नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।
रंगनाथ सिंह, दिल्ली:
बांग्ला के लिए रवींद्रनाथ, इंग्लिश के लिए शेक्सपीयर, रूसी के लिए तोल्सतोय का जो क़द होगा वही क़द हिन्दी के लिए प्रेमचंद का है। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने सन 1873 में लिखा, 'हिन्दी नई चाल में ढली।' भारतेंदु की यह स्थापना आधुनिक हिन्दी गद्य की आधारशिला मानी जाती है। सन 1880 में प्रेमचंद का जन्म हुआ। 56 वर्ष कुछ महीनों की उम्र में उन्होंने विश्व स्तरीय कथा साहित्य का सृजन किया। जिस गद्य शैली की आधारशिला महज कुछ दशक पहले रखी गयी हो उसमें इस स्तर का साहित्य रचने का दूसरा उदाहरण पूरे विश्व में कम ही मिलेगा। प्रेमचंद की कहानियों को आप दुनिया के किसी भाषा के महान लेखक की कहानियों के समकक्ष रख सकते हैं। यकीन जानिए आप हीन नहीं महसूस करेंगे।
हिन्दी के कई युवा लेखकों एवं पाठकों को मैंने बोर्खेज-मार्खेज-बुकावस्की इत्यादि करते देखा और जब पूछा कि आपने प्रेमचंद या हजारीप्रसाद द्विवेदी का क्या पढ़ा है तो संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। सामान्य पाठक की बात अलग है। वह जो चाहे पढ़ सकता है। लेखक की जड़ें अपने पैर के नीचे की अपनी जमीन में न धँसी हों तो वो दूर देश की जमीन से बहुत देर तक पोषण नहीं प्राप्त कर सकता। सभी नौजवान मित्रों, खासकर लेखन में रुचि रखने वाले युवाओं को प्रेमचंद समग्र पढ़ने की सलाह देना चाहूँगा। मुझे लगता है कि हम जैसे भावी लेखकों को प्रेमचंद से तीन बातें जरूर सीखनी चाहिए, भाषा, सादगी और जनपक्षधरता।
हिन्दी में भाषा की बाजीगरी बीमारी के स्तर तक पहुँच चुकी है। सुरेंद्र मोहन पाठक के शब्दों में कहें तो पेज दर पेज पढ़ जाता हूँ केवल भाषा मिलती है, कथा नहीं मिलती! क्लिष्ट, चमकीली और असामान्य दिखने वाली भाषा जिसे पहले के लोग वाग्जाल कहते थे, का चलन तेजी से बढ़ा है। सरलहृदय पाठक भाषा के लच्छे को लेखन समझने लगता है। यह अलग बात है कि वह उसमें कोई अर्थ नहीं पाता फिर भी चमकीली वेशभूषा से प्रभावित होकर वाह-वाह करता है। कई बार तो उसे इस भाषायी ठगी का अहसास हो जाता है लेकिन इस डर से चुप रहता है कि दूसरे लोग उसे कमअक्ल न समझ लें। यह कुछ वैसा ही है जैसे किसी ने बहुत अच्छा सूट-बूट पहन रखा हो लेकिन उसके पास ने देह हो और न आत्मा। उसके आसपास के लोग बोलें क्या लग रहे हो यार! अमीर लोगों की महफिलों में आपको ऐसे दृश्य अक्सर दिख जाएँगे कि जिनके पास न देह हो न आत्मा लेकिन उनके लिबास शानदार होते हैं।
आपने गौर किया होगा कि हिन्दी जगत में सबसे लोकप्रिय तारीफ है - इनकी भाषा बहुत अच्छी है! (क्या ही किया जाए तारीफ करने लायक कुछ और हो तब ना?) आप उसी के समकक्ष अंग्रेजी की किताबों की समीक्षा देखें। आपको यह पँक्ति मुश्किल से देखने को मिलेगी कि 'लेखक की भाषा बहुत अच्छी है!' जिसकी भाषा खराब है वो लेखक क्यों बनेगा! मुझसे कभी कोई पूछता है कि अच्छी हिन्दी लिखना कैसे सीखें? तो मैं कहता हूँ कि प्रेमचंद को अधिक से अधिक पढ़ें। कोई यह पूछता है कि कैसी भाषा लिखनी चाहिए? तब भी जवाब वही होता है।
यह तस्वीर प्रेमचंद की बेहद लोकप्रिय तस्वीर है। तस्वीर में प्रेमचंद ने जो जूता पहना है वह एक तरफ से फटा हुआ है। ऐसा इसलिए नहीं है कि प्रेमचंद दारुण गरीबी में जीते थे। ऐसा इसलिए है कि प्रेमचंद अपने दौर के भारत के सबसे बड़े लेखकों में शुमार होने के बावजूद दिल से एक निम्न मध्यमवर्गीय नागरिक थे। वो अपने विचारों और लेखन पर जितना ध्यान देते थे उतना अपने जूते-कपड़े पर नहीं देते थे। वह सही मायनों में आडम्बरविहीन थे।हम जिस दौर में जी रहे हैं उसमें लेखक पर सेलेब्रिटी बनने का भारी दबाव है। लेखक और मॉडल या फिल्म स्टार में ज्यादा फर्क नहीं रह गया है। हर पेशे में अलग-अलग स्वभाव के लोग होते हैं। हम अपने स्वभाव के हिसाब से अपना रोलमॉडल चुनते हैं। जहाँ से मैं देखता हूँ वहाँ से मुझे यही दिखता है कि लेखक बनने की प्रेरणा फिल्मस्टार या मंत्री या आईएएस या सीईओ बनने की प्रेरणा से अलग होती है। मैं जिन्हें अपना प्रिय लेखक समझता हूँ उन सभी को सहज स्वभाव का पाया है। अगर प्रेमचंद अपने फटे जूतों में सहज रह सकते हैं तो हम अपनी सामान्य स्थिति में सहज क्यों नहीं रह सकते! प्रेमचंद से जो तीसरी बात सीखना चाहता हूँ, वो है उनकी जनपक्षधरता। भाषा हर लेखक का निजी चुनाव है। जीवनशैली भी लेखक का निजी मसला है। अतः ऊपर की दो सीख सापेक्षिक हैं। मेरे ख्याल से इस तीसरी सीख को सीखे बिना कोई प्रेमचंद सरीखा लेखक नहीं बन सकता। दुनिया के सभी लेखक किस…
प्रेमचंद अपना नाम मुंशी प्रेमचंद नहीं लिखते थे। डॉ जगदीश व्योम के अनुसार जब प्रेमचंद और केएम मुंशी ने एक साथ 'हंस' का सम्पादन शुरू किया तो उसके सम्पादक द्वय के नाम के तौर पर मुंशी - प्रेमचंद लिखा जाता था जिसे बाद में कुछ लोगों ने अकेले प्रेमचंद का नाम समझ लिया। प्रेमचंद के बेटे अमृत राय ने व्योम जी को पत्र लिखकर बताया था कि खुद प्रेमचंद ने इस नाम का कभी प्रयोग नहीं किया, बाद में उनके प्रशंसकों ने यह चलन चला दिया होगा। प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी ने अपनी किताब 'प्रेमचंद घर में' में भी कहीं उन्हें मुंशी कहकर सम्बोधित नहीं किया है। उम्मीद है कि हिन्दी मीडिया इस कुप्रचलन से मुक्ति पाएगा। प्रेमचंद को बेवजह मुंशी बनाने से परहेज करेगा। कल प्रेमचंद जयंती है इसलिए यह बात आज कही जा रही है। आगे आप लोगों की मर्जी।
(रंगनाथ सिंह हिंदी के युवा लेखक-पत्रकार हैं। ब्लॉग के दौर में उनका ब्लॉग बना रहे बनारस बहुत चर्चित रहा है। बीबीसी, जनसत्ता आदि के लिए लिखने के बाद संप्रति एक डिजिटल मंच का संपादन। )
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।