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यही है हिंदुस्‍तानियत: बौद्ध परिवार के पास उर्दू में रामचरितमानस

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इक़बाल ने बहुत पहले कहा था, यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रोमां सब मिट गए जहाँ से, अब तक मगर है बाकी नामों निशाँ हमारा। इसकी वजह है सर्वधर्म संभाव वाली हमारी बरसों पुरानी परंपरा। यही हिदुस्‍तानियत है, जो कबीर, मीरा, अमीर खुसरौ, बुल्‍ले शाह के यहां परवरिश पाकर अबतक परवान चढ़ रही है। यही सनातन है। यही सूफिज्‍म भी। यही दीन है, यही धर्म भी। जिसका नाम इश्‍क़ है और मोहब्‍बत। यह खबर इसकी तस्‍दीक़ करती है।-संपादक

 

आशुतोष भारद्वाज, दिल्‍ली:

यह किताब मैंने लाहौल के एक गाँव में एक बौद्ध परिवार के पास देखी। उन्होंने बताया कि यह उर्दू में अनूदित रामचरितमानस है। उनके बुजुर्ग इसे पढ़ा करते थे। उनके परिवार के पास न जाने कबसे है। मैंने संस्कृत और उर्दू के अध्येता बलराम शुक्ल से पूछा। उन्होंने कहा कि यह रामचरितमानस ही है। इसकी छपाई देखकर लगता है कि करीब डेढ़ सौ वर्ष पुरानी है। कुछ बरस पहले उर्दू रामचरितमानस की एक प्रति दिल्ली में पुरानी किताबों की एक दुकान पर बनारस के संकटमोचन मंदिर के पुजारी परिवार को मिली थी। यह प्रति 1910 में लाहौर में प्रकाशित हुई थी। 

 

लाहौल के इस घर में रखी यह प्रति कहीं पुरानी थी। अभिलेखागार के मानकों के अनुसार शायद इसे दुर्लभ पाण्डुलिपि कहा जा सकता था। 
तमाम हिन्दू घरों में पिछले कई सौ वर्षों से पढ़े जा रहे ग्रंथ की एक दुर्लभ उर्दू प्रति किसी बौद्ध परिवार के पास सुरक्षित थी, एक ऐसे घर में जो सर्दियों में बर्फ में दब जाता था, जिसके निवासी सर्दियाँ शुरू होते ही बिलासपुर और कुल्लू चले जाते थे, किताब बर्फ के भीतर सोती रहती थी।  

 

बस डेढ़ महीना बचा था, यह किताब अपनी शीत-निद्रा में जाने वाली थी।  इस पाण्डुलिपि को पलटते हुए मुझे 'बाणभट्ट की आत्मकथा' और 'द नेम ऑफ द रोज़' भी याद आए।

 

(युवा लेखक हैं। मूलत: पहाड़ के रहनेवाले। )

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।