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आदिवासी समाज में शिक्षा का अलख जगाने के लिए झारखंड को अब भी किसी रहनुमा की तलाश है

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वैसे तो झारखंड में आदिवासियों के हित से जुड़े कई ज्वलंत मुद्दे गौण हैं। इस पर राज्य सरकार ठोस पहल करने से कतराती रही है। लेकिन शिक्षा से अब कोई समझौता नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि विकास की बुनियादी जरूरत है शिक्षा। इसके बिना झारखंड के विकास की कल्पना नहीं की जा सकती। विडंबना देखिए कि झारखंड बनने के 19 साल बाद भी किसी सरकार ने आदिवासी नौनिहालों को मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा देने की पहल नहीं की।   

नारायण विश्वकर्मा

प्रकृति के सबसे करीब रहनेवाले आदिवासी समुदाय ने संसाधनों के अभाव में विश्व में अपनी एक खास पहचान बनाई है। लेकिन लाखों साक्षर आदिवासियों को ये भी नहीं मालूम होगा कि ये दिवस है बला? या फिर विश्व आदिवासी दिवस मनाने से आदिवासी समाज को क्या फायदा होगा? ऐसे तमाम सवालों का शायद यही जवाब होगा कि आदिवासी समाज की दुनिया इन सब चीजों से बहुत दूर हैं। लाखों आदिवासियों को ये भी नहीं पता होगा कि 9 अगस्त 1995 को पहली बार विश्व आदिवासी दिवस का आयोजन किया गया था और यह दिवस दुनियाभर में आदिवासियों का सबसे बड़ा दिवस है।

आइये जानें कुछ ऐतिहासिक बातें
आखिर यह तारीख आदिवासियों के लिए क्या महत्व रखता है? आदिवासी दिवस मनाने की परंपरा कहां से शुरू हुई? संयुक्त राष्ट्र ने विश्व आदिवासी दिवस की घोषणा क्यों की? विश्व आदिवासी दिवस मनाने का क्या उद्देश्य है? एक अनुमान के अनुसार विश्व के 90 देशों में 5,000 आदिवासी समुदाय हैं, जिनकी जनसंख्या लगभग 37 करोड़ हैं। उनकी अपनी 7,000 भाषाएं हैं। इनके अधिकारों का सबसे ज्यादा हनन होने के बाद विश्व आदिवासी दिवस मनाने का निर्णय लिया गया। आदिवासियों के साथ हो रहे प्रताड़ना एवं भेदभाव के मुद्दे को अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने उठाना शुरू किया। इस संगठन ने 1957 में ‘इंडिजिनस एंड ट्राइबल पापुलेशन कान्वेंशन सं. 107 नामक दस्तावेज को अंगीकृत किया, जो आदिवासी मसले का पहला अन्तर्राष्ट्रीय दस्तावेज है। 

आदिवासी समाज का शिक्षा से सरोकार नहीं
ये आरोप लगाया जाता है कि अखंड बिहार के समय आदिवासी समाज को शिक्षा से वंचित रखा गया। आदिवासी बहुल क्षेत्र होने के कारण झारखंड राज्य का निर्माण हुआ। आज सच्चाई यह है कि आदिवासियों का विकास कम, विनाश ज्यादा हुआ। यह कटू सत्य है कि आदिवासी समाज का शिक्षा से कम सरोकार होना, उनकी कई जटिल समस्याओं से जुड़ा हुआ है। ऋणग्रस्तता,  भूमि हस्तांतरण, गरीबी,  बेरोजगारी,  स्वास्थ्य आदि कई समस्यायें हैं,  जो शिक्षा को प्रभावित करती है। सच कहा जाए तो जनजातीय समूहों पर औपचारिक शिक्षा का प्रभाव बहुत कम पड़ा है। 

मातृभाषा की शिक्षा से क्यों दूर हैं आदिवासी?
ऐसा कहा जाता है कि पूर्वोतर के राज्यों को छोड़कर अभी तक प. बंगाल के अलावा किसी भी अन्य प्रदेश में आदिवासियों को उनकी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा नहीं दी जाती है। ऐसे में यह समाज कैसे विकसित होगा, जिसे अपनी मातृभाषा से ही दूर रखा गया हो। अखंड बिहार में बरसों पहले आदिवासियों को मातृभाषा में पढ़ाने का कानून जरूर बनाया गया था। दुर्भाग्य से राजनीतिक स्वार्थवश इस पर आगे काम नहीं हो सका। विडंबना देखिए कि झारखंड के अलग होने के बाद भी प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने का प्रावधान अब तक लागू नहीं हो पाया है। ऐसी स्थिति में जनजातीय समाज देश के अन्य लोगों से बहुत पीछे रह गए। 

आदिवासी समाज को मूर्ख रखने की मंशा :  प्रेमचंद मुर्मू
शिक्षा का अलख जगाने के लिए झारखंड को अब भी किसी रहनुमा की तलाश है। यहां की साक्षरता दर 67.63 है, लेकिन वस्तुस्थिति ये है कि आज भी ग्रामीण इलाकों में हमारे नौनिहाल पेड़ की छांव तले पढ़ने को मजबूर हैं। ये कहना है आदिवासी बुद्धिजीवी मंच के अध्यक्ष प्रेमचंद मुर्मू का। श्री मुर्मू मानते हैं कि सरकार की यही मानसिकता रही है कि आदिवासी मूर्ख रहें। शासन-सत्ता इससे नावाकिफ नहीं है। शिक्षा देने के बदले मिड डे मिल पर सरकारों का अधिक फोकस रहा है। उन्होंने कहा कि पिछले साल भुखमरी और कुपोषण से 22 लोगों की मौत हो गई। भूख के आगे पढ़ाई नहीं हो सकती। सच कहा जाए तो गरीब के बच्चों को पढ़ने का हक ही नहीं है।
 
 ‘आदिवासी नौनिहालों को मातृभाषा में शिक्षा देना जरूरी’
आदिवासी बच्चों को मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा क्यों नहीं दी जा रही है? इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सरकारी स्तर पर अभी तक इसपर ध्यान नहीं दिया है। वे मानते हैं कि गांव में बच्चे अगर अपनी मातृभाषा में पढ़ेंगे तो उसे विषयवस्तु का ज्ञान रहेगा। इसलिए बच्चों को मातृभाषा में शिक्षा देना अनिवार्य होना चाहिए। उन्होंने कहा कि मिसाल के तौर पर नेतरहाट के लोरडिपा में जेफरानुस बाखला ने स्कूल खोल कर वहां के बच्चों को कुड़ुख और अंग्रेजी भाषा में पढ़ाने का काम कर रहे हैं। ये अच्छी बात है। मौजूदा हेमंत सरकार को इसपर गंभीरता से सोचना चाहिए। हेमंत सरकार ने झारखंड में ट्राइबल यूनिवर्सिटी और ओपन यूनिवर्सिटी खोलने की योजना बनायी है, इसके जवाब में उन्होंने कहा कि हेमंत सोरेन की ये अच्छी पहल है, इसका इस्तकबाल किया जाना चाहिए। लेकिन इतना जरूर कहूंगा कि आदिवासी बच्चों की शिक्षा की शुरुआत मातृभाषा में होनी चाहिए, इसपर सीएम को अविलंब ध्यान देना चाहिए।        

ट्राइबल और ओपेन यूनिवर्सिटी की स्थापना होगी
झारखंड के लिए यह सुखद विषय है कि पिछले 6 अगस्त को सीएम हेमंत सोरेन ने ट्राइबल यूनिवर्सिटी और ओपन यूनिवर्सिटी का अध्यादेश लाने की तैयारी कर ली है। इसकी स्थापना के लिए राज्य सरकार अध्यादेश लाएगी। दोनों विश्वविद्यालयों के लिए कानून का ड्राफ्ट बनकर तैयार हो गया है। उच्च एवं तकनीकी शिक्षा विभाग ने इस पर मुख्यमंत्री की सहमति ले ली है। आगे राज्य मंत्रिपरिषद के विचार के अनुमोदन के लिए भेजने की तैयारी की जा रही है। इन दोनों विश्वविद्यालयों की स्थापना के लिए राज्य सरकार के 2020-21 के बजट में राशि का प्रावधान कर दिया गया था।

ट्राइबल विकास मॉडल के अध्ययन पर फोकस होगा
बता दें कि झारखंड ट्राइबल यूनिवर्सिटी के लिए अभी स्थान का चयन  नहीं किया गया है। जल्द ही राज्य सरकार इस बारे में घोषणा कर सकती है। यह देश में किसी भी राज्य सरकार की ओर से स्थापित पहली ट्राइबल यूनिवर्सिटी होगी। इससे पहले मध्यप्रदेश के अमरकंटक में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय और आंध्र प्रदेश के विजयनगर में केंद्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय की स्थापना भारत सरकार की ओर से की गई है। बताया गया कि झारखंड ट्राइबल यूनिवर्सिटी में आदिवासी जनजीवन की परंपरा, संस्कृति, कला, साहित्य़ और ट्राइबल विकास मॉडल के अध्ययन पर विशेष रूप से फोकस किया जाएगा। पर्यावरण से जुड़े अध्ययन भी ट्राइबल यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रम में शामिल होंगे।