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चाणक्य और मैकियावली के दर्पण में आज की भारतीय राजनीति की गति

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डॉ. अमिता नीरव, इंदौर:

पहली बार जब यह सुना था कि चाणक्य को पूरब का मैकियावली कहा जाता है, तब जैसा कि सहज रूप से होता आया है गर्व हुआ था। बाद में जब भारतीय संस्कृति के अध्येता ने इस तुलना पर आपत्ति जताई थी तब इस बात पर गौर किया था कि दोनों के काल में कई दशकों का फासला था। मैकियावली का काल ईसा की पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी रहा था। ऐतिहासिक तौर पर मैकियावली को आधुनिक राजनीतिक विचारों का जनक कहा जाता है। दूसरी तरफ चाणक्य का काल ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी माना जाता है। इस लिहाज से मोटा-मोटी यूनान में अरस्तू और भारत में चाणक्य समकालीन रहे हैं। इतिहास के विवाद औऱ डिटेलिंग में जाए बिना यह कहा जा सकता है कि दोनों राजनीतिक विचारक दो अलग-अलग सभ्यताओं में एक ही वक्त में रहे हैं। मगर चकित करने वाली बात यह थी कि चाणक्य की तुलना कई सदी बाद इटली में पैदा हुए विचारक मैकियावली से की जाती है। 

आधुनिक राजनीति का विचारक मैकियावली 

जो लोग राजनीति विज्ञान पढ़े हैं वे यह जानते हैं कि क्यों मैकियावली को आधुनिक राजनीतिक विचारक कहा जाता था। अब तक के राजनीतिक विचारों में जिस किस्म का आदर्शवाद था, मैकियावली ने उसे पूरी तरह से नकार दिया था और वे राजनीति पर जिस रूप में वह थी उसी रूप में विचार करते थे। मैकियावली को अपने युग का शिशु कहा जाता था। इसकी वजह यह थी कि उनके वक्त यूरोप कई तरह की हलचलों से गुजर रहा था। यूँ देखा जाए तो कौन अपने युग का शिशु नहीं होता है। अरस्तू प्लेटो का शिष्य था, फिर भी दोनों के विचारों में जमीन आसमान का फर्क था। प्लेटो बेहद आदर्शवादी थे, अरस्तू यथार्थवादी। क्यों नहीं होगा, अरस्तू ने अपने गुरु प्लेटो और गुरु के गुरु सुकरात का हश्र देखा था। जाहिर है अरस्तू उस आदर्शवाद का वाहक नहीं बनेगा जिसने उसके गुरु को निर्वासन दिया और गुरु के गुरु को मृत्युदंड। इस लिहाज से अरस्तू भी तो अपने ही युग का शिशु हुआ। फिर प्लेटो भी और चाणक्य भी। 

सत्ता की संस्कृति का लगभग पश्चिमी रूप

यह सोचकर अचरज होता है कि पश्चिम में सत्ता की जिस संस्कृति के बारे में मैकियावली ने दुनिया को बताया था, सत्ता की संस्कृति का लगभग वही रूप सत्रह सौ साल पहले हमारी सभ्यता में भी अस्तित्व में रहा होगा, तभी तो हम चाणक्य औऱ मैकियावली के विचारों में बहुत समानता पाते हैं। समझ की शुरूआत में चाणक्य के सुझाए साधन साम, दाम, दंड, भेद को लेकर चकित होने का भाव था। कुछ ऐसा कि चाणक्य ने राजनीति का जो सिद्धआंत दिया था, वह यूरोप में मैकियावली के काल में दिया गया। मतलब कि यूरोप हमारी संस्कृति से करीब सोलह-सत्रह सौ साल पीछे था। कुछ साल पहले साहित्य, इतिहास औऱ पौराणिक ग्रंथों पर लंबी बहस हुई थी, तब तक मैंने विधिवत लिखना शुरू नहीं किया था। तब भी यह तो समझ आ ही गया था कि इतिहास से इतर साहित्य अपने युग का दस्तावेज है। चाहे वह किसी भी युग की कथा कह रहा हो, उसमें उसके रचनाकाल के युगीन सच को रचनाकार चाहकर भी नहीं बचा सकता है। जब मैंने लिखना शुरू किया तब इसे और भी ज्यादा शिद्दत से महसूस किया। इस लिहाज से चाणक्य का काल राजनीति के अनैतिक हो जाने का ही काल रहा होगा। तभी तो चाणक्य ने राजनीति में साम, दाम, दंड, भेद के उपयोग को वर्जित नहीं किया, जैसे अरस्तू तमाम आदर्शवादी शिक्षा के बावजूद यथार्थवादी हो गए, जैसे मैकियावली ने सारे आदर्शों से विद्रोह किया, ठीक वही चाणक्य पर भी लागू होता है। इसी सिलसिले में राजनीति से हटकर कुछ और फ्रेजेस सुनने को मिली थी अंग्रेजी में शेक्सपियर की ‘इवरीथिंग इज फेयर इन लव एंड वॉर’, या फिर ‘बाय हुक ऑर बाय क्रुक’, ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ शुरू में इसे ऐसे ग्रहण किया था जैसे यही दुनिया का सच है। सच है भी, लेकिन धीरे-धीरे जब इन पर विचार करना शुरू किया तो लगा कुछ गड़बड़ है। 

गलत करने की लज्‍जा का होता गया लोप

अक्सर सोचती थी कि 'इवरीथिंग इन लव एंड वॉर' या 'साम, दाम, दंड, भेद' से चीजों को पा लेना किस किस्म की संस्कृति को विकसित करेगी! बीच के वक्त में कुछ इस तरह की फिल्में भी आई थी, इत्तफाक से शाहरूख खान की ही थी जैसे बाजीगर, डर औऱ अंजाम जैसी फिल्में इन्हीं फ्रेजेस के इर्दगिर्द बुनी गईं थी। इन फिल्मों को देखने के बाद सवाल उठा था कि क्या पा लेना या सफल हो जाना ही सब कुछ है? तब तक भी गाँधीजी के साधनों की पवित्रता के विचार को इस तरह से ग्रहण नहीं कर पाई थी। फिर भी लक्ष्य को पाने के साधनों को लेकर दुविधा पैदा हो चली थी। सोचा करती थी कि यदि किसी भी तरह से इच्छित को पाने को स्वीकृति मिलती है तो फिर समाज का स्वरूप कैसा होगा? यूँ समाज कभी भी उतना नैतिक नहीं रहा, जितने की उम्मीद है, लेकिन नैतिक मूल्य कमोबेश व्यक्तिगत औऱ सामाजिक महत्वाकांक्षा पर अंकुश का काम तो करते ही रहे हैं। अनैतिकता होती रही है, लेकिन उसमें एक किस्म का संकोच रहा और पकड़े जाने पर शर्मिंदगी भी रही, धीरे-धीरे वह सब लुप्त होता चला गया। अनैतिकता को बरतती सरकारें जनता से नैतिकता की उम्मीद नहीं कर सकती है। ऐसा कतई नहीं हो सकता है कि राजनीतिक सत्ता के मूल्य अलग हों और सामाजिक मूल्य अलग हों। सत्ता जिन मूल्यों की स्थापना करेगी, समाज उन्हीं मूल्यों को स्वीकार करेगा। 

साम, दाम, दंड, भेद की सहजता

अब जबकि हमने राजनीति में साम, दाम, दंड, भेद को सहज रूप से स्वीकार कर लिया है, तब समाज से नैतिक मूल्यों का पालन करने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? हर हाल में सत्ता में बने रहने के लिए भ्रष्ट साधनों का इस्तेमाल कर जनता से साधनों की पवित्रता की ख्वाहिश नहीं की जा सकती है। यह दोहरा मापदंड किसी भी स्तर पर साधा नहीं जा सकेगा। चाइल्ड सायकोलॉजी कहती है कि यदि आप बच्चे को कुछ सिखाना चाहते हैं तो उन्हें कहकर नहीं सिखा सकते हैं। वे तभी सीखेंगे जब आप उन्हें करके दिखाएँ। ठीक वही बात सरकार औऱ जनता पर भी लागू होती है। सामाजिक नैतिकता का आदर्श राजनीतिक नैतिकता से ही स्थापित किया जा सकेगा। राजनीति में अनैतिकता, समाज को अंततः उसी अनैतिकता की तरफ ले जाएगी।

(दैनिक  नई दुनिया के बाद लेखिका संप्रति स्‍वतंत्र लेखन करती हैं।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।