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गंगा में वज़ू कर नमाज़ और सरस्वती स्मरण के बाद छिड़ती शहनाई की तान

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मनोहर महाजन, मुंबई:  

जानते हैं संगीत की दुनिया में 'उस्तादों के उस्ताद' किन्हें  माना जाता है? अजी उन्हें ही जिन्हें संगीत विरासत में मिला था। जिनका बचपन का नाम 'क़मरुद्दीन' था। जिनके वालिद पैगंबरबख़्श ख़ान उर्फ़ 'बचई मियां" बिहार की डुमरांव रियासत के महाराजा केशव प्रसाद सिंह के दरबार में शहनाई बजाया करते थे। अभी भी नहीं पहचाना!  चलिये एक इशारा और देता हूँ। उनके दादा रसूल बख्श ने उनका नाम 'बिस्मिल्लाह' रखा जिसका मतलब होता है; 'अल्‍लाह के नाम से यानी अच्छी शुरुआत।' आपकी मुस्कान कह रही है आप 'पहचान' गए हैं। बिल्कुल सही!!-शहनाई नवाज़ भारतरत्न बिस्मिल्लाह ख़ान। डुमरांव  बिहार में 21 मार्च, 1916 को जन्मे उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान बचपन में अपने मामू अलीबख़्श के यहां बनारस किताबी तालीम हासिल करने आए। यहीं वे अपनी ‘बेगम’ यानी 'शहनाई' से दिल लगा बैठे। वे अपनी शहनाई को ही अपनी बेगम कहते थे। उनके मामू अलीबख़्श बनारस के बालाजी मंदिर में शहनाई बजाते थे। बालाजी मंदिर में ही रियाज़ करने वाले मामू के हाथ से नन्हें उस्ताद से जो शहनाई थामी तो ताउम्र ऐसी तान छेड़ते रहे। जिसने ख़ुद उन्हें और उनकी बनारसी ठसक भरे संगीत को शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया। उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान भारतीय शास्त्रीय संगीत की वह हस्ती हैं, जिन्होंने मंदिर के नौबतख़ानों गूंजती 'शहनाई' को न केवल स्वतन्त्र भारत के पहले 'राष्ट्रीय महोत्सव' में राजधानी दिल्ली तक पहुंचाया बल्कि सरहदों को लांघकर उसे दुनिया भर में अमर कर दिया।

 

उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान ऐसे बनारसी थे] जो गंगा में वज़ू करके नमाज़ पढ़ते थे और सरस्वती का स्मरण करके शहनाई की तान छेड़ते थे। संगीत को ईश्वर की साधना मानते थे और जिनकी शहनाई की गूंज के साथ बाबा विश्वनाथ मंदिर के कपाट खुलते थे। उन्हें देखकर ऐसा महसूस होता था जैसे तमाम मज़हब, आस्थाएं, देवी, देवता, ख़ुदा, भाषा, कला, साहित्य, संगीत, साधना, साज़, सब एक शख्शियत में समा गए हों। शहनाई को नौबतख़ानों से बाहर निकालकर वैश्विक-मंच पर पहुंचाने वाले वो ऐसे फ़नकार थे। जिन्हें भारत के सभी नागरिक-सम्मानों और 'भारत रत्न' से सम्मानित किया गया। कई अन्य 'राष्ट्रीय' और 'अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार' भी उनसे सम्मानित हुए। उन्हें बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और शांतिनिकेतन विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की मानद उपाधियां भी हासिल हुईं भारतीय संगीत की वो  ऐसी शख़्सियत हैं, जिन पर आधा दर्जन से ज़्यादा महत्वपूर्ण किताबें लिखी गई हैं!

वरिष्ठ पत्रकार रेहान फ़ज़ल लिखते हैं: "1947 में जब भारत आज़ाद होने को हुआ जो जवाहरलाल नेहरू का मन हुआ कि इस अवसर पर बिस्मिल्लाह ख़ान शहनाई बजाएं। स्वतंत्रता दिवस समारोह का इंतज़ाम देख रहे संयुक्त सचिव बदरुद्दीन तैयबजी को ये ज़िम्मेदारी दी गई कि वो ख़ान साहब को ढूंढें और उन्हें दिल्ली आने के लिए आमंत्रित करें… उन्हें हवाई जहाज़ से दिल्ली लाया गया और राजकीय अतिथि के तौर पर ठहराया गया…बिस्मिल्लाह इस अवसर पर शहनाई बजाने का मौक़ा मिलने पर उत्साहित ज़रूर थे, लेकिन उन्होंने पंडित नेहरू से कहा कि वो लाल किले पर चलते हुए शहनाई नहीं बजा पाएंगे। नेहरू जी ने उनसे कहा, ‘आप लाल किले पर एक साधारण कलाकार की तरह नहीं चलेंगे। आप आगे चलेंगे। आपके पीछे हम और पूरा देश चलेगा।’ बिस्मिल्लाह ख़ान और उनके साथियों ने 'राग काफ़ी' बजाकर आज़ादी की उस सुबह का स्वागत किया।1947 में आज़ादी के समारोह के अलावा उन्होंने पहले गणतंत्र दिवस 26 जनवरी, 1950 को भी लालकिले की प्राचीर से शहनाई वादन किया था। इसी के साथ यह सिलसिला शुरू हुआ कि उस्ताद की शहनाई हर साल भारत के स्वतंत्रता दिवस पर होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम का हिस्सा बन गई। प्रधानमंत्री के भाषण के बाद दूरदर्शन पर उनकी शहनाई का प्रसारण होता था।1997 में जब आज़ादी की 'पचासवीं सालगिरह' मनाई गई तो उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान को लाल किले की प्राचीर से शहनाई बजाने के लिए फिर आमंत्रित किया गया।"

 

 

कहते हैं कि संत कबीर का देहांत हुआ तो हिंदू और मुसलमानों में उनके पार्थिव शरीर के लिए झगड़ा हो गया था, लेकिन जब उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान का 21 अगस्‍त 2006 को देहांत हुआ तो हिंदू और मुसलमानों का हुजूम उमड़ पड़ा। शहनाई की धुनों के बीच एक तरफ़ मुसलमान 'फ़ातिहा' पढ़ रहे थे तो दूसरी तरफ हिंदू 'सुंदरकांड' का पाठ कर रहे थे। जैसे उनकी शहनाई मंदिरों से लेकर दरगाहों तक गूंजती थी, वैसे ही उस्ताद बिस्मिल्लाह मंदिरों से लेकर लालकिले तक गूंजते हुए 21 अगस्त, 2006 को इस दुनिया से रुखसत हो गए. उनके इंतकाल के वक्त उन्हें सम्मान देने के लिए साथ में एक शहनाई भी दफ्न की गई थी। ‘बिस्मिल्लाह ख़ान सच्चे, सीधे-साधे और ख़ुदा में आस्था और मंदिरों में विश्वास रखने वाले ऐसे इंसान थे जो हरेक पर भरोसा कर लेते थे। 2016 में उनकी पांच शहनाइयां चोरी हो गई थीं।इनमें से चार शहनाइयां चांदी की थीं। इनमें से एक शहनाई पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने उस्ताद को भेंट में दी थी। इसके अलावा दो शहनाइयाँ पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल और लालू प्रसाद यादव एवं अन्य दो उनके शिष्य शैलेष भागवत और एक आधी चांदी से जड़ी शहनाई खां साहब के उस्ताद और मामा अली बक्श साहब ने उन्हें उपहार में दी थीं। इस चोरी का बाद में खुलासा हुआ तो पता चला कि  उन्हीं के पोते ने एक सर्राफ को बेच दी थीं। जिस तरह उस्ताद के वारिसों ने उनकी शहनाई तक बेच खाई, उसी तरह 'भारत रत्न' घोषित करने वाली सरकार ने भी उन्हें मरणोपरांत उपेक्षित कर दिया। उनके पैतृक गांव डुमरांव से लेकर बनारस तक उनके नाम पर कहीं कोई 'संग्रहालय  है न कोई यादगा.यहां तक बताया जाता है कि उनकी क़ब्र पर बन रही मज़ार भी अब तक अधूरी पड़ी है। शहनाई  नवाज़ भारतरत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान को उनकी 15वीं पुण्यतिथि पर हम उनकी शख़्सियत, विश्व संगीत में शहनाई को स्थापित करने के उनके योगदान को सलाम करते हैं.
 

 

(मनोहर महाजन शुरुआती दिनों में जबलपुर में थिएटर से जुड़े रहे। फिर 'सांग्स एन्ड ड्रामा डिवीजन' से होते हुए रेडियो सीलोन में एनाउंसर हो गए और वहाँ कई लोकप्रिय कार्यक्रमों का संचालन करते रहे। रेडियो के स्वर्णिम दिनों में आप अपने समकालीन अमीन सयानी की तरह ही लोकप्रिय रहे और उनके साथ भी कई प्रस्तुतियां दीं।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।