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कृषि कानून: किसानों के अहिंसक आंदोलन को समझने की कितनी जरूरत

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पुष्‍यमित्र, पटना:

अहिंसक सत्याग्रह इसी तरह लड़े और जीते जाते हैं। इस संघर्ष के तरीके में कभी शोषक पर शारीरिक हमला नहीं किया जाता, उसे न कैद किया जाता है, न उसकी हत्या की जाती है और न ही उसे शारीरिक रूप से विवश किया जाता है कि वह आपकी बातें मान ले। इसमें सिर्फ असहमति व्यक्त की जाती है, असहयोग किया जाता है, धरना-प्रदर्शन होते हैं और शोषक से अपेक्षा रखी जाती है कि एक रोज वह आपकी बातें मान लेगा। मगर यह अहिंसक आंदोलन कमजोर और लिजलिजा आंदोलन नहीं होता। यह किसी भी हिंसक आंदोलन से ज्यादा मजबूत, ज्यादा धैर्य और संकल्प शक्ति वाला, अनुशासित और दृढ़-प्रतिज्ञ होता है। जिनलोगों को यह बात समझ नहीं आती, एक साल से अधिक दिन तक चले इस किसान आंदोलन को देखकर वे इस आसानी से समझ सकते हैं। इस देश को समय ने यह अवसर दिया है कि वे आजादी के 75 साल बाद एक बार फिर से गांधीवादी अहिंसक सत्याग्रह की ताकत को अपनी आंखों से जिंदा देख सकें। सच पूछिये तो आजादी के इस अमृत महोत्सव का यही सबसे बड़ा तोहफा है, जो देश के लोगों को मिला है।

दिलचस्प है कि अभी कुछ ही दिन पहले हमलोग इस बहस से होकर गुजर रहे थे कि 1947 को मिली आजादी असली आजादी नहीं थी, क्योंकि अंग्रेजों ने हमें ताकत के बल पर गुलाम बनाया था और जाते वक्त उन्होंने हमें भीख में आजादी दे दी गयी। यह सिर्फ अभिनेत्री कंगना राणावत का तर्क नहीं था, देश का एक बड़ा समूह इस तर्क से सहमत दिख रहा था। उन्हें भी इस किसान आंदोलन ने बताया, दिखाया और समझाया कि अहिंसक आंदोलन की जीत का मतलब भीख नहीं होता है। क्या वे आज कह सकते हैं कि किसानों को यह जीत मोदी जी ने भीख में दे दी? बिल्कुल नहीं, वे तमाम लोग जो कहते थे कि आजादी हमें भीख में मिली है, आज अंदर ही अंदर इस अहिंसक आंदोलन की जीत से तिलमिलाये हुए हैं। बौखलाये हुए हैं और अपने मन को समझाने के लिए तरह-तरह के सच्चे-झूठे तर्क गढ़ रहे हैं, खुद को दिलासा दे रहे हैं। कई लोग तो इसके बावजूद खुद को समझा नहीं पा रहे, वे फीलिंग लाइक गोडसे तक कहने लगे हैं। सच पूछिये तो यह छटपटाहट वैसी ही है, जैसी छटपटाहट गांधी को देखकर, उनके अहिंसक सत्याग्रह को देखकर ब्रिटिश पीएम विंस्टन चर्चिल को होती थी।

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जब भारत को आजादी मिल रही थी, तब चर्चिल का यह बयान काफी मशहूर हुआ था-

“Power will go to the hands of rascals, rogues, freebooters; all Indian leaders will be of low caliber & men of straw. They will have sweet tongues and silly hearts. They will fight amongst themselves for power and India will be lost in political squabbles.” 

हालांकि यह बयान फिलहाल कहीं रेकार्ड में नहीं है। मगर हर जगह इस बयान का जिक्र होता है। इस टिप्पणी को पढ़ेंगे तब समझ में आयेगा कि भारत को जो आजादी मिली थी, वह भीख नहीं, उसकी जीत थी। उस जीत के बाद ब्रिटिश साम्राज्य किस तरह तिलमिलाया हुआ था। ठीक उसी तरह जैसे आज सत्ता के पक्षधर लोग तिलमिलाये हुए हैं, यह तिलमिलाहट इसलिए नहीं है कि मोदी जी ने गलत फैसला लिया है। यह तिलमिलाहट इसलिए है कि वे अपने नेता को सर्वशक्तिमान के रूप में देखने के आदी थे, उन्हें अपने नेता का झुकना पसंद नहीं आ रहा। उनके नेता की छवि जो उन्हें अपने मन में गढ़ रखी थी, वह दरक रही है। वे अब कम से कम उस छवि को जिंदा रखना चाह रहे हैं, जिसमें उनका नेता छल-प्रपंच से हर बार अपनी हारी बाजी जीत लेता है।

खैर, यह अलग बात है। असल बात है जो है, वह है अहिंसा की ताकत और सत्याग्रह की ताकत। अहिंसा और सत्याग्रह की यही ताकत है। इसी ताकत ने विश्वविजेता अंग्रेजों को 1917 से लेकर 1947 तक बार-बार झुकने को मजबूर किया। इसलिए गांधी की अहिंसा की दुनिया में पहचान बनी। क्योंकि जिस ब्रिटिश सत्ता की ताकत के आगे दुनिया को नतमस्तक होना पड़ता था, उसे गांधी ने बिना हथियार, बिना बल-प्रयोग के बार-बार झुकाया। और इस ताकत की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि इसका इस्तेमाल हर कोई कर सकता है, चाहे वह शारीरिक रूप से बहुत कमजोर हो, या उसके पास धन और सत्ता में से कुछ भी न हो। एक निर्बल भी चाहे तो अकेले अपने अहिंसक बल से दुनिया को झुका सकता है। उसे न सेना जुटाने की जरूरत है, न हथियार का जुगाड़ करने की। उसका आत्मबल ही उसका हथियार है। इस तरह अहिंसा के रूप में गांधी ने इस दुनिया में सत्ता और ताकत का लोकतांत्रीकरण किया। यह आम बात नहीं थी, दुनिया की राजनीति में यह सबसे बड़ा उलट-फेर था। 1917 में जब यह कहा जा रहा था कि क्रांति बंदूक की गोलियों से होती है, तब गांधी मोतीहारी की अदालत में जज से कह रहे थे कि मुझे अपने किये पर कोई पछतावा नहीं है। मेरी अंतरआत्मा मुझे कहती है कि मैं आपके कानून का पालन नहीं करूं। आप जो चाहे सजा दे सकते हैं। और इस बात पर जज लाजवाब हो गया, उसने अपने जेब से पैसे निकालकर गांधी को जमानत दी। क्योंकि गांधी तो जमानत लेने के लिए तैयार ही नहीं थे। एक अकेले इंसान की यह ताकत थी। 

 

मगर हमारा दुर्भाग्य है कि आजादी के 75 साल बाद हम इस ताकत को समझना बंद कर चुके हैं। इसे बेवकूफी कहते हैं। महाराष्ट्र की सनातन संस्था तब भी गांधीवादी अहिंसक आंदोलन को नामर्दों का आंदोलन मानती थी। वह कहती थी कि गांधी हिंदुओं की पूरी पीढ़ी को नामर्द बना देंगे। मगर गांधी लोगों को नामर्द या स्त्रैण नहीं बनाना चाहते थे। हां, वे जरूर लोगों में स्त्रियों के विशिष्ट गुणों को आरोपित करना चाहत थे। क्योंकि अहिंसा का आंदोलन भी मूलतः स्त्रियों का आंदोलन ही है। स्त्रियां न जाने कितने वर्षों से इन तरीकों से अपनी बातें मनवाती रही हैं। वे परिवार में अपनी बातों को रखने और उसे मनवाने के लिए कभी हिंसा का इस्तेमाल नहीं करतीं। वे सिर्फ असहयोग करना शुरू कर देती हैं और उनके असहयोग से घर की पूरी व्यवस्था हिल जाती है। गांधी जी ने स्त्रियों की इस ताकत को पहचाना और उसे अपना राजनीतिक हथियार बनाया। यह हथियार उन्होंने इस देश के वंचितों को दिया। गांधी जी बार-बार रावण के गढ़ में अकेली सीता का उदाहरण देते हैं। और उससे प्रेरित होते हैं। राम ने तो रावण को एक बार हराया था, वह भी वानरों की सेना जुटाकर। मगर सीता तो अपने आत्मबल, अहिंसा और असहयोग के दम पर रावण को रोज हरा रही थी। वह आत्मबल क्या था, उसे समझने की जरूरत है। 

गांधी इसलिए भारतीय युवाओं को अहिंसक बना रहे थे, वे उन्हें मर्द होने की रूढ़ परिभाषा से दूर ले जा रहे थे। क्योंकि मर्द होने की जो उस वक्त परिभाषा थी, गांधी ने समझ लिया था कि वह परिभाषा दुनिया को दुनिया नहीं रहने देगी। मर्द होने की परिभाषा आज भी बल प्रयोग करने वाला और अपने बल, अपनी सत्ता के दम पर कमजोर लोगों को अपने बस में रखने वाला और झुकाने वाला है। कल एक पोस्ट में भी इसका जिक्र था कि मर्द वही सच्चा है, जिसके सान्निध्य में स्त्रियां खुद को सुरक्षित महसूस कर सकें। यह परिभाषा बहुत मासूम है, मगर इसमें एक शब्द गलत है, यहां सान्निध्य से सत्ता का बोध होता है। भाव यह है कि अगर स्त्रियों को सुरक्षा चाहिए तो उसे किसी न किसी ताकतवार पुरुष के आगे समर्पण करना है और उसकी हर सही गलत बातों को स्वीकार करना है। मगर आधुनिक स्त्री-पुरुष संबंध की बुनियाद इससे आगे की चीज है। वहां सच्चा पुरुष वह है, जिसके संपर्क में आकर स्त्री खुद ही महसूस करे की वह आजाद है, वह सहज है। सामने वाले उस पर किसी तरह का अनुचित हस्तक्षेप नहीं करेगा। प्रकृति से मिले ताकत का अनुचित इस्तेमाल नहीं करेगा। उसे अपनी भावनाओं से असहज नहीं करेगा। यह अहिंसा के विचार से ही मुमकिन है। हिंसा हमेशा सत्ता का निर्माण करती है, जबकि अहिंसा समानता की बात करता है। इसलिए समानता का लक्ष्य लेकर जब-जब हिंसक क्रांतियां हुईं, वे देर-सवेर किसी न किसी अधिनायक सत्ता का गुलाम बनकर रह गयी। समानता का बोध वहां से गायब हो गया। खैर, यह अवसर इतना दार्शनिक होने का नहीं है। यह अवसर इस देश की नयी पीढ़ी को फिर से अहिंसा की ताकत को देखने परखने और समझने का है। इस आंदोलन के इस पक्ष पर खूब शोध हो और किताबें लिखी जायें। ताकि फिर कोई यह न समझे कि अहिंसा का मतलब भीख है। 

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(लेखक  एक घुमन्तू पत्रकार और लेखक हैं। उनकी दो किताबें रेडियो कोसी और रुकतापुर बहुत मशहूर हुई है। कई मीडिया संस्‍थानों में सेवाएं देने के बाद संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।