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तालिबान की दहशत समझनी है तो फिल्‍मकार सहरा करीमी की चिट्ठी पढ़िये

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रंगनाथ सिंह, दिल्‍ली:

तालिबान शासन के खिलाफ विश्व समुदाय से मदद से अपील करते हुई अफगानी फिल्मकार सहरा करीमी की पोस्ट वायरल हो चुकी है। सहारा करीमी ने अपनी डीपी पर अफगानिस्तान का काला नक्शा लगा दिया। सहारा करीमी के प्रोफाइल के अनुसार वो काबुल में स्थित हैं। यह मामले का एक पहलू है। मामले का दूसरा पहलू यह है कि एक प्रोपगैण्डा फोटो भी देखी जिसमें लिखा था कि काबुल पर तालिबान के कब्जे की अगली सुबह 'स्कूल जाती लड़कियाँ।' तस्वीर शेयर करने वाले ने एक बार भी नहीं सोचा कि क्या आज काबुल में कोई स्कूल खुला होगा? खुला भी होगा तो क्या कोई माँ-बाप अपनी बच्चियों को स्कूल भेजेंगे! मामूली झगड़े-फसाद-दंगे में बच्चों को बाहर नहीं निकलने दिया जाता तो फिर तख्तापलट-गृहयुद्ध जैसे माहौल में किसकी बच्चियाँ बाहर निकलेंगी!  मुल्क या तंजीम के तौर पर अफगानिस्तान या तालिबान की इतनी हैसियत नहीं है कि वो अपने किसी पड़ोसी मुल्क से सीधी टक्कर ले सके।  फिर तालिबान अंतरराष्ट्रीय चिन्ता का विषय क्यों बना हुआ है? क्योंकि तालिबान केवल एक हुकूमत भर नहीं है, एक विचार भी है। वही विचार जिससे सहारा करीमी भयभीत हैं। वही विचार जिसने पेट्रो-डॉलर के दम पर पूरी दुनिया में ऐसा प्रोपगैण्डा खड़ा कर दिया है कि कुछ लोग हर हाल में उसे ही विक्टिम मानने लगते हैं। मसलन, ये बेचारे अफगानिस्तान में अमेरिका के दखल से पीड़ित होकर तालिबान बन जाते हैं और यही बेचारे अमेरिका में अपने तालिबानी अमल को फ्रीडम ऑफ च्वाइस बताते हैं और उसका विरोध होने पर खुद को विक्टम बताने लगते हैं। 

 

क्या यह हैरत की बात है कि जिस तालिबान से वर्तमान भारत की सीमा नहीं लगती उसमें भी तालिबान को लेकर इतनी ज्यादा उथलपुथल है। तालिबान के नाम पर ताली बजाने वाले जाहिल तो देश में पहले से ही हैं। आज मुझे ऐसे लोग इस्लाम इत्यादि के खिलाफ लिखते दिखे जो पहले कभी ऐसी बातें नहीं करते थे। जाहिर है कि उन्हें तालिबान की हुकूमत नहीं बल्कि उसका विचार व्यथित कर रहा है। एक खबर तालिबान के प्रिय अल-जजीरा चैनल ने चलायी है कि तालिबानी कन्धार के अजीजी बैंक में गये और वहाँ की नौ महिला कर्मचारियों को बन्दूक की निगहबानी में घर छोड़ा और कहा कि आपको दोबारा काम पर आने की जरूरत नहीं है। आप चाहें तो आपकी नौकरी आपके घर के किसी पुरुष को मिल जाएगी। तालिबान ने 20 साल में इतना विकास जरूर किया है कि उन्होंने तत्काल उन महिलाओं को गोली नहीं मारी। 

अतः याद रहे, तालिबान एक सोच भी है जिसका आधार एक मजहब है। वह मजहब दुनिया के कई मुल्कों में है। उन सभी मुल्कों में कमोबेश तालिबानी सोच वाला छोटा-बड़ा वर्ग है। वैश्विक समुदाय इसी बात से आशंकित है कि एक जगह के तालिबान को अगर बन्दूक के दम पर सत्ता मिल गयी है तो बाकी जगह के तालिबान यह भ्रम पाल सकते हैं कि वो भी ऐसा कर सकते हैं। हालाँकि यह भ्रम ही है। इस भ्रम के नतीजा केवल इतना ही होता है कि आप दो टॉवर गिराते हैं तो आपका मुल्क बीस साल तक अमेरिकी बूटों के नीचे रौंदा जाता है, हजारों मरते हैं, लाखों बेघर और तबाह होते हैं। तुर्रा यह है कि जब अमेरिका ने बूट उठा लिया तो आप कहने लगे हमने जंग जीत ली।  अतः यह साफ रहे कि तालिबान के सत्ता में आने से दुनिया में कोई ज्यादा चिंतित नहीं है। लोगों की चिन्ता वह तालिबानी सोच है जो भोले-मासूमों को बरगलाकर उन्हें अकाल मृत्यु की तरफ धकेल देती है।

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अफ़ग़ानिस्तान की फ़िल्म निर्देशक का दुनिया के नाम ख़त

मेरा नाम सहरा करीमी है और मैं एक फ़िल्म निर्देशक हूं। साथ ही अफ़ग़ान फिल्म की वर्तमान महानिदेशक हूं, जो 1968 में स्थापित एकमात्र सरकारी स्वामित्व वाली फ़िल्म कंपनी है।

मैं इसे टूटे दिल के साथ लिख रही हूं और इस गहरी उम्मीद के साथ कि आप मेरे ख़ूबसूरत लोगों को, ख़ासकर फ़िल्ममेकर्स को तालिबान से बचाने में शामिल होंगे। तालिबान ने पिछले कुछ हफ़्तों में कई प्रांतों पर कब्ज़ा कर लिया है। उन्होंने हमारे लोगों का नरसंहार किया। कई बच्चों का अपहरण किया। कई लड़कियों को चाइल्ड ब्राइड के रूप में अपने आदमियों को बेच दिया। उन्होंने एक महिला की हत्या उसकी पोशाक के लिए की। उन्होंने हमारे पसंदीदा हास्य कलाकारों में से एक को प्रताड़ित किया और मार डाला। उन्होंने एक ऐतिहासिक कवि को मार डाला। उन्होंने सरकार के कल्चर और मीडिया हेड को मार डाला। उन्होंने सरकार से जुड़े लोगों को मार डाला। उन्होंने कुछ आदमियों को सार्वजनिक रूप से फांसी पर लटका दिया। उन्होंने लाखों परिवारों को विस्थापित कर दिया।

इन प्रांतों से भागने के बाद, परिवार काबुल में शिविरों में हैं, जहां वे बदहाली की स्थिति में हैं। वहां इन शिविरों में लूटपाट हो रही है। दूध के अभाव में बच्चों की मौत हो रही है। यह एक मानवीय संकट है। फिर भी दुनिया ख़ामोश है।

हमें इस चुप्पी की आदत है, लेकिन हम जानते हैं कि यह उचित नहीं है। हम जानते हैं कि हमारे लोगों को छोड़ने का यह फ़ैसला ग़लत है। 20 साल में हमने जो हासिल किया है, वह अब सब बर्बाद हो रहा है। हमें आपकी आवाज़ की ज़रूरत है।

 

मैंने अपने देश में एक फ़िल्म निर्माता के रूप में जिस चीज़ के लिए इतनी मेहनत की है, उसके टूटने की संभावना है। यदि तालिबान सत्ता संभालता है, तो वे सभी कलाओं पर प्रतिबंध लगा देंगे। मैं और अन्य फ़िल्म निर्माता उनकी हिट लिस्ट में अगले हो सकते हैं।

वे महिलाओं के अधिकारों का हनन करेंगे और हमारी अभिव्यक्ति को मौन में दबा दिया जाएगा। जब तालिबान सत्ता में था, तब स्कूल जाने वाली लड़कियों की संख्या शून्य थी। तब से, स्कूल में 9 मिलियन से अधिक अफ़ग़ान लड़कियां हैं। तालिबान द्वारा जीते गये तीसरे सबसे बड़े शहर हेरात में इसके विश्वविद्यालय में 50% महिलाएं थीं। ये अविश्वसनीय उपलब्धियां हैं, जिन्हें दुनिया नहीं जानती। इन कुछ हफ़्तों में तालिबान ने कई स्कूलों को तबाह कर दिया है और 20 लाख लड़कियों को फिर से स्कूल से निकाल दिया है।

मैं इस दुनिया को नहीं समझती। मैं इस चुप्पी को नहीं समझती। मैं खड़ी हो जाऊंगी और अपने देश के लिए लड़ूंगी, लेकिन मैं इसे अकेले नहीं कर सकती। मुझे आप जैसे सहयोगी चाहिए। हमारे साथ क्या हो रहा है, इस पर ध्यान देने में इस दुनिया की मदद करें। अपने देशों के प्रमुख मीडिया को अफ़ग़ानिस्तान में क्या हो रहा है, यह बता कर हमारी मदद करें। अफ़ग़ानिस्तान के बाहर हमारी आवाज़ बनें। यदि तालिबान काबुल पर कब्ज़ा कर लेता है, तो हमारे पास इंटरनेट या संचार के किसी अन्य माध्यम तक पहुंच नहीं हो सकती है।

कृपया अपने फ़िल्म निर्माताओं और कलाकारों को हमारी आवाज़ के रूप में समर्थन दें। इस तथ्य को अपने मीडिया के साथ साझा करें और अपने सोशल मीडिया पर हमारे बारे में लिखें। दुनिया हमारी ओर नहीं देखती है।

हमें अफ़ग़ान महिलाओं, बच्चों, कलाकारों और फ़िल्म निर्माताओं की ओर से आपके समर्थन और आवाज़ की ज़रूरत है। यह सबसे बड़ी मदद है, जिसकी हमें अभी ज़रूरत है। कृपया हमारी मदद करें। इस दुनिया को अफ़ग़ानों को छोड़ने न दें।

कृपया काबुल में तालिबान के सत्ता में आने से पहले हमारी मदद करें। हमारे पास केवल कुछ दिन हैं। बहुत-बहुत धन्यवाद।

(पत्र फिल्‍मकार अविनाश दास के मार्फत हासिल)

(रंगनाथ सिंह हिंदी के युवा लेखक-पत्रकार हैं। ब्‍लॉग के दौर में उनका ब्‍लॉग बना रहे बनारस बहुत चर्चित रहा है। बीबीसी, जनसत्‍ता आदि के लिए लिखने के बाद संप्रति एक डिजिटल मंच का संपादन। )

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।