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IFS अफ़सर की आँखिनदेखी: जब उस सुंदर देश में उनके सामने आतंकवादियों ने घर में घुस कर मारी मंत्री को गोली

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जितेन्द्र कुमार त्रिपाठी, दिल्‍ली : 

जल ही जल चहुँ ओर, जल बिन तरसत मन! यह पंक्ति ही अस्सी के दशक के मालदीव का पूरा वर्णन कर देती है। चारों और फैले अथाह सागर के बीच विमुग्धकारी शैवालीय द्वीपों, स्वच्छ पारदर्शी तटों वाला यह छोटा सा देश अपने रेजॉर्टों में सिर्फ आराम के लिए विश्व में इस क़दर जाना जाता है कि मालदीव का पर्यटन विभाग अपने देश को पश्चिमी मुल्कों में इस नारे से प्रचारित करता था " मालदीव आइये, हम आपको सिखाएंगे कि कैसे कुछ नहीं किया जाता!"  स्थानांतरण की प्रक्रिया में कुछ समय तक भारत में अपनी छुट्टियां बिताने के बाद मैं जुलाई, 1987 की एक उमस भरी शाम परिवार सहित मालदीव के हुलूले हवाई अड्डे पर उतरा। हुलूले हवाई अड्डा राजधानी माले से आठ किलोमीटर दूर एक दूसरे द्वीप में है जहां तक धोनी ( समुद्री नाव) से ही जाया जा सकता था (अब शायद चीनी सहयोग से माले और हुलूले के बीच में सड़क पुल बन गया है)। हुलूले में सिर्फ एक हवाई पट्टी और एक टर्मिनल था जो एक छोटे से भवन में स्थित था। आगमन लाउन्ज का ज्यादातर हिस्सा अस्तव्यस्त सा लगने वाले कस्टम काउंटर का था जो मालदीवी पुलिस का ही एक हिस्सा था। आने वाली उड़ानों के समय वहां का दृश्य सब्जी के एक छोटे ठेले जैसा हो जाता था। मालदीव में इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों और आभूषणों पर आयात शुल्क शून्य या नगण्य था। किन्तु फलों और सब्ज़ियों पर काफी ज़्यादा यहां तक की किसी किसी सब्ज़ी पर तो 200 प्रतिशत शुल्क था। अतः अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों के आगमन के समय यह आम दृश्य हो जाता था कि कस्टम्स द्वारा सामानों की जाँच के समय दो आलू इधर लुढ़क रहे हों, चार टमाटर बायीं ओर व चार प्याज़ दाहिनी और भाग रहे हों! उस समय तीन ही अंतर्राष्ट्रीय उड़ानें मालदीव को आती थीं - त्रिवेंद्रम, कोलंबो और इस्लामाबाद से। हाँ, रोज़मर्रा की ज़रुरत की चीज़ें जल मार्ग द्वारा सिंगापुर, श्रीलंका और भारत से आयात होती थीं क्योंकि मालदीव सिर्फ नारियल और टूना मछली का ही उत्पादन करता था। अब तो संभवतः बारह से भी ज़्यादा अंतर्राष्ट्रीय उड़ानें मालदीव के लिए उपलब्ध हैं।

 

तब मालदीव में भारत समेत सिर्फ तीन देश के दूतावास थे

उस समय मालदीव में सिर्फ तीन दूतावास थे- भारत, श्रीलंका और पाकिस्तान के और मालदीव के पूरे विश्व में सिर्फ दो दूतावास थे -श्रीलंका और संयुक्त राज्य अमेरिका में। अब तो माले में आठ देशों के दूतावास हैं और मालदीव ने चौदह देशों में अपने दूतावास खोल रखे हैं। आठ एटोल (प्रान्त) और छब्बीस क्षेत्रों में बटा 1097 द्वीपों वाला यह देश समुद्र तल से मात्र डेढ़ मीटर औसत ऊंचाई पर है जिससे इसके कम से कम आंशिक रूप से समुद्र में डूब जाने का ख़तरा हमेशा बना रहता है। वर्तमान शताब्दी के प्रथम दशक में आई सुनामी में तो यहाँ तीन मीटर से भी अधिक ऊंची लहरों ने कई द्वीपों को कुछ समय के लिये पूरा ही डुबो दिया था। उस समय लगभग दो लाख की जनसंख्या वाले इस देश की लगभग आधी आबादी राजधानी माले में रहती थी जो लगभग तीन वर्ग किमी क्षेत्रफल के द्वीप था (अब तो सागर को पीछे धकेल कर इसका क्षेत्रफल बढ़ कर 8.5 वर्ग किमी हो गया है जहां डेढ़ लाख से अधिक लोग रहते हैं। जबकि देश की जनसंख्या पांच लाख से ऊपर हो गयी है)। मालदीवी बड़े ही शांतिप्रिय और धीमी ज़िंदगी जीने वाले लोग थे। मेरे जैसे नवागंतुक के लिए दिल्ली की उद्दंडता से बिलकुल उलट यह एक सुखद आश्चर्य का दृश्य होता था कि विपरीत दिशाओं से आने वाले साइकिल सवार टकरा कर गिरने के बाद कपडे झाड़ते हुए उठ खड़े हों और मुस्कुरा कर सलाम करते हुए अपने रास्ते चले जाएँ। कुछ प्रवासियों को छोड़ कर सारा मालदीव सुन्नी मुसलमान था लेकिन विचारों से काफी उदार। मालदीव की भाषा दिवेही सिंहल, अरबी और मलयालम का एक विचित्र मिश्रण है जो अरबी कि भांति ही दाहिने से बांये लिखी जाती हैI

 

 

बॉलीवुड के दीवाने मालदीवियों के हिंदी गानों के सुर ताल 

बॉलीवुड के दीवाने मालदीवियों ने समकालीन सभी लोकप्रिय गानों के सुर ताल को बरकरार रखते हुए उनका दिवेही रूपांतर कर लिया था जिससे नए आए भारतीयों को एकबारगी यह भ्रम हो जाता था कि वे हिंदी गाने सुन रहे हैं। दुपहिया साइकिल ही माले में आवागमन का मुख्या साधन थी यहाँ तक कि देश के मंत्री भी साइकिल से ही चलते थे हालांकि छह-सात करें ( तीन दूतावासों की, एक राष्ट्रपति की और दो-तीन निजी ) थीं। भारतीय दूतावास की कार के अतिरिक्त हमने मद्रास से दो बीएसए साइकिलें आयात की थीं जिनमें स्थानीय क़ानून के अनुसार हमने डिप्लोमेटिक नंबर प्लेट लगवाई थी! सड़कें सभी कच्ची थीं और मेरे समय में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) के अनुदान से पाइलट प्रोजेक्ट के रूप में एक मुख्य मार्ग पर लगभग सौ मीटर इंटरलॉकिंग टाइलें लगाई गयीं (जैसी अब अपने देश के फुटपाथों पर लगती हैं) जिसे तर रखने के उसका उपयोग चार दिन तक पहियेदार वाहनों के लिए निषिद्ध कर दिया गया।एक दिन सुबह दूतावास जाते हुए जैसे ही मैं सड़क पर पहुंचा, पुलिस कांस्टेबल ने मुझे इस निषेध का हवाला देकर रोक दिया। मेरे पूछने पर जब उसने बताया की पैदल यात्रा पर कोइ प्रतिबन्ध नहीं है,तो मैंने साइकिल को दोनों हाथों से उठा कर सौ मीटर की दूरी पैदल पर कर ली और उसकी समझ में नहीं आया की वह मुझे कैसे रोके! हमारे जैसे शाकाहारी परिवार के लिए वहां गुज़र बसर करना मुश्किल था जहां कोई सब्ज़ी, फल या आटा न मिलता होI इस समस्या से निपटने के लिए उच्चायोग के सभी लोगों ने एक व्यवस्था कर राखी थी। मद्रास स्थित एक एक्सपोर्टर से हम सभी नियमित रूप से सब्ज़ियां और फल मंगाते थे। उसको एक सप्ताह की अपनी आवश्यकताएं हम फ़ोन पर बता देते थे और वह एक बांस की छोटी सी टोकरी में साड़ी सब्ज़ियां और फल भर के गीले बोरे में सिल कर हमारे नाम के साथ मद्रास इंडियन एयरलाइन्स को दे देता था जो हमें त्रिवेंद्रम के रास्ते एयरलाइन्स की उड़ान से मिल जाती थी। डिप्लोमेटिक बैग लेने के लिए हुलूले जाने वाला कर्मचारी इन टोकरियों को भी ले आता था। इसी प्रकार से सभी की आवश्यकताएं ले कर महीने में एक बार एक-दो बोरी आटा भी माँगा लिया जाता था।

 

भव्य तरीके से 1988-89 में नेहरू जन्म शताब्दी समारोह का आयोजन 

भारत सरकार के अनुदान से हमने भव्य तरीके से 1988-89 में नेहरू जन्म शताब्दी समारोह का आयोजन किया। आयोजित अनेकों कार्यक्रमों में से एक था वॉलीबाल टूर्नामेंट, जिसकी विजेता टीम को देने के लिए एक फुट ऊंची एक ट्रॉफी उच्चायोग ने मद्रास से मंगाई थी। उच्चायुक्त के आदेश पर फाइनल से एक दिन पूर्व जब मैं उसे देने के लिए शिक्षा मंत्री के कार्यालय के लिए उच्चायोग की कार में चला तो अपने छः वर्षीय बेटी को भी कार में घूमने के लिए साथ ले लिया। ट्रॉफी को देख कर मंत्रिवर की आँखें आश्चर्य से फटी की फटी रह गईं क्योंकि उनके अनुसार मालदीव ने इतनी बड़ी ट्रॉफी पहले कभी नहीं देखी थी। उनकी सलाह पर हम ट्रॉफी सहित वापस कार में आ बैठे, कार पीछे ले जाई गयी, मालदीव टीवी का वीडियोग्राफर बुलाया गया जिसने हमारे कार से उतरने,कार्यालय तक पहुँचने और मेरी बेटी द्वारा मंत्री को ट्रॉफी देने ( मंत्री की ज़िद थी कि बच्चों के प्रति नेहरू के प्रेम के कारण वह ट्रॉफी बच्चे के हाथ से ही लेंगे) की लाइव रिकॉर्डिंग की जिसे शाम को नेशनल टीवी के मुख्य समाचारों में दिखाया गया। हालांकि इसके लिए मुझे उच्चायुक्त महोदय से झिड़की भी सुननी पड़ी जिन्हें शायद यह लगा की मैंने यह सब जान बूझ कर प्रचार पाने के लिए किया थाI माले में एक ही टीवी चैनल था जो सायं 5 से 9 बजे तक ही प्रसारण करता था जो दिवेही में होता था। हर शुक्रवार को जुमा की नमाज़ के बाद एक हिंदी फिल्म दिखाई जाती थी जिसका लिखित भाषांतर दिवेही में दिया जाता था। हर छोटी से छोटी घटना एक प्रमुख समाचार बना कर प्रसारित की जाती थी। मुझे याद है कि जब चूहों से परेशान सरकार ने चूहेमार अभियान शुरू किया तो गर्मी में स्कूली बच्चों को दवा की पुड़िया दे कर घर- घर भेजा गया। पुड़ियों को घर के कोनों में रखने के दो दिन बाद बच्चे आ कर मरे हुए चूहों को ले जाते और समुद्र के किनारे एक पंक्ति में रखतेI रोज़ शाम के मुख्य समाचारों में बताया जाता कि आज कितने चूहे मारे गए और कैमरा को ज़ूम करके दिखाया भी जाता जो वाकई एक घिनौना दृश्य होता। वहां टीवी की मांग पर हमने उन्हें महाभारत धारावाहिक भी भेंट किया।

 

तब के मालदीवी राष्ट्रपति अब्दुल्लाह ग़यूम की राजकीय भारत यात्रा

छोटा देश होने की कारण राजधानी माले के ज़्यादातर काम करने योग्य लोग या तो सरकार में थे या समुद्र में फैले हुए पचास से अधिक पर्यटक रेजॉर्टों में, जिससे माले में कर्मचारियों की कमी हो गयी थी। काम करने की संस्कृति न होने की कारण स्थिति इतनी खराब थी कि अक्सर हमारा सफाई कर्मी हमीद सुबह समय पर नहीं आता था और फ़ोन करने पर जब उसके घर वाले बताते थे कि वह सो रहा है तो हमें अपनी एकमात्र गाड़ी मर्सेडीज़ भेज कर उसे ले आना पड़ता था!! हमारे मालदीव प्रवास के दौरान देश के इतिहास की जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना घटी वह थी देश पर बाहरी आतंकवादी हमला। 3 से 5 दिसंबर 1988 को मालदीवी राष्ट्रपति अब्दुल ग़यूम की राजकीय भारत यात्रा होनी थी जिसकी तैयारी के लिए उच्चायुक्त महोदय 1 दिसंबर को दिल्ली पहुँच चुके थे। हमारा उच्चायोग भी यात्रा सम्बंधित तैयारियों में व्यस्त था। 2 दिसंबर की शाम को देर तक काम निपटाने के बाद मैंने और मेरे सहकर्मी श्री अनिल आनंद ने कार्य के तनाव को दूर करने के लिए वहां के एकमात्र सिनेमा थिएटर में सपरिवार हिंदी फिल्म दयावान का आख़िरी शो देखा और घर आ कर सो गए। 3 तारीख की भोर में तड़- तड़ की आवाज़ों के साथ मेरी नींद खुली तो लगा कि शायद सपने में फिल्म का शूटिंग सीन देखा हैI अतः हम लोग सो गए लेकिन फिर इन्हीं आवाज़ों से नींद खुली और घर से बाहर निकले तो देखा कि कई लोग अपने घरों से बाहर परेशान से खड़े हैं कि आखिर ये आवाज़ें कैसी हैं। कुछ देर बाद पता चला कि गोलियां चल रही हैं, तब भी विश्वास नहीं हुआ क्योंकि मालदीव की पूरी एक पीढ़ी ने पिछले चालीस वर्षों से गोली चलते नहीं सुना था। धीरे- धीरे स्थिति साफ़ हुई कि राजधानी माले पर बाहर से आतंकवादी हमला हुआ है। बाद में पता चला कि यह हमला श्रीलंका में रह रहे एक मालदीवी व्यापारी अब्दुल्ला लुतुफी की योजना से पीपल्स लिबरेशन आर्गेनाईजेशन फॉर तमिल इलाम नामक श्रीलंकाई आतंकवादी समूह के सहयोग से हुआ था जिसमे लगभग अस्सी श्रीलंकाई और मालदीवी शामिल थेI ये लोग भोर में ही कोलंबो से जबरदस्ती छीनी हुई नावों पर सवार हो कर माले के घाट पर उतरे और पुलिस चौकी ( जो कस्टम्स का भी काम देखती थी) पर कब्ज़ा करते हुए शहर में राष्ट्रपति को बंदी बनाने के लिए बढे I राष्ट्रपति को रक्षामंत्री ने किसी तरह एक सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दियाI लगभग 7 बजे सुबह हमारे एक अधिकारी के पास सन्देश आया कि राष्ट्रपति गय्यूम ने भारत सरकार से अनुरोध किया है कि आतंकवादियों से मालदीव की रक्षा की जाए।

 

और इधर राजधानी माले पर बाहर से आतंकवादी हमला

किन्तु यह सुनिश्चित करना आवश्यक था कि यह प्रार्थना वास्तविक और आधिकारिक है क्योंकि यदि हम यह सन्देश दिल्ली भेज देते जिसके आधार पर हमारी सरकार सेना भेज देती और बाद में यह पता चलता कि ऐसा सन्देश किसी देश की चाल से आया था या किसी ने सिर्फ परेशान करने के लिए भेजा था, तो भारत के लिए एक भारी कूटनीतिक संकट खड़ा हो जाता। इसलिए टेलीफोन संदेशों के ज़रिए राष्ट्रपति गय्यूम की प्रार्थना की वास्तविकता निश्चित करने के बाद दिल्ली को सन्देश भेजा गया। दिल्ली में एक आपात्कालीन बैठक के बाद यह निर्णय लिया गया कि अपने पड़ोसियों और विश्व की अन्य महाशक्तियों को स्थिति से अवगत करा कर तुरंत सेना भेजी जाए। आनन -फानन में एयर बेस आगरा से 4 पैराट्रूपर्स का एक जत्था एक मालवाही वायुयान से 2000 किमी दूर माले के लिए रवाना किया गया। साथ ही नौसेना के तीन पोत रवाना हुए और त्रिवेंद्रम स्थित एयर बेस से वायुसेना को मालदीव पहुँचने के लिए कहा गया। इधर आतंकवादी, जो बजाए किसी यूनिफार्म के टी शर्ट और लुंगी में थे, सड़कों पर बन्दूकेें लिए घूम रहे थे। चूंकि माले में किसी ने पिछले चालीस वर्षों से बन्दूक नहीं देखी थी, कई बच्चे और कुछ वयस्क भी उनके पीछे ऐसे घूम रहे थे जैसे हमारे गाँवों में मदारी के पीछे बच्चे घूमते हैं। कभी कभी ऊब कर आतंकवादी हवा में गोली चला देते थे जैसे कि भारत में पुलिस भीड़ को तितर- बितर करने के लिए चलाती है। ये आतंकवादी अपने पहनावे और व्यवहार से बिलकुल ही प्रशिक्षित नहीं लग रहे थे। ऐसा लगता था कि कुछ भाड़े के लोगों को बन्दूकें दे कर सशस्त्र तख्ता- पलट करने भेज दिया गया था। ये लोग टेलीफोन एक्सचेंज, जो तहखाने में था, को भी हथियाने के लिए बढे किन्तु वहां मौजूद एकमात्र कर्मचारी ने बुद्धिमत्ता दिखाते हुए एक्सचेंज का मोटे स्टील का दरवाज़ा बंद कर लिया, जिसके कारण टेलीफोन सुविधा निर्विघ्न चलती रही। बाद में वहां की सरकार ने उसे सम्मानित भी किया। दोपहर लगभग 12 बजे सारे विश्व में यह खबर फैल गयी की राजधानी माले पर आतंकवादी हमला हुआ है जिससे निपटने के लिए भारत की सेनाएं रवाना हो चुकी हैं। मेरे घर के सामने ही स्वास्थ्य मंत्री अब्दुल्ला अहमद का घर था। मेरी आँखों के सामने ही तीन आतंकवादियों ने घर में घुस कर मंत्री के पैर में गोली मारी और उन्हें घसीटते हुए ले गए। उस समय तक माले में भी पता लग चुका था की भारतीय सेना माले को मुक्त कराने के लिए रवाना हो चुकी है। यदि ये आतंकवादी ज़रा भी प्रशिक्षित होते तो मुझे और मेरे परिवार को, जो स्वास्थ्य मंत्री के आवास के सामने ही रहता था, बंधक बना कर भारत सरकार से सौदेबाज़ी कर सकते थे। तीन बजे अपरान्ह तक जब आगंतुकों को यह लगने लगा की अब बचना मुश्किल है तो वे भागने लगे। आगरा से रवाना पैराट्रूपर्स ने लगभग चार बजे सायं हुलूले एयरपोर्ट पर उतर कर पहले वहां क़ब्ज़ा किया, फिर माले आ कर आतंकवादियों की धरपकड़ शुरू की। कुछ हमलावर समुद्री रास्ते से भाग गए थे जिन्हें भारतीय नौसेना ने बाद में पीछा कर के पकड़ा। त्रिवेंद्रम से वायुसेना ने कई उड़ानें भर के सैनिकों को माले पहुँचाया। नौसेना के तीन जंगी जहाज़ भी माले पहुंच गए। इस प्रकार भारतीय सेना का "ऑपरेशन कैक्टस" कूटनाम का यह कार्य पूरा हुआ लेकिन सेना कुछ और दिन तक खोज में लगी रही। दूसरे दिन अर्थात 4 दिसंबर को प्रातः उल्लास का माहौल था।सड़कों पर निकले स्थानीय लोग एक दूसरे को बधाई दे रहे थे और हम लोगों का शुक्रिया कर रहे थे। लेकिन हमारे उच्चायोग में काम अब शुरू हुआ था।

हर घर " रहिमन पानी राखिये" का शब्दशः पालन करता

हुलूले और माले स्थित भारतीय सैनिकों की पहली मांग पीने के पानी की थी जिसे पूरा करना हमारे लिए असंभव था क्योंकि माले में पेयजल की पूर्ति की कोई केंद्रीकृत व्यवस्था नहीं थी। हर घर वर्षा का जल कुओं में इकठ्ठा करता था और उसे ही उबाल कर, छान कर पीता था। हर घर इस तरह अब्दुर रहीम खानखाना की सलाह " रहिमन पानी राखिये" का शब्दशः पालन करता था I माले में अंग्रेजी की उक्ति "वाटर वाटर एवरीव्हेअर नॉट ए ड्राप टु ड्रिंक" पूरी चरितार्थ होती थी I इसलिए मझगांव बंदरगाह से एक नौसैनिक जहाज़ पेयजल लेकर माले भेजा गया। अब समस्या आई खाने पीने की और स्टेशनरी की।सेना के मालदीव स्थित तीनों अंगों को प्रतिदिन कम से कम 200 पैकेट डबलरोटी की आवश्यकता थी जबकि सारे माले में बमुश्किल 20 पैकेट रोज़ का उत्पादन था। मालदीव के पर्यटक रेजॉर्ट अपने ग्राहकों के लिए खाद्य सामग्री सिंगापुर से मंगाते थे। यही हाल स्टेशनरी का था। इस आपूर्ति की कमी को त्रिवेंद्रम से वायुयान से मँगा कर पूरा किया गया। इस हमले का प्रणेता अब्दुल्ला लुतुफी भी गिरफ्तार हुआ, जिसकी मौत की सज़ा को बाद में राष्ट्रपति गय्यूम ने उम्रकैद में बदल दिया । पकड़े गए श्रीलंकाई आतंकवादियों को श्रीलंका की सरकार ने सज़ा दी जब की मालदीवी अपराधियों को मालदीव में जेल हुई।भारत का क़द इस कार्यवाई से न सिर्फ मालदीव में वरन सारे एशिया में काफी बढ़ गया और विश्व की सारी महाशक्तियों ने इस त्वरित कदम की सराहना कीI इस घटना के कई दिन बाद जब होली के अवसर पर मेरे घर में सारे भारतीय (लगभग बीस) एकत्रित हुए तो स्वाभाविक रूप से इस हमले की बात चली। जब मैंने बताया कि हमलावर उस दिन प्रातःकाल बंदूकें लहराते हुए घाट पर उतरे और कस्टम ऑफिस को फांदते हुए माले में प्रवेश कर गए तो चटर्जी मोशाय ने, जो मालदीव में भारत सरकार की ओर से स्थानीय बच्चों को संगीत की शिक्षा देने कि लिए नियुक्त थे, निहायत भोलेपन से मुझसे पूछ ही लिया कि कैसे वे हमलावर बिना सीमाशुल्क चुकाए शहर में घुस पाए और कस्टम्स ने उन्हें क्यों नहीं रोका? यह सवाल कलाकारों की सरलता को दर्शाता है। 

 

भारतीय लालफीताशाही का एक उदहारण
अंत में पाठकों को भारतीय लालफीताशाही का एक उदहारण देना चाहूंगा। ऑपरेशन कैक्टस पूर्ण होने के बाद मैं सपरिवार छुट्टी पर भारत आ गया। वापसी के लिए माले की टिकट ही नहीं कन्फर्म हो रही थी। फलतः मैंने उच्चायुक्त महोदय को फ़ोन कर के प्रार्थना की कि हमें टिकट दिलाने के लिए उच्चायोग से एक पत्र इंडियन एयरलाइन्स को लिखा जाए। दूसरे दिन ही उच्चायोग से फ़ोन आ गया कि पत्र लिख दिया गया है। किन्तु जब मैंने इंडियन एयरलाइन्स को फ़ोन किया तो कोई संतोषप्रद जवाब नहीं मिला। कई बार भटकने के बाद एयरलाइन्स से पता चला कि उच्चायोग से एक पत्र इस आशय का आया है कि हमें टिकट न दिया जाय! मना करने का कारण जानने के लिए मैंने फिर उच्चायुक्त महोदय से बात की तो उन्होंने मना करने की बात से पूरी तरह से इंकार किया, लेकिन आश्वस्त किया कि इस मामले की जांच करेंगे। बाद में पता चला कि पत्र भेजते समय द्वितीय सचिव ने वाक्य " कृपया सुनिश्चित करें कि श्री त्रिपाठी और उनका परिवार परसों चलने वाली फ्लाइट में हों " में ग़लती से शब्द " नहीं" जोड़ दिया था, जिससे पूरे वाक्य के अर्थ का अनर्थ हो गया! बहरहाल, हमें उस फ्लाइट में जगह नहीं मिल पाई क्योंकि दूसरा पत्र लिखने तक फ्लाइट जा चुकी थी। चूंकि अगले एक सप्ताह तक फ्लाइट में कोई रिक्ति नहीं थी, मैं इधर उधर दौड़ रहा था। इसी दौरान जब मैंने अपनी व्यथा कथा एक पुराने मित्र को सुनाई, जो दिल्ली सरकार की खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति मंत्रालय में उप सचिव थे, तो वे मुझे सीधे इंडियन एयरलाइन्स की प्रबंध निदेशक श्री पाइस के पास ले गए जहां उन्होंने हम दोनों का बड़ी ही गर्मजोशी से स्वागत किया और तुरंत टिकटें कन्फर्म कर के मुंबई और त्रिवेंद्रम में स्थित कमर्शियल मैनेजरों को भी आदेश दिया कि उड़ान में तथा विमानान्तरण में हमें सारी सुविधाएं और मदद दी जाए। बाद में जब मैंने अपने मित्र से पूछा कि श्री पाइस द्वारा उनकी बात तुरंत मानने और स्वागत सत्कार करने का क्या कारण था तो मुझे मुझे ज्ञात हुआ कि लालफीताशाही में उलझे हुए श्री पाइस की मदद मेरे मित्र ने की थी, जिसके श्री पाइस एहसानमंद थे। हुआ यूं कि पाइस साहेब ने (जो प्रख्यात टेनिस खिलाड़ी लिएंडर पाइस के पिता थे) दिल्ली में एक मकान बनवाया जिसके बिजली कनेक्शन के लिए उन्होंने आवेदन किया। दिल्ली के बिजली विभाग ने उनसे राशन कार्ड की मांग की क्योंकि उन दिनों आधार कार्ड, पैन कार्ड वगैरह तो होते नहीं थे। राशन कार्ड के लिए आवेदन करने पर खाद्य विभाग के इंस्पेक्टर ने उन्हें बताया कि वह मौके पर जा कर जांच करेगा और अगर पाइस परिवार वहां रहता पाया गया, तभी राशन कार्ड बनेगा। यह एक विषम परिस्थिति थी जिसे अंग्रेज़ी में "कैच 22" कहते हैं। बिजली कनेक्शन के लिए राशन कार्ड ज़रूरी था, राशन कार्ड के लिए वहां रहना ज़रूरी था और रहने के लिए बिजली, जिसके लिए आवेदन किया गया था!!! ऐसे में मेरे मित्र ने उनका राशन कार्ड बिना खाद्य इंस्पेक्टर की जांच के बनवा कर उन्हें अनुग्रहीत कर दिया था। कुछ ऐसी थी उस ज़माने की लालफीताशाही! माले सपरिवार वापस पहुँच कर हमने शेष समय वहां बिताया और अक्टूबर, 1989 में वापस स्थानांतरण पर दिल्ली आ गए। उस समय तो नहीं, पर अब पीछे मुड़ कर देखने पर लगता है कि कितना विषम परिस्थितियों वाला था वह संकटपूर्ण समय!

(भारतीय विदेश सेवा के भूतपूर्व अधिकारी जितेन्द्र कुमार त्रिपाठी ने राजनीति विज्ञान से एम.ए. और एलएल. बी. करने के बाद 1981 में सेवा प्रारम्भ की। सेवा काल के दौरान वे ज़ाम्बिया तथा मालदीव में भारतीय उच्चायोगों और हंगरी, स्वीडन, वेनेज़ुएला, ओमान तथा ब्राज़ील में भारतीय दूतावासों में पदस्थ रहे। ज़िम्बाब्वे में भारत के राजदूत के पद से 2014 में सेवानिवृत्त होने के बाद से ग्रेटर नोएडा में निवास I हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू तथा स्पेनिश भाषाओँ की जानकारी।सम्प्रति विभिन्न पत्रिकाओं में हिंदी/ अंग्रेजी में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर लेखन तथा अनेक टी. वी. चैनलों पर तत्सम्बन्धी परिचर्चा में सहभागिता। उर्दू ग़ज़लों की एक पुस्तक 2009 में प्रकाशित तथा दूसरी प्रकाशनाधीन।) 

 

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।