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प्रोपगैण्डा राजनीति: आदमी के दिमाग को नियंत्रित करके गुलाम बनाना ज्यादा सुविधाजनक

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रंगनाथ सिंह, दिल्‍ली:

आदमी की देह को कैद कर के गुलाम बनाने की तकनीक पिछड़ी हुई है। आदमी के दिमाग को नियंत्रित करके उसे गुलाम बनाना ज्यादा सुविधाजनक है। नोम चोम्सकी का एक व्याख्यान सुन रहा था जिसमें वो बता रहे थे कि एक अमेरिकी राष्ट्रपति युद्ध विरोधी प्रचार करके सत्ता में आये थे। अमेरिका की वॉर लॉबी को युद्ध की तलब हुई तो एक डर यह था कि जनता इससे नाराज हो जाएगी। इसका समाधान भी खोज लिया गया। चोम्स्की के अनुसार महज कुछ सालों में अमेरिकी प्रोपगैण्डा विशेषज्ञों ने जनमानस के बड़े हिस्से को युद्ध के लिए तैयार कर दिया। उसी व्याख्यान में चोम्स्की ने बताया कि प्रोपगैण्डा का हथियार की तरह सबसे पहले इस्तेमाल ब्रिटिश ने करना शुरू कर दिया। चोम्स्की के अनुसार हिटलर को लगता था कि पहले विश्व युद्ध में जर्मनी की हार का बड़ा कारण ब्रिटेन की प्रोपगैण्डा की ताकत थी। इसीलिए हिटलर ने अपनी नीति में प्रोपगैण्डा को बहुत महत्व दिया। जर्मनी का एक बड़ा तबका नाजी नीतियों का समर्थक बन गया। कुछ लोगों पर प्रोपगैण्डा का इतना गहरा असर था कि वो नाजियों के बर्बर कृत्यों के चीखते सबूतों पर भी यकीन नहीं करते थे और मानते थे कि यह सब नाजियों को बदनाम करने के लिए किया गया प्रोपगैण्डा है। 

ऊपर की पँक्तियाँ पढ़ते हुए आप यह तय कर चुके होंगे कि मैं किसे निशाना बना रहा हूँ। आपने क्या तय किया होगा यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप किस तरह के प्रोपगैण्डा के असर में हैं। मेरे मित्रमण्डली का आम स्वभाव देखते हुए इस बात की ज्यादा उम्मीद है कि ज्यादातर लोग इसे भारतीय दक्षिणपन्थी पार्टियों के बारे में दिया गया बयान समझेंगे। ऐसा समझना गलत भी नहीं है क्योंकि पिछले कुछ सालों में भारतीय राइटविंग ने सस्ते किस्म के प्रोपगैण्डे की सारी सीमाएँ तोड़ दी हैं । उनके सस्ते प्रोपगैण्डा की सबसे बड़ी निशानदेही मुझे तब मिली जब एक सेवानिवृत्त वैज्ञानिक ने मुझसे निजी बातचीत में कहा कि नेहरू के पूर्वज मुसलमान थे। मुझे यकीन नहीं हुआ कि इतना पढ़ा-लिखा आदमी भी इस प्रोपगैण्डा पर यकीन कर सकता है। नेहरू की आलोचना के सौ दूसरे कारण हो सकते हैं लेकिन किसी के बारे में ऐसी काल्पनिक बातें फैलाना सस्ते प्रोपगैण्डा का ज्वलंत उदाहरण है। प्रोपगैण्डा नया शब्द है लेकिन यह अवधारणा नयी नहीं है। हर समाज में लोग किसी के बारे में मनगढ़न्त बातें फैलाते रहे हैं, अवाम उसपर यकीन भी करती रही है।  लेकिन 20वीं सदी में प्रोपगैण्डा का सुनियोजित, सुगठित ताकतवर मशीनरी के तौर पर अभूतपूर्व विकास हुआ। चोम्सकी के अनुसार आधुनिक काल में इसकी ताकत सबसे पहले ब्रिटिश ने समझा।  ब्रिटेन से हिटलर ने समझा और फिर अमेरिका और रूस वगैरह ने सीखा।

प्रोपगैण्डा में जो जितना माहिर होता है वह उतना महीन प्रोपगैण्डा करता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण मीडिया से ही दिया जा सकता है। भारत में बहुत सारे लोग यह मानते रहे हैं कि बीबीसी निष्पक्ष समाचार दिखाता है। अब कुछ लोग मानने लगे हैं कि अल-जजीरा निष्पक्ष समाचार दिखाता है। दूरदर्शन भारत सरकार के गुण गाता है। लेकिन बीबीसी के बारे में जॉर्ज ऑरवेल जैसे प्रखर पत्रकार और लेखक के विचार ऐसे नहीं थे। वो मानते थे कि बीबीसी प्रोपगैण्डा टूल है। ऑरवेल ने भारत की आजादी से पहले ही बीबीसी को प्रोपगैण्डा टूल के रूप में चिह्नित किया था। अभी मैंने एक पोस्ट में लिखा कि अल-जजीरा तालिबान का प्रिय चैनल है तो एक बेहद जहीन साथी ने उसपर सवाल उठाया कि कैसे! मुझे हैरानी हुई कि वो अल-जजीरा को निष्पक्ष समझते हैं! सामान्य नागरिक से नहीं लेकिन प्रबुद्ध वर्ग से यह समझने की उम्मीद की जाती है कि बीबीसी, न्यूयॉर्क टाइम्स, अल-जजीरा और रसिया टुडे अपने राष्ट्रहित (नेशनल इंट्रेस्ट) या कार्पोरेट हित की पूर्ति के लिए ही लॉन्च हुए हैं। जिसकी प्रोपगैण्डा में जितनी महारत है वो उतना ही प्रच्छन्न या महीन प्रोपगैण्डा करता है।  बीबीसी और दूरदर्शन में इतना ही फर्क है कि दूरदर्शन मोटा चावल है, और बीबीसी खुशबूदार बासमती है। आज के समय में प्रोपगैण्डा का सबसे बड़ा हथियार है - इंग्लिश भाषा। इसीलिए आप देखेंगे कि ब्रिटिश और अमेरिकी प्रोपगैण्डा को काउण्टर करने के लिए पिछले दो दशकों में चीन, रूस, अरब जगत, तुर्की, जर्मनी इत्यादि ने अंग्रेजी न्यूजसाइटें लॉन्च की हैं या पुरानी मृतप्राय साइटों को खिलापिला कर मोटा किया है। इंग्लिश-प्रवीण जन दूसरे किस प्रोपगैण्डा के शिकार हैं यह पहचान कर खुद को बहुत स्मार्ट महसूस करते हैं लेकिन वो खुद किस प्रोपगैण्डा के शिकार हैं इसपर कभी नहीं सोचते।  

इंग्लिश प्रोपगैण्डा का टारगेट समाज का सबसे शिक्षित वर्ग होता है क्योंकि उसे ही अंग्रेजी आती है। इस वर्ग का सबसे बड़ा प्रोपगैण्डा है कि अंग्रेजी ज्ञान-विज्ञान की भाषा है। भारत के कान्वेट स्कूलों से कितने ज्ञानी-विज्ञानी निकले हैं इसका आज तक सर्वे नहीं हुआ। मुझे आज तक ऐसा आदमी नहीं मिला जो गणित, भौतिकी या रसायन में इसलिए तेज हो कि उसने कान्वेंट से पढ़ायी की है। कान्वेंट शब्द से याद आया। आप में बहुत से लोग हैं जो यह समझते हैं कि आरएसएस से जुड़े स्कूल लोगों को एक खास तरह की विचारधारा में ढालते हैं। आपकी अंग्रेजी जितनी अच्छी होगी आप इस बात को उतनी अच्छी तरह समझते होंगे लेकिन आपको यह स्वीकार करने में मुश्किल होगी कि 'कॉन्वेंट' का अर्थ है मठ। आरएसएस के स्कूल एक विचारधारा से संचालित होते हैं लेकिन वो धार्मिक संस्थान द्वारा संचालित नहीं हैं। आप ईसाई मठ द्वारा संचालित स्कूल में शिक्षित होकर भी यह नहीं मान पाते कि आपको एक खास सोच में ढाला गया है। यह खुशबूदार महीन प्रोपगैण्डा का जादुई असर है। 

 

आप मानें या न मानें ब्रिटेन के  गुलाम रहे सभी देशों के भद्रलोक या प्रभुवर्ग या रूलिंग क्लास को अपने (ब्रिटेन-अमेरिका के) हिसाब से कस्टमाइज करने के लिए इंग्लिश भाषा का इस्तेमाल किया जाता रहा है। ऐसा नहीं है कि हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं में प्रोपगैण्डा नहीं होता। होता है लेकिन वो तब होता है जब अवाम को टारगेट करना हो। रूसियों ने अपना ढेर सारा साहित्य हिन्दी में अनूदित कराया। आजकल चीनी अपनी किताबें हिन्दी में अनूदित करा रहे हैं। आपने गौर किया होगा कि जो बीबीसी गैर-अंग्रेजी भाषाओं की सेवाएँ समेटने की तरफ बढ़ रही थी, भारत में दक्षिणपंथी पार्टी के सत्ता में आते ही हिन्दी में विस्तार करने के साथ ही चार अन्य भारतीय भाषाओं में लॉन्च हो गयी। ब्रिटेन के इंडिपेंडेट ने उर्दू सेवा लॉन्च की। जर्मनी के डीडब्ल्यू ने भी भारतीय भाषाओं की सेवा में विस्तार किया है। यह सूची लम्बी है।

आज के दौर में प्रोपगैण्डा का दूसरा बड़ा औजार है- इंटरनेट। चीन ने समझदारी दिखाते हुए अमेरिकी इंटरनेट इंडस्ट्री को देश में घुसने नहीं दिया। चीन ने अपना सर्चइंजन, अपना सोशलमीडिया, अपना मैसेंजर ऐप विकसित किया। जरूरत पड़ने पर चीन ने अमेरिकी तकनीक की निर्लज्ज चोरी की लेकिन गूगल, फेसबुक, व्हाटसऐप को अपने देश में प्रभावी नहीं होने दिया। क्योंकि नोम चोमस्की के अनुसार जो मीडिया को कंट्रोल करता है वो अवाम के माइंड को कंट्रोल करता है। आप यह लिखकर सुर्खरू बनने लगते हैं कि हिन्दी मीडिया पर राइटविंग का कब्जा है इत्यादि। लेकिन आप भूल जाते हैं कि इंग्लिश मीडिया भी कोलोनियलिस्ट-विंग के नियंत्रण में है। पिछले कुछ समय में कई लोग मुझसे पूछ चुके हैं कि आजकल आप इतना कैसे लिख रहे हैं। एक जवाब तो यह है कि मैंने भारतीय अंग्रेजी अखबारों के ओपिनियन कॉलम पढ़ना बन्द कर दिया है। दुनिया भर के कूढ़मगज को मैं लम्बे समय तक यह सोचकर पढ़ता रहा कि ये ज्ञान-विज्ञान दे रहे हैं! ये बुरी लत छूटी तो अब काफी समय बच जाता है। पढ़ना होता है तो किताब पढ़ता हूँ। अंग्रेजी या हिन्दी जिसमें मिल जाये। मैं जानता हूँ कि हिन्दी में ऐसे गुलामजहन बहुत बड़ी संख्या में हैं जिनके बारे में पेज-थ्री फिल्म की एक महिला चरित्र दूसरी महिला से कहती है- अच्छी अंग्रेजी में क्या माँग लिया कुछ भी दे दोगी! ऐसे गुलामजहन हिन्दी में लिखी हर चीज को कमतर मानने की बीमारी से ग्रसित होते हैं। यह यूँ ही नहीं है कि हिन्दी भद्रलोक के रोलमॉडल अक्सर अंग्रेजी बुद्धिजीवी होते हैं। कभी अरुँधति राय कभी रामचन्द्र गुहा कभी विक्रम सम्पत। ऐसे सभी लोगों से कहना है कि आपको अभी बहुत से मानसिक कष्ट मुझसे मिलने वाले हैं। आपका दुर्भाग्य है कि आप हिन्दी पढ़ लेते हैं और मैं अंग्रेजी।

 

(रंगनाथ सिंह हिंदी के युवा लेखक-पत्रकार हैं। ब्‍लॉग के दौर में उनका ब्‍लॉग बना रहे बनारस बहुत चर्चित रहा है। बीबीसी, जनसत्‍ता आदि के लिए लिखने के बाद संप्रति एक डिजिटल मंच का संपादन। )

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।