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संदर्भ नागालैंड-3: नागरिकों के दुर्भाग्यजनक हत्याकांड से उपजे कई मूल्यगत सवाल 

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कनक तिवारी, रायपुर:

नागालैंड के नागरिकों के दुर्भाग्यजनक हत्याकांड से कई मूल्यगत सवाल उपजते हैं। उनकी अनदेखी करने से लोकतंत्र की चुनौतियों और भविष्य को समझना टेढ़ी खीर होगा। 

-क्या निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को जनविद्रोह के सन्दर्भ में हुकूमत करना आता भी है? केन्द्र और राज्यपालों की राय असम रायफल्स को कायम रखने की क्यों बताई जाती है? 

-शबविश अधिनियम में प्रदेश में सेना भेज देने के निर्णय को लादने के पहले राज्य सरकार से मशविरा करने की कोई संवैधानिक बाध्यता नहीं है? सेना  नागरिक जीवन में हस्तक्षेप करती संस्कृति, साहित्य, व्यापार, शिक्षा, यातायात, बाजार, बेकारी हर जगह सेना धीरे धीरे एक अवांछित, अनिमंत्रित, अनियंत्रित फेनोमेना की तरह पैठती जा रही है। 

-सेना की ललक सिविल समाज में रमते जाने की क्यों होती जा रही है? जम्मू कश्मीर, पंजाब, त्रिपुरा, मणिपुर, असम, नगालैंड वगैरह में सैलानी कम आते हैं, सेनानी ज्यादा जमे रहते हैं। 

-क्या वे सैनिक भी देश के हीरो कहे जाएं जिन पर बलात्कार और हत्या का आरोप है? गिरफ्तार व्यक्ति यदि निकल भागने की कोशिश करे तो उस पर भी उनकी गोली ही चलती है। 

 

-लोकशाही में सविनय अवज्ञा की गांधी-थ्योरी का क्या भविष्य है? कब तक बहस मुबाहिसे और संवाद से बचते रहने को प्रशासन कहेंगे? ‘नागरिक अवज्ञा‘  और ‘जनप्रतिरोध‘ की कानूनी परिभाषा क्यों नहीं गढ़ी गई है? हर विरोध की मुश्कें ताजीराते हिन्द और जाब्ता फौजदारी कानून क्यों जकड़ लेते हैं? 

-क्या राजनीति सेना की बांबी या बांदी है? कार्यपालिका कर्मगत धृतराष्ट्र है? जो राजनीतिक विचारधाराएं या पार्टियां जनविरोधी कानून की न केवल मुखालफत करती हैं, बल्कि उसे खत्म करने की ताईद करती हैं, वे शबविश अधिनियम को लेकर अपना अपना श्वेतपत्र जारी क्यों नहीं करतीं?  

-अंगरेजी के मुहावरे ‘फाॅर दी टाइम बीइंग‘ अर्थात फिलहाल कहते असम रायफल्स की कायमी को तीन चौथाई सदी का समय बीत रहा है। उनकी हीरक जयंती और शताब्दी समारोह होंगे, लेकिन वे पिंड कब छोड़ेंगे?

-सबविश अधिनियम की वैधानिकता की जांच करती सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने यह तक कह दिया कि उसे नाॅन कमीशन्ड आॅफिसर्स (नये रंगरूटों) तक से इस बात की आशंका नहीं है कि वे बन्दूक जनविद्रोहियों/जनता के विरुद्ध बे-दिमाग उपयोग करेंगे। 

-सुप्रीम कोर्ट की इस सलाह पर कि प्रदेश सरकारों से विचार विमर्श के बाद ही सेना भेजी जाए और यह भी कि सबविश अधिनियम का हर छः महीने में पुनर्विलोकन न हो-केन्द्र सरकार मौन है।
-दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियों सहित कई क्षेत्रीय क्षत्रपों में अपराधी ही क्यों हैं? क्या देश में लोकतंत्र जा रहा है?

-नागरिकों द्वारा एक ‘निन्दा संहिता‘ क्यों नहीं रची जा सकती जिसके अनुसार उन नेताओं/नौकरशाहों वगैरह की समय समय पर ‘निन्दा दिवस‘ मनाकर जग हंसाई की जाए जो सबविश अधिनियम लादें और राजनीतिक चोला/पार्टी बदलकर अपने ही कुकृत्यों की निंदा कर बहती गंगा में हाथ धो लें? 

-अंगरेज-रचित पुलिसिया और मिलिटरी राज द्वारा दमन के कानूनों को लेकर नागरिक आजादी का कोई लोकतंत्रीय अर्थ है कि वह फिरंगी कानूनों की डकारें ही लेता रहेगा? 

-क्या केन्द्र सरकार मसखरों, अपराधी राजनीतिज्ञों और भ्रष्ट नौकरशाहों और स्टाॅक एक्सचेंज के दलालों और घोटालों से जूझते इतनी भोथरी हो गई है कि उसने गम्भीर राजनीतिक मुद्दों से जूझते रहने के लिए समस्या को जीवित रखा है ?
 
-वेस्टमिन्स्टर पद्धति का शासनतंत्र अपनाने के बावजूद भारत अंगरेजों तक के स्तर की नेताओं/प्रशासकों की जवाबदेही कहां तय कर पाया है? 

-सेना के लिए ‘करो‘ और ‘नहीं करो‘ के कुछ स्पष्ट आदेश हैं। इनके अनुसार अपराधी/आतंकी सेना की गिरफ्त से भागने की कोशिश नहीं करे, उस पर बल प्रयोग नहीं किया जाए। सेना द्वारा अपने ही मानक सिद्धांतों का उल्लंघन करने पर भी गुनहगार सैनिकों पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता?

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संदर्भ नागालैंड-1: सेना की हिंसा में आम नागरिकों की हत्या से उपजे सवाल

संदर्भ नागालैंड-2: आतंकवादियों के पास कैसे आ जाते हैं योरोप और अमेरिका के बने हथियार

( समाप्त)

 

(गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।