कथनी कुछ और करनी कुछ और . .."

जब राष्ट्रीय आंदोलन आगे बढ़ा तब कांग्रेस का आधार बढ़ा और इसकी सक्रियता भी बढ़ी। लेकिन जाति-बिरादरी का रोग इसे आरम्भ से जकड़े रहा । आज़ादी की लड़ाई के दौरान इस बीमारी का बहुत पता नहीं चल सका, क्योंकि राष्ट्र केलिए मर मिटने के आवेग में यह कलह प्रकट नहीं हुआ। लेकिन कॉंग्रेस के संगठनात्मक चुनावों में इसकी धमक सुनाई देती थी। गांधी जी के प्रयासों से दलितों के कुछ चुनिंदा नेताओं को तो यहाँ जगह मिल गई थी ; लेकिन पिछड़े वर्ग के लोग केवल जेल जाने केलिए होते थे। संगठन में वे नहीं दिखाई देते थे। इसी की प्रतिक्रिया में 1933 में पिछड़े वर्गों का एक सामाजिक-राजनीतिक संगठन त्रिवेणी संघ बना, जिसने 1937 के चुनावों में कॉंग्रेस के खिलाफ कई जगहों से चुनाव लड़े। 1947 तक बिहार प्रदेश कांग्रेस अशराफ़ मुसलमानों, कायस्थों और भूमिहारों के वर्चस्व में थी। 1948 में प्रजापति मिश्र के रूप में एक ब्राह्मण प्रांतीय कॉंग्रेस का अध्यक्ष बना। 1959 में एक पिछड़े मुसलमान अब्दुल कयूम अंसारी और 1968  में पहली बार एक पिछड़ा वर्गीय ब्राह्मण अनंत प्रसाद शर्मा को प्रांतीय कॉंग्रेस का अध्यक्ष पद नसीब हुआ। बाद के दिनों में सीताराम केसरी 1973 में और रामसरन प्रसाद सिंह 1983 में बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष बने। लहटन चौधरी 1990 में अध्यक्ष बने, जब कांग्रेस बुरे हाल में थी। दलितों के बीच से 1977 में मुंगेरीलाल पहली दफा बिहार कॉंग्रेस के अध्यक्ष बने। बाद में डूमरलाल बैठा आदि कई लोग बनाए गए।

 

कृष्ण बल्लभ सहायः बिहार के वो मुख्यमंत्री जिनका पोता भी उनके खिलाफ नारे  लगाता था - Krishna Ballabh Sahay was the fourth CM of Bihar know his  political journey and interesting facts

बिहार कांग्रेस में सामाजिक संतुलन बनाने का प्रयास पहली बार कृष्णवल्लभ सहाय ने किया। उनके ग्यारह सदस्यीय मंत्रिमंडल में तीन पिछड़ावर्गीय मंत्री बने। पिछड़े सामाजिक समूहों को राजनीतिक स्तर पर आगे करने के आरम्भिक प्रयासों में यह था। यह प्रयास उन्होंने लोहिया की जाति-नीति की घोषणा के पहले किया था। इसके प्रतिक्रियास्वरूप सहाय को अनेक स्तरों पर विरोध झेलना पडा। यही समय था ,जब राष्ट्रीय स्तर पर नेहरू ने कामराज को कांग्रेस अध्यक्ष बना कर संगठन को जीवन्त बनाने की कोशिश की थी। लेकिन बिहार कॉंग्रेस की द्विजवादी राजनीति इन सबसे अप्रभावित रही। 1970 में इंदिरा गांधी ने जब कॉंग्रेस को तोड़ दिया तब नए सिरे से बिहार कॉंग्रेस का भी पुनर्गठन हुआ। सत्येंद्र नारायण सिन्हा और महेश प्रसाद सिंह जैसे ऊंची जाति के प्रतिनिधि नेताओं को इंदिरा कॉंग्रेस में जगह नहीं मिली। इंदिरा गांधी की सोशल इंजीनियरिंग में ब्राह्मण, मुस्लिम, दलित और पिछड़े वर्गों का एक हिस्सा था। इसी की अवचेतन प्रतिक्रिया में बिहार में जयप्रकाश आंदोलन हुआ, जिसे आरएसएस का पूरा समर्थन मिला। समाजवादी और संघी ताकतें यहाँ कुछ वर्षों तक केलिए राजनीतिक तौर पर इकट्ठी हुईं ,लेकिन 1979 में वे अलग-अलग हो गईं। 1980 में इंदिरा गांधी की राजनीतिक वापसी हुई। इस बीच जगन्नाथ मिश्र के नेतृत्व में बिहार कांग्रेस की नई सामाजिक पृष्ठभूमि बनी थी। कर्पूरी ठाकुर के खिलाफ कांग्रेसी और जनसंघी मिश्र ( जगन्नाथ और कैलाशपति ) इकठ्ठा हो गए थे। इस राजनीति पर संजय गांधी की रूचि का प्रभाव था। दिल्ली के बाद बिहार में भी कॉंग्रेस की वापसी हुई। 1980 से 1990 के मार्च तक बिहार में कॉंग्रेस की सरकारें रही। पांच मुख्यमंत्री बने - जगन्नाथ मिश्र , चंद्रशेखर सिंह , बिंदेश्वरी दुबे , भागवत झा और सत्येंद्रनारायण सिन्हा। पाँचों ऊँची जात के। जाते-जाते कॉंग्रेस भागलपुर दंगे का दंश छोड़ती गई, जिसे मुसलमान कभी नहीं भूल सके। इसकी भयावह प्रतिक्रिया पिछड़े- दलित -अकलियत समूहों में हुई। कांग्रेस की जडें सूख गई थी। वह ऊँची कही जाने वाली जातियों से आने वाले  जडविहीन नेताओं की एक पिकनिक पार्टी बन कर रह गई।  उसके कारनामों ने एक ऐसा सामाजिक दंश पैदा किया जिसे पिछड़ावर्गीय समूह आज भी याद करता है। यही कारण है कि तीस वर्षों से अधिक से किसी ऊँची जात के व्यक्ति को बिहार में मुख्यमंत्री बनना नसीब नहीं हुआ। यहाँ तक कि जब भाजपा भी आंशिक रूप से शासन में आई तब उसने तीन उपमुख्यमंत्री बनाए और तीनों पिछड़ा वर्गीय।

 

कांग्रेस ने कभी अपने किए-धिए पर सोचा है ? यदि वह सोचती तब प्रायश्चित करती और स्वयं को सुधारती। लोग पूछना चाहेंगे कि लगभग अड़तीस वर्षों के कांग्रेसी राज-काल में पिछड़े -दलितों को मुख्यमंत्रित्व के केवल एक वर्ष और चार महीने ही  ( लगभग दस महीने दरोगाप्रसाद राय और छह महीने भोला पासवान शास्त्री ) क्यों मिले ? जो कॉंग्रेस बिहार विधान सभा में 1952 में 239 की संख्या में थी; आज केवल 19 क्यों है ? आज बिहार में वह महागठबंधन का हिस्सा है जिसमें लालू प्रसाद के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनता दल और वामदल हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में उसने 70 सीटों पर चुनाव लड़े और केवल 19  जीत सके। कुल लड़ी जाने वाली सीटों का यह 27 फीसद है। राजद और वामदलों ने पचास फीसद से अधिक सीटें जीतीं। आज यदि बिहार में भाजपा-नीत एनडीए की सरकार है, तो वह कांग्रेस के कारण है। इसकी जिम्मेदारी उसे  स्वीकारनी चाहिए थी । उसकी हार का मुख्य कारण यह है कि वह प्रकारांतर से भाजपा -नीतीश कुमार की बी टीम बन कर रह गयी है। कांग्रेस भाजपा का राष्ट्रीय स्तर पर हो रहे राजनीतिक प्रतिरोध का नेतृत्व कर रही है। ऐसे में राजद पूरी तत्परता से उसके साथ है और उसे होना चाहिए। यूपीए की दोनों सरकारों में राजद ने कॉंग्रेस का पूरा समर्थन किया । 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेसी असहयोग और  कई मुद्दों पर तीखे विरोध के बावजूद समर्थन किया। इसलिए कि वहाँ कांग्रेस विरोध का मतलब भाजपा का समर्थन था। लेकिन बिहार में भाजपा विरोधी राजनीति का नेतृत्व राजद कर रहा है। ऐसे में कांग्रेस को इसके पीछे खड़ा होना था। उपचुनाव में एक सीट को लेकर उसका  जो प्रदर्शन है, वह प्रकट रूप से भाजपा का समर्थन है। क्या यह  छोटी-सी बात उसकी समझ के परे है ? इस उपचुनाव को लेकर वह जितनी चौकस और तत्पर है, वह यदि विधानसभा के आम चुनाव में होती तो उसे जरूर चालीस सीटें मिल सकती थीं;  और ऐसी स्थिति में फिर किसकी हिम्मत होती कि उसकी लड़ी हुई सीट पर दावा करे। दरअसल कांग्रेस वहाँ चुनाव लड़ कर छुपे तौर पर भाजपा गठबंधन का सहयोग करना चाहती थी। आज भी उसकी पैंतरेबाजी यही कर रही है। वह कब भाजपाई राजनीति का तंत्र बन जाता है, शायद उसे पता भी नहीं चलता। यह सब वैचारिकता पर वर्गीय चरित्र के प्रभावी होने के कारण हो रहा है। बिहार कांग्रेस को आत्मपरीक्षण की जरूरत है। वह अपना  धूल तो साफ करना चाहती है, लेकिन इस कोशिश में वह बार-बार आईना साफ करती है। उसे आईना नहीं, अपना चेहरा साफ़ करना चाहिए।

 

(प्रेमकुमार मणि हिंदी के चर्चित कथाकार व चिंतक हैं। दिनमान से पत्रकारिता की शुरुआत। अबतक पांच कहानी संकलन, एक उपन्यास और पांच निबंध संकलन प्रकाशित। उनके निबंधों ने हिंदी में अनेक नए विमर्शों को जन्म दिया है तथा पहले जारी कई विमर्शों को नए आयाम दिए हैं। बिहार विधान परिषद् के सदस्य भी रहे।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।