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मंथन : क्यों इतनी है हाय-तौबा शादी की उम्र जो थोड़ी सी बढ़ा दी है-महिलाओं के प्रति निष्पक्षता का सवाल

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तंज़ीला तासीर, रांची:

पिछलों दिनों लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ाए जाने की बहुत चर्चा रही। पक्ष और विपक्ष में तर्क दिये जाते रहे। हालांकि एक स्त्री होने के नाते मैं शादी के लिए लड़कियों की उम्र 18 से 21 बरस किये जाने का स्वागत करती हूं। लड़कियों को भी अपनी पढ़ाई से लेकर नौकरी तक के सफ़र में थोड़ी आसानी हो। यूं तो हमेशा देखा जाता है कि लड़कियों की शादी पढ़ाई के दौरान ही तय कर दी जाती है। उनसे कोई पूछने की ज़हमत भी नहीं करते हैं कि उनकी मर्ज़ी क्या है,या वो क्या चाहती हैं। हमेशा उन पर अपनी ही मर्ज़ी थोप देते हैं। हम मानते हैं कि हर अभिभावक की एक ही ख्वाहिश होती है-बेटी की शादी करना। फिर चाहे वह कोई भी हो। यहां बात अमीरी-गरीबी से परे है। ऐसे भी गार्जियन हैं जो अपनी बेटियों को पैरों पर खड़ा करने के लिए जी जान लगा देते हैं।

 

बात यहां तक खत्म नहीं होती है। आज भी हमारे सामाज में या यूं कहें ग्रामीण इलाकाें में बेटियों की शादी आठवीं तक पहुंचते-पहुंचते कर दी जाती है।  दरअसल मां-बाप अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त होना चाहते हैं। पर वह ये भूल जाते हैं कि ये भी मनुष्य है। इसे भी तमाम चीजों का हक़ है। इसे भी अपनी जिंदगी को अपने तरीक़े से जीने का हक़ है। इसलिए सबसे पहले महिलाओं को आर्थिक, शारीरिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक रूप से सशक्त बनाने के लिए उनके लिए शादी की एक निश्चित न्यूनतम आयु की आवश्यकता होती है। मुस्लिम समाज में शादी की उम्र बढ़ाए जाने की अधिक आलोचना सुनने को मिल रही है। जबकि इस्लाम ने महिला को उचित शिक्षा प्राप्त करके, पिता और पति की संपत्ति आदि से विरासत प्राप्त करके समाज में खुद को प्रबुद्ध करने के लिए कुछ प्रोत्साहन की पेशकश की है। इस्लामी ने मुसलमानों को शिक्षा और उत्कृष्ट करियर प्रदान करने के लिए अपनी बेटियों और पत्नियों को पुरुषों के समान व्यवहार करने का आदेश दिया गया है।

 

आंकड़ों से पता चलता है, कि भारत में कम उम्र में शादी के कारण लड़कियां अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर पाती हैं।कुपोषित रहती हैं और मातृ मृत्यु अनुपात में तेजी से वृद्धि का कारण बनती हैं। इस्लाम ऐसी किसी भी धारणा का समर्थन नहीं करता जो महिलाओं के उत्थान और सशक्तीकरण में बाधक हो। इस्लाम, शिक्षा प्राप्त करने पर ध्यान केंद्रित करता है क्योंकि यह इस्लाम में निहित सपनों को प्राप्त करने का सबसे शक्तिशाली हथियार है। पैगंबर मुहम्मद (PBUH) ने कहा, "शिक्षा प्राप्त करना हर मुसलमान के लिए अनिवार्य है।" विवाह की न्यूनतम आयु बढ़ाना उचित शिक्षा प्राप्त करने के साथ जुड़ा हुआ है। लेकिन भारत में धर्म की परवाह किए बिना कम उम्र में शादी करने की सदियों पुरानी प्रथाओं ने महिलाओं को इन लक्ष्यों को प्राप्त करने से रोक दिया है। जब लड़कियों की उचित उम्र में शादी हो जाती है, तो वे अपने परिवार और बच्चों की देखभाल करने के लिए स्वस्थ रहती हैं। इस्लाम ऐसे कानून का समर्थन करता है जो लड़कियों को एक सार्थक और समृद्ध जीवन जीने में मदद करता है।

 

 "लड़कियों के लिए, परिपक्वता को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है: 'एक लड़की की अच्छे जीवन का प्रबंधन करने की क्षमता, मातृत्व और बच्चे के पालन-पोषण की जिम्मेदारी की स्वीकृति का स्तर, साथ ही साथ सामाजिक व्यवहार में उसकी उपयुक्तता (शाद अहमद आईसीएनए)।"  शाद साहब की बातों पर गौर और फिक्र करना चाहिए। उन्होंने चंद शब्दों में लड़कियों की ज़िम्मेदारी को समझाया है। हमें इन बातों का ख्याल रखना चाहिए। इस्लामी सिद्धांत लड़कियों से शादी करने के लिए निश्चित उम्र निर्दिष्ट नहीं करते हैं। लेकिन इसका गठन है कि लड़कियों को मातृत्व और बच्चे के जन्म की जिम्मेदारियों को बनाए रखने के लिए योग्य होना चाहिए। इसलिए नस्ल और जातीयता के आधार पर मौजूदा जैविक स्थितियों के आधार पर न्यूनतम आयु देश से दूसरे देश में भिन्न हो सकती है। भारतीय मुसलमानों को इस नई पहल को समझना चाहिए और उसका समर्थन करना चाहिए। यह भारत में प्रत्येक लड़की के लिए सबसे अधिक फलदायी और लाभकारी होगी, चाहे वह किसी भी धर्म की हो। आखिरकार, इस्लाम ने हमेशा महिला आबादी की बेहतरी के विचार का समर्थन किया है।

(तंजीला मूलत: साहिबगंज की रहने वाली हैं। संप्रति रांची में एक उर्दू दैनिक के संपादकीय विभाग से संबद्ध। )

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। सहमति के विवेक के साथ असहमति के साहस का भी हम सम्मान करते हैं।