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समाजवाद के नाम पर बनी पार्टी के टुकड़े कई हुए कोई यहां गया, कोई वहां गया

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आरके जैन, दिल्‍ली:

देश में कभी एक स्वतंत्र पार्टी नाम का राजनीतिक दल हुआ करता था। एक समय तो यह दल लोकसभा में मुख्य विपक्षी दल तक बन चुका था। भारत के प्रथम गवर्नर जनरल रहे चक्रवर्ती राजागोपालाचारी साहब ने नेहरूजी की समाजवादी नीतियों के विरोध में वर्ष 1959 में स्वतंत्र पार्टी की स्थापना की थी । स्वतंत्र पार्टी मुक्त अर्थव्यवस्था की वकालत करती थी। इस पार्टी के संस्थापकों में ज़्यादातर ज़मींदार, राजा रजवाड़े व उद्योगपतियों का एक समूह था। स्वतंत्र पार्टी को पहला आम चुनाव लड़ने का अवसर 1962 में मिला और आश्चर्यजनक रूप से पार्टी 18 लोकसभा की सीटें जीतने में कामयाब रही। स्वतंत्र पार्टी इस जीत से बहुत उत्साहित हुई और उसके नेता मानने लगे थे कि किसी दिन कांग्रेस को सत्ता से ज़रूर हटा देंगे। 1962 के चुनावों के बाद चीन से युद्ध, नेहरूजी का देहांत, शास्त्री जी का प्रधानमंत्री बनना, खाद्यान्न समस्या, पाकिस्तान से युद्ध और 1966 के शुरूआत में ही शास्त्री जी का देहांत और फिर श्रीमती इंदिरा गॉधी का प्रधानमंत्री बनना । देश उस वक़्त भीषण समस्याओं से जूझ रहा था तो विरोधी दल भी शांत थे और उचित मौक़े के इंतज़ार में थे।

 

स्वतंत्र पार्टी ने 1967 के लोकसभा चुनाव में 44 सीटें जीतीं

1967 के लोकसभा चुनाव हुऐ और सत्तारूढ़ कांग्रेस दल मामूली बहुमत से ही सरकार बना सका। स्वतंत्र पार्टी ने इस चुनाव में 44 सीटें जीतीं और वह मुख्य विपक्षी दल बन गया और लोकसभा में कांग्रेस की नीतियों की ज़बरदस्त विरोध करने लगा। स्वतंत्र पार्टी की इस सफलता से अन्य विपक्षी दल भारतीय जनसंघ, दोनों सोशलिस्ट पार्टी और अन्य छोटी पार्टियाँ भी कांग्रेस विरोध में उनका साथ देने लगे थे। अब तक ग़ैर कांग्रेसवाद की कल्पना साकार होना कुछ बडे और महान नेताओं को सामने नज़र आने लगा था। वामदलों व कुछ अन्य दलों के अलावा अन्य सभी दलों ने एक महागठबधन बनाने का फ़ैसला किया ताकि कांग्रेस को हराया जा सके।

 

इंदिरा गांधी ने 1969 में राजाओं का प्रिवी पर्स बंद किया

1969 में इंदिरा जी ने समाजवाद के अपने एजेंडे को बढ़ाते हुऐ राजाओं का प्रिवी पर्स बंद कर दिया तथा 19 बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण भी कर दिया जो कांग्रेस के ही पुराने नेताओं को पसंद नहीं आया । कांग्रेस में दो गुट बन चुके थे जिसका नतीजा यह हुआ कि राष्ट्रपति पद के कांग्रेस के प्रत्याशी श्री नीलम संजीव रेड्डी चुनाव हार गये और वीवी गिरि साहब राष्ट्रपति निर्वाचित हो गये थे। इंदिरा जी को कांग्रेस से निष्कासित कर दिया गया पर कांग्रेस के अधिकांश नेता इंदिरा जी की नई कांग्रेस में ही बने रहे। संसद में इंदिरा जी की कांग्रेस का बहुमत नहीं रह गया था पर वामदलों व अन्य दलों के सहयोग से सरकार बनी रही। इंदिरा जी ने दिसंबर 1970 में लोकसभा के चुनाव एक साल पूर्व यानि 1972 के बजाये 1971 में कराने का ऐलान करते हुऐ लोकसभा भंग कर दी। स्वतंत्र पार्टी की अगुवाई में महागठबधन भी ताल ठोंककर मैदान में था जिसका नारा था, इंदिरा हटाओ देश बचाओ। इंदिरा जी ने इसके जवाब में नारा दिया था, ग़रीबी हटाओ देश बनाओ। 

 

1977 में बनी जनता पार्टी का भी विघटन हो गया

महागठबधन में लोहिया जी की वह सोशलिस्ट पार्टी भी थी जो समाजवाद की लंबी चौड़ी बाते तो करती थी तथा कांग्रेस को पूंजीवाद का समर्थक मानती थी पर कांग्रेस विरोध की ग्रन्थि से इस कदर ग्रसित थी कि राजा महाराजाओ, ज़मींदारों, उद्योग पतियों की उस स्वतंत्र पार्टी के साथ गठबंधन करने से भी परहेज़ नहीं किया जो पूंजीवाद व मुक्त व्यापार की पक्षधर थी। प्रिवी पर्स का बंद होना , बैको का राष्ट्रीय करण होना, सार्वजनिक क्षेत्र को प्राथमिकता देने जैसे मामलों को भी तत्कालीन सोशलिस्टो ने समाजवादी कदम नहीं माना था। 1971 के चुनावों में इंदिरा जी को ज़बरदस्त सफलता मिली और स्वतंत्र पार्टी का नामोनिशान ही मिट गये । इसके नेताओं ने अन्य पार्टियों का दामन थाम लिया। सोशलिस्ट पार्टी भी ज़बरदस्त घाटे में रही। 1977 में बनी जनता पार्टी के विघटन के बाद सोशलिस्ट पार्टी कितने टुकड़ों में बँटी तथा कितनी सिद्धांतवादी रही यह तो खुद सोशलिस्टो को भी नहीं मालूम। कालांतर में जनता दल में कई नामों से सामने आया।

 

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।