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साबरमती का संत-7 : न हिंदी, ना  उर्दू, गांधी हिंदुस्‍तानी भाषा के रहे पक्षधर

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(‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ - आइंस्टीन ने कहा था। आखिर क्षीण काया के उस व्यक्‍ति में ऐसा क्या था, कि जिसके अहिंसक आंदोलन से समूची दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेज घबराकर भारत छोड़ गए। शायद ही विश्व का कोई देश होगा, जहां उस शख्सियत की चर्चा न होती हो। बात मोहन दास कर्मचंद गांधी की ही है। जिन्हें संसार महात्मा के लक़ब से याद करता है। द फॉलोअप के पाठक अब सिलसिलेवार गांधी और उनके विचारों से रूबरू हो रहे हैं। आज पेश है,  सातवीं किस्त -संपादक। )

भरत जैन, दिल्ली:

भारत की आजादी से पहले यह एक बड़ा मुद्दा था कि आज़ाद भारत की राष्ट्रीय भाषा क्या होगी? मुस्लिमों और हिंदुओं के बीच बढ़ती दरार का एक बड़ा कारण भाषा भी था। उत्तर भारत में लोगों की यह धारणा बन रही थी कि हिंदी, हिंदुओं की और उर्दू, मुस्लिमों की भाषा है। हालांकि बड़ी संख्या तब तक उर्दू लिपि जानने वालों की ही थी। लोग उर्दू में ही लिखा करते थे। इस बीच हिंदी की देवनागरी लिपि का प्रचार और चलन दोनों ही बढ़ रहा था। ऐसी हालत में महात्मा गांधी के सामने भी यह सवाल बार-बार आता था कि आजाद भारत की भाषा क्या होगी। भारत लौटने के कुछ ही वक्त बाद 1918 में महात्मा गांधी ने इंदौर के हिंदी साहित्य सम्मेलन में कहा था, "जैसे ब्रिटिश अंग्रेजी में बोलते हैं और सारे कामों में अंग्रेजी का ही प्रयोग करते हैं. वैसे ही मैं सभी से प्रार्थना करता हूं कि हिंदी को राष्ट्रीय भाषा का सम्मान अदा करें. इसे राष्ट्रीय भाषा बनाकर हमें अपने कर्तव्य को निभाना चाहिए।" महात्मा गांधी ने इसके बाद पांच 'हिंदी दूत' उन राज्यों में भेजे, जहां पर इस भाषा का ज्यादा प्रचलन नहीं था। इन पांच दूतों में महात्मा गांधी के सबसे छोटे बेटे देवदास गांधी भी एक थे। ये पांच हिंदी दूत हिंदी के प्रचार के लिए सबसे पहले तत्कालीन मद्रास स्टेट पहुंचे, जो आज का तमिलनाडु है।

कोर्ट की सुनवाई में भी गांधी चाहते थे हिंदी का प्रयोग 

महात्मा गांधी अदालत में भी हिंदी का प्रयोग गांधी चाहते थे। उनसे जब प्रश्न किया गया कि आधिकारिक रूप से अंग्रेजी का प्रयोग किया जा रहा है और इसे बदलने की बजाए ऐसे ही जारी रखा जाये क्योंकि लोग इस भाषा को भी भारत में समझने लगे हैं। इस सवाल पर महात्मा गांधी का कहना था कि अंग्रेजी से बेहतर होगा कि हिन्दुस्तानी को भारत की राष्ट्रीय भाषा बनाया जाए क्योंकि यह हिंदू- मुसलमान, उत्तर-दक्षिण को जोड़ती है। महात्मा गांधी का यह भी मानना था कि हिंदी का प्रयोग केवल बोलचाल और देश की आधिकारिक भाषा के तौर पर ही नहीं बल्कि न्यायालयों में सुनवाई के लिए भी किया जाना चाहिए। इस बारे में वे कहते थे, "कोर्ट की सुनवाई के दौरान राष्ट्रीय भाषा का प्रयोग किया जाना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता है, लोगों को राजनीतिक प्रक्रिया पूरी तरह से समझ नहीं आएगी। राष्ट्रीय और क्षेत्रीय भाषाओं को कोर्ट में जरूर आगे बढ़ाना चाहिए। अपने भाषण की समाप्ति पर महात्मा गांधी ने कहा था, मेरा विनम्र लेकिन दृढ़ विचार है कि जब तक हम हिंदी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा नहीं दिला देते और दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं को उनका जरूरी महत्व नहीं दिला देते, तब तक स्वराज्य की सारी बातें अर्थहीन रहेंगी।"


 
नहीं चाहते थे कि जिस 'हिंदी' को हम आज जानते हैं वह राष्ट्रभाषा बने 

10 अगस्त, 1947 को प्रकाशित अपने एक लेख में महात्मा गांधी ने राष्ट्रीय भाषा के बारे में लिखा था, "दिल्ली में मैं रोज ही हिंदुओं और मुस्लिमों से मिलता हूं। जिनमें हिंदुओं की संख्या ज्यादा है। इनमें से ज्यादातर एक ही भाषा बोलते हैं। जिसमें संस्कृत के शब्द कम होते हैं। फारसी और अरबी के भी (शब्द) ज्यादा नहीं होते। इनकी बड़ी संख्या को देवनागरी लिपि नहीं आती है. वे मुझे अलग सी अंग्रेजी में (चिट्ठी) लिखते हैं। और जब मैं उन्हें विदेशी भाषा में न लिखने को कहता हूं, वे उर्दू लिपि में लिखते हैं. तो अगर ऐसे में यह अनेक भाषाओं की खिचड़ी 'हिंदी' हो और इसकी लिपि केवल देवनागरी हो, इन हिंदुओं की क्या दुर्दशा होगी?" इसी लेख में महात्मा गांधी ने यह भी लिखा था, "लाखों भारतीय जो गांवों में रहते हैं, उन्हें किताबों से कोई लेना-देना नहीं है. वे हिंदुस्तानी बोलते हैं, जिसे मुस्लिम उर्दू लिपि में लिखते हैं और हिंदू उर्दू या नागरी लिपि में लिखते हैं. इसलिए हमारा और आपका यह कर्तव्य है कि हम दोनों ही लिपियां सीखें।"

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(लेखक गुरुग्राम में रहते हैं।  संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।