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साबरमती का संत-46: गांधी की अहिंसा में छुपी है किसान आंदोलन की कामयाबी

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(‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ - आइंस्टीन ने कहा था। आखिर क्षीण काया के उस व्यक्‍ति में ऐसा क्या था, कि जिसके अहिंसक आंदोलन से समूची दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेज घबराकर भारत छोड़ गए। शायद ही विश्व का कोई देश होगा, जहां उस शख्सियत की चर्चा न होती हो। बात मोहन दास कर्मचंद गांधी की ही है। जिन्हें संसार महात्मा के लक़ब से याद करता है। द फॉलोअप के पाठक अब सिलसिलेवार गांधी और उनके विचारों से रूबरू हो रहे हैं। पेश है,  46वीं किस्त -संपादक। )

कनक तिवारी, रायपुर:

भारत का यह किसान आंदोलन राष्ट्रीय पर्व की तरह याद रखा जाएगा। वह अवाम के एक प्रतिनिधि अंश का आजादी के बाद सबसे बड़ा जनघोष हुआ है। उसमें सैकड़ों किसानों की मौतें हो चुकी हैं। वह लाखों करोड़ों दिलों का स्पंदन गायन बना है। वह ईंट दर ईंट चढ़ते इरादों की मजबूत दीवार की तरह है। पुलिस-किसान भिड़ंत की कुछ हिंसक होती घटनाओं के कारण आन्दोलन स्थगित या रद्द हो भी जाए तो अहिंसा की सैद्धांतिकी से भी क्या उसे कोई नया मुकाम मिलेगा? चौरीचौरा की घटनाओं के कारण गांधी ने आंदोलन वापस लिया था। उनकी बहुत किरकिरी की गई थी। 1942 में तो उससे कहीं ज़्यादा हिंसा हुई। फिर भी भारत छोड़ो आंदोलन हिंसा की सामाजिकी का इतिहास विवरण अंगरेज द्वारा भी नहीं कहा जाता। उसमें केन्द्रीय भाव के रूप में अहिंसा ही अहिंसा गूंजती है। आज उसके अनुपात में सरकार और मीडिया कैसे कह सकते हैं कि किसान आंदोलन का चरित्र हिंसक हुआ है। रामचरितमानस में क्षेपक कविता का मूल पाठ नहीं है।  
 
इस सिलसिले में गांधी का नाम बहुत तेजी से उभरा है। कुछ को मलाल है किसान आंदोलन पूरी तौर पर गांधीजी की अहिंसा की बैसाखी पर चढ़कर क्यों नहीं किया गया? कुछ का कहना है आंदोलन का भविष्य गांधी की अहिंसा के लिटमस टेस्ट के जरिए ही आंका जा सकता है। कुछ का पूछना है इस पूरे आंदोलन की बुनियादी पृष्ठभूमि और सरकार के भी आचरण में गांधी रहे भी हैं क्या? असल में दुनिया के सबसे बड़े अहिंसक आंदोलन के जन्मदाता और प्रतीक गांधी मौजूदा निजाम की वैचारिकता द्वारा खारिज और अपमानित कर दिए जाने के बाद भी भले लोगों के लिए टीस या कभी कभी उभरते अहसास और सरकारों के लिए असुविधाजनक परेशानदिमागी बनकर वक्त के बियाबान को भी इतिहास बनाने अपनी दस्तक देते रहते हैं। मौजूदा निजाम-विचार ने तो उन्हें अपमानित करने की गरज से सफाई और स्वच्छता का रोल माॅडल बनाकर शौचालय के दरवाजे पर चस्पा कर दिया है। 

गांधी की पार्टी और राजनीतिक वंशज उनका नाम भूल गए। भले ही उनके उपनाम से आज तक अपनी दूकान चला रहे हैं। कभी नहीं कहा था महात्मा ने कि लिजलिजे, पस्तहिम्मत, कायर और हताश लोगों के जरिए अहिंसा का पाठ पढ़ाया जा सकता है। यह भी नहीं कहा था अपने से कमजोर के लिए मन में खूंरेजी, नफरत और हथियारी ताकत लेकर अट्टहास करने वालों के जरिए की जा रही प्रतिंहिंसा को अहिंसा कह दिया जाए। कुछ किताबी बुद्धिजीवी, समझदार नागरिक और गांधी की तात्विकता को समझने वाले भले लोग नैतिक रूप से सही कह रहे हैं कि किसान आंदोलन की सद्गति गांधी की आत्मा की रोशनी के बिना अपने वांछित मुकाम या हर पड़ाव तक पहुंचने में दिक्कत का अनुभव करेगी। इस सैद्धांतिक सीख की आड़ और समझ के गुणनफल के हासिल के रूप में यह सहानुभूतिपूर्ण समझाइश गूंजी है कि किसानों को संसद के बाहर धरना या प्रदर्शन करने का इरादा स्थगित कर देना चाहिए। यह भी कि किसान संगठनों को प्रायश्चित्त और मलाल में लाल किले की प्राचीर पर तिरंगे झंडे के बावजूद अन्य झंडा फहराने के आरोप के कारण उपवास या अनशन करना चाहिए। ईमानदार, उत्साही और अतिरिक्त सुझाव यह भी है कि फिलहाल आंदोलन को ही स्थगित कर देना चाहिए। 

ऊहापोह की ऐसी स्थितियों के संदर्भ और गर्भ में इतिहास की कुलबुलाहट है कि इन सबमें गांधी कहां हैं? ‘जयश्रीराम‘ के बदले ‘रामनाम सत्य है‘ या ‘हे राम‘ का उच्चारण वाले अहिंसाभक्त गांधी की याद करने की क्या मजबूरी है? गांधी के जीवित रहते संविधान सभा और बाद में भी न केवल उनकी अनदेखी की गई बल्कि उन पर अपमानजनक टिप्पणियां की गईं। गांवों पर आधारित गांधी का हिंदुस्तान जाने कब से भरभरा कर गिर पड़ा है। गांवों पर दैत्याकार महानगर उगाए जा रहे हैं। उन्हें अंगरेजी की चाशनी में ‘स्मार्ट सिटी‘ का खिताब देकर किसानों से उनकी तीन फसली जमीनों को भी लूटकर विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने के नाम पर अंबानी, अडानी, वेदांता, जिंदल, मित्तल और न जाने कितने काॅरपोरेटियों को दहेज या नज़राने की तरह तश्तरी पर रखकर हिंदुस्तान को ही दिया जा रहा है। 


 
मौजूदा निजाम चतुर कुटिलता का विश्वविद्यालय है। उसकी विचारधारा के प्रतिनिधि ने गांधी की हत्या करने के बावजूद अपनी कूटनीतिक सयानी बुद्धि में समझ रखा है कि फिलहाल इस अहिंसा दूत को उसके ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग‘ के मुकाबले ‘झूठ के साथ मेरे प्रयोग‘ जैसी नई थ्योरी बनाकर धीरे धीरे अपमानित किया जाए। उसे देश और दुनिया की यादों के तहखाने से ही खुरचा जा सके। फिर धीरे धीरे जनता के स्वायत्त जमीर को दीमकों की तरह चाट लिया जाए। फिर हिंसा के खुले खेल में ‘जयश्रीराम‘ को बदहवास नारा बनाते विपरीत विचारधाराओं को रावण के वंश का नस्ली बताया जाए। दल बदल का विश्व कीर्तिमान बनाकर सभी दलों से नर पशुओं को खरीदा जाए। ईवीएम की भी मदद से संदिग्ध चुनावों को लोकतंत्र की महाभारत कहा जाए। 

सदियों से पीड़ित, जुल्म सहती, अशिक्षित, गरीब, पस्तहिम्मत जनता को कई कूढ़मगज बुद्धिजीवियों, मुस्टंडे लेकिन साधु लगते व्यक्तियों से अनैतिक कर्मों में लिप्त कथित धार्मिकों के प्रभामंडल के जरिए वैचारिक इतिहास की मुख्य सड़क से धकेलकर अफवाहों के जंगलों या समझ के हाशिए पर खड़ा कर दिया जाए। भारत के अतीत से चले आ रहे राम, कृष्ण, बुद्ध, नानक, महावीर, चैतन्य, दादू, कबीर, विवेकानन्द, गांधी, दयानन्द सरस्वती, पेरियार, फुले दंपत्ति, रैदास जैसे असंख्य विचारकों के जनपथ को खोदकर लुटियन की नगरी बताकर अपनी हुकूमत के राजपथ में तब्दील कर दिया जाए। मुगलसराय को दीनदयाल उपाध्याय नगर और औरंगजेब रोड नाम हटाकर या इलाहाबाद को प्रयागराज कहकर सांप्रदायिक नफरत को भारत का नया और पांचवां वेद बना दिया जाए। फिर भी कुछ लोग हैं जो आज गांधी की मरी मरी याद कर रहे हैं।

 

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(गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।