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धर्मांधता के शिकार अगर तालिबानी शरिया के बारे में जान जाएं तो कांप जाएंगे

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साक्षी सिंह, बनारस:

शरिया कानून कौन से देशों में कितने लोग चाहते हैं इसके लिए प्यू रिसर्च सेंटर, जो कि अनुसंधान और विश्लेषण के लिए एक प्रतिष्ठित संस्थान है, ने 2013 में एक शोध किया। इस शोध में किये गये सर्वे (ग्राफ देखिए) को देख आप पहली नजर में ये अत्यंत असंवेदशील हो कह सकते हैं कि अफगानियों को वह मिला जो वे चाहते थे। और उनके इस मनचाहा मिलने के बाद जो हाल देखने को मिल रहा है, उससे सीखना चाहिए कि हमें खुद अपने समाज और देश में किन बातों की चिंता करनी चाहिए एक बेहतर भविष्य के लिए। आप और हम यह भी सोच सकते हैं कि यदि लगभग सभी यही चाहते थे तो अब क्यों समस्या है। इस बात को समझने के लिए यह समझना जरूरी है वो कैसे सोचते हैं और कहां तक परिणाम देख या सोच पाते हैं। ऐसे देशों में किसी मुसलमान से यह पूछना कि क्या आप शरिया कानून लागू करना चाहते हैं या नहीं, प्यासे व्यक्ति से यह पूछने के जैसा होगा कि क्या आपको पीने के लिए पानी चाहिए। क्योंकि वो अत्यंत धार्मिक हैं, तो शरिया उन्हें धर्म को अच्छा सम्मान देने जैसा लगेगा। इसका वास्तव में मतलब यह नहीं है कि वे तालिबान की पसंद और उनके तौर तरीके का शरिया कानून चाहते हैं। ईमानदारी से कहें तो उनमें से आधे से अधिक को यह समझ नहीं होगी कि उनके लिए शरिया कानून का क्या वास्तविक अर्थ और परिणाम हो सकता है, जब तक आप इसे इस्लामी कानून के नाम से पुकारते हैं, वे हां में वोट देंगे। इसलिए इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि पुरुषों या महिलाओं की क्या भागदारी रही इस वोटिंग में। महिलाओं की भागीदारी के बारे में, शोध टिप्पणी करते हैं: केवल दो देशों में पुरुषों की महिलाओं की तुलना में आधिकारिक कानून के रूप में शरीयत का समर्थन करने की अधिक संभावना है: पाकिस्तान (+16 प्रतिशत अंक) और रूस (+9)।

 

इस ग्राफ में सबसे ऊँचे बार आपको उन देशों के दिखेंगें जो मुस्लिम बहुल देश हैं। इन देशों में इस्लाम प्रभुत्व में है। ये शोध और सर्वे की संख्याएं सच के बहुत करीब हो सकती हैं। लेकिन ऐसे में हम हवाई जहाज से कीड़े मकोड़ों की तरह चिपकते, गिरते, भागते, चीखते, कैसे भी इस देश, इस कानून से भागते लोग समझ नहीं आयेंगें पहली नजर में। क्या ये वही हैं जिन्होंने शरियत कानून को वोट किया है? अगर सबने किया है तो फिर अब भाग क्यूँ रहे हैं? क्या अगर भाग रहे हैं जो उन्हें नहीं पता था कि उन्होनें जो चुना है उसका क्या मतलब है? क्या परिणाम होगा? हम यह सोच सकते हैं कि अफगानिस्तान से भागने की कोशिश करने वाले तालिबान का समर्थन नहीं कर सकते। एक कटु तथ्य यह भी है कि जब लोग विचारधाराओं का समर्थन करते हैं तो वे व्यावहारिक परिणामों पर विचार नहीं करते हैं, बहुत दूर तक नहीं देख पाते, धर्मांधता में प्रायः ऐसा होता है। हाँ, वे शरिया शासन का समर्थन करेंगे, लेकिन शायद तालिबान का नहीं। मुद्दा यह है: यदि आप कट्टरवाद को प्रोत्साहित करते हैं, तो आप तालिबान के प्रजनन स्थल को तैयार करने में शामिल हैं। यह बात सभी धर्मों की कट्टरता पर लागू होती है। यह ग्राफ दो अलग अलग किस्म के मुस्लिम समुदायों और उनकी सोच और समाज से अपेक्षाएं बताता है। इस ग्राफ से पता चलता है कि मुस्लिम अल्पसंख्यक देशों में मुस्लिम समुदाय सहिष्णुता की मांग करता है, वहीं मुस्लिम बहुल देशों में यह स्वयं असहिष्णु हो जाता है दूसरों के साथ-साथ खुद के लोगों के लिए भी। 

 

लेकिन इसे सिर्फ मुस्लिम समुदाय के साथ जोड़ के नहीं देखना उचित होगा। लोगों को धर्म के आधार पर लेबल करना शायद बहुत आसान और सरल है और ऐसा करने से हमारा उन्हें अलग-अलग करके चीजों को समझने के बोझ कम हो जाता है। एक दूसरे उदाहरण के तौर पर देखें तो विदेशों में रहने वाले बहुत से हिन्दू भारतीय भी ऐसा ही करते हैं, वे भारत को हिंदू राष्ट्र के तौर पर देखना चाहते हैं लेकिन खुद के लिए विदेशों में समान अधिकार चाहते हैं। बहुत से भारतीय भारत में घोर रंगभेद और जातिवाद के समर्थक हैं पर विदेशों में खुद पर होने वाले जरा से रंगभेद सहन नहीं कर पाते। हम मनुष्य अपने धर्म के अलावा, सत्ता और शक्ति के भूखे और स्वार्थी जानवर हैं (अन्य जानवरों की तरह)। और यह कोई धार्मिक घटना नहीं है। कम धार्मिक लोगों और नास्तिकों के भी अपने हित बनाम दूसरों के लिए दोहरे मापदंड होते हैं। याद रखें इन सभी तथाकथित चुन चुन के बनाएं धार्मिक नियमों को समाज की आचार संहिता के रूप में प्रचारित किया जाता है। उन्हें शरीयत या तालिबान या राम राज्य या मनुस्मृति नाम देना भर है। ये सभी कानून के आदिम आचार संहिता हैं जो वर्तमान आधुनिक/उदारवादी समाजों में काम नहीं कर सकते हैं, न ही कदम मिला के चल सकते हैं। लेकिन यह धर्मोंत्साही लोगों को नहीं समझ में आएगा। उन्हें अपने धर्म के प्रति अथाह प्रेम उनको इन आदिम कानूनों की पैरवी और रक्षा करने से नहीं रोकेगा। यह एक खरीद की तरह है, जिसके लिए आपने साइन अप किया है प्रेम और उत्साह में, परंतु उसके परिणामों से परिचित नहीं हैं कि मुफ्त ऑफ़र में क्या क्या प्राप्त होगा। धर्म के नाम पर जनता को बहकाएं और उन्हें वह करने के लिए कहें जो आप चाहते हैं धर्म के नाम कानून बना के।

 

पर समय के साथ मूल्य बदलते रहने चाहिए ताकि हम विकसित होते रहें। उदार लोकतंत्र मानव सभ्यता का एक अनमोल आविष्कार है। समाज को एक सम्राट या एक धर्म की सनक पर निर्भर नहीं छोड़ा जा सकता है, चाहे वह कितना भी उदार हो। हमें किसी सत्ता किसी विचारधारा के विरोध में ठीक से बोलना और बोले हुए को समझना और सीखना पड़ेगा। अपनी संवेदनशीलता को सही जगह सही प्रश्न करने होंगें तालिबानी सत्ता और संगठन का विरोध कर रहे हैं तो करिये, हर राह दिखते मुसलमान का मत करिये। यही अंतर लागू होता है अगर आप संघ का विरोध कर रहे हैं, तो वो संपूर्ण हिंदू समुदाय का विरोध ना बन जाये। ये समझना बहुत आसान है कि आप कट्टरवाद के विरूद्ध हैं ना कि किसी धर्म, समुदाय, समाज के विरूद्ध। 

मानव जाति के विकास या सिर्फ अस्तित्व में भी बने रहने का केवल एक ही विकल्प है वो है प्रगतिशील बने रहना। अगर समाज अपने आज को कल में बाँधेगा तो यही होगा। स्वतंत्रता, विकास, विस्तार, शांति, सौहार्द, स्वास्थ्य, विज्ञान, कला, सौंदर्य सभी प्रगतिशील समाज के गुण होते हैं, कट्टरवादी, रूढ़ीवादी, विविधिताहीन समाज के गुण नहीं होते हैं।हम मूल रूप से आदिवासी प्रकृति के हैं। इतिहास साक्षी है कि स्वजातीय और विविधिताहीन समाज मानवीय मूल्यों के लिए स्वतः कम संवेदनशील हो जाते हैं। अधिक विविधिता और मिश्रित समुदाय में मानवीय मूल्यों, अधिकारों का सम्मान और स्वतंत्रता अधिक होती है। जब किसी भी देश समुदाय में विविधिता खतम हो जाती है, वो समाज या समुदाय अपने आप असहिष्णु हो जाता है। क्यूँकि कोई भी सोच, संस्कृति, विचार, जो बहुतायत और प्रभुत्व में है, रूढ़ीवादी है, उसे कोई दूसरा जो अपने जैसा न हो नहीं पसंद आएगा। वहां कोई भी नयी बात, विचार, विधा के दमन या निरस्त कर दिये जाने की संभावना बढ़ जाती है। ऐसा समाज स्वभाव से एकाधिकार चाहता है, जहाँ एकाधिकार की भावना हो वहाँ सहिष्णुता पाये जाने का प्रश्न ही नहीं उठता। यह बात किसी भी धर्म, किसी भी समाज,  किसी भी देश के लिए सत्य है। प्रकृति विविधता से प्यार करती है और धर्म की कट्टर अवधारणा एक विपरीत शक्ति है। कट्टरवाद विकास नहीं लाता, ना ही समय में आगे चलने का रस्ता खोलता है। कट्टरवाद पीछे देखते हुए चलता है, जिससे समाज का लड़खड़ा कर मुँह के बल गिरना तय है। 

(मूलत: बनारस की निवासी। काशी हिंदू विश्‍वविद्यालय से शिक्षा। भाभा ऑटोमिक रिसर्च सेंटर और कैंब्रिज  युनिवर्सिटी  में सेवाएं दी। संप्रति  UMC Utrecht  में पोस्‍ट डॉक्‍टरल फेलाे।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।