logo

आज के राष्ट्रवाद से कितनी अलग थी रवींद्र नाथ टैगोर की देशभक्‍ति

11275news.jpg

शंभुनाथ शुक्‍ल, दिल्‍ली:
कोई 22 साल पहले फ़रवरी की एक दोपहर कलकत्ता के नेता जी सुभाषचंद्र बोस अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से उतर कर मैं एम्बेसडर कार में भागते हुए जा बैठा। दरअसल उमस के कारण मेरा दिल्ली वाला सूट मुझे बेहाल किए था। कार की खिड़की खोलने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी। क्योंकि अंदर एसी चल रहा था और बाहर भयानक गर्मी। ईस्टर्न बाईपास से गुजरते हुए एक बड़े से पोखर के किनारे अचानक मुझे 90 बाई 20 फुट की एक विशाल होर्डिंग लगी दिखी। जिस पर लिखा था- “टैगोर, टेरेसा एंड रॉय, वेलकम इन सिटी ऑफ़ जॉय!” मैंने वहाँ गाड़ी रुकवाई उस होर्डिंग के क़रीब गया और सिर उठाकर उसे बार-बार पढ़ने लगा। किसी शहर के वासी अपने नायकों को इतना सम्मान देते हैं, यह पहली बार देखा। ये तीनों कोई वीर योद्धा नहीं थे, तीनों ने कोई युद्ध नहीं किया। तीनों किसी भू-भाग के नरेश नहीं थे और न वे राजनेता थे। लेकिन मानवता को समर्पित इन तीन क्रांतिकारियों का यह सम्मान देख कर मेरी आँखों में आंसू आ गए। मुझे लगा, कितने अज्ञानी हैं हिंदी भाषी! वे राजनीतिकों के अलावा किसी का सम्मान नहीं करते। हिंदी भाषी लोग आमतौर पर फूहड़ और गंवार नायकों को पूजने में उस्ताद होते हैं। 

हिंदी संसार टैगोर के बारे में विस्तार से नहीं जानता
सच बात तो यह है, कि हिंदी भाषी लोग और यहाँ का बौद्धिक वर्ग रवींद्र नाथ टैगोर के बारे में विस्तार से नहीं जानता। वह उन्हें एक कवि, नोबेल पुरस्कार विजेता और गीतांजलि के रचयिता के रूप में ही जानता है। और गाहे-ब-गाहे यह टिप्पणी भी कर देता है कि जन-गण-मन तो टैगोर ने जार्ज पंचम की प्रशस्ति के लिए लिखा था। मैंने पूरा देश घूमा है, मुझे ग़ैर हिंदी राज्यों में कहीं भी टैगोर, टेरेसा अथवा रॉय के प्रति ऐसी विरक्ति नहीं दिखी, जैसी कि उत्तर भारत में दिखी। आपको शायद पता नहीं हो 1980 तक किसी भी सरकारी दफ़्तर में बाबासाहब भीमराव अम्बेडकर का चित्र तक नहीं लगा करता था। जबकि 1979 में मैंने मद्रास सेंट्रल स्टेशन पर अम्बेडकर का विशाल चित्र लगा देखा था। 

टैगोर मानवतावादी और गांधी एक धर्मपारायण विचारक
मैंने टैगोर को बहुत पहले उनका ‘गोरा’ पढ़ कर उनकी सोच के बारे में समझा था। अभी कुछ दिन पहले एक मित्र ने टैगोर और गांधी के पत्राचार और मुलाक़ात पर एक लेख पढ़ने के लिए भेजा था तो मैं दंग रह गया, टैगोर एक मानवतावादी विचारक थे और गांधी एक धर्मपारायण। टैगोर बीसवीं सदी में राष्ट्रवाद की संकीर्ण अवधारणा से निकल चुके थे और वे “वसुधैव कुटुम्बकम” पर भरोसा करने लगे। वे जलियाँवाला नर संहार की घोर निंदा करने वाले थे पर कांग्रेस ने हाथ पीछे कर लिए। टैगोर राष्ट्रवाद से ऊपर उठ चुके थे पर गांधी या नेहरू नहीं। संयोग है कि कल मुझे डॉक्टर Abrar Multani ने राष्ट्रवाद पर रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा लिखी एक पुस्तक भेजी है, जिसका अनुवाद डॉ. परितोष मालवीय ने किया है। अगर अनुवादक की सोच मूल लेखक की सोच से मिल जाए तो वह अनुवाद लाजवाब होगा। यह पुस्तक ऐसी ही है। मैंड्रेक पब्लिकेशंस से प्रकाशित इस पुस्तक का मूल्य 149 रुपए है। इसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए।

(मूलत: उत्तर प्रदेश के रहने वाले लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं। अमर उजाला के संपादक रह चुके हैं।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।