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जयंती: तीन युवा लेखकों से समझिये राजेंद्र यादव जैसे लेखक-चिंतक का न होना

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द फाॅलोअप डेस्‍क, रांची:

पहले मोहन राकेश, फिर कमलेश्वर और अंत में राजेंद्र यादव। नई हिंदी कहानी आंदोलन की त्रयी अब न रही। इनमें राजेंद्र यादव (28 अगस्त 1929–28 अक्टूबर 2013) बड़े चितंक के रूप में सामने आते हैं। वहीं उन्होंने हाशिये की आवाज को मंच दिया, जिनके स्वर अबतक अनसुने रहे थे। प्रेमचंद ने 1930 में जिस पत्रिका हंस को शुरू  किया था, उसका प्रकाशन 1953 में बंद हो गया था। राजेंद्र यादव ने प्रेमचंद जयंती जयन्ती के दिन 31 जुलाई 1986 को इसका पुनर्प्रकाशन आरंभ किया और अंतिम सांस तक उसे निकालते रहे। आज उनकी कमी बेतहाशा खलती है। उन्‍हें याद करते  हुए फॉलोअप आपके लिए तीन युवा लेखकों के संस्मरण साझा कर रहा है।–संपादक

 

जब राजेन्द्र यादव ने जेब से निकाले 5 रुपये, शैलेश मटियानी ने कहा कंजूस के पैसे हैं रख लो: अमित मिश्रा
 

झारखंड-बिहार बेस्‍ड पत्रकार अमित मिश्रा लिखते हैं: वाक्या भागलपुर जिला हिंदी साहित्य सम्मलेन के आठवें अधिवेशन से जुड़ा है। शहर के नया बाजार स्थित भगवान पुस्तकालय परिसर में आयोजित इस कार्यक्रम में हिंदी साहित्य की पत्रिका हंस के संपादक राजेन्द्र यादव, लब्धप्रतिष्ठित विद्वान शैलेश मटियानी, जानी मानी लेखिका अर्चना वर्मा, अवधनारायण मुद्गल  जैसे हिंदी साहित्य के दिग्गज विद्वानों का जमावड़ा हुआ था। आयोजन में मैं भी अपने दादाजी रामजी मिश्र ‘मनोहर’ (अब स्वर्गीय) के साथ शामिल था।  कार्यक्रम के आयोजक और भागलपुर हिंदी साहित्य सम्मेलन के तत्कालीन महामंत्री डॉ विष्णु किशोर झा बेचन (अब स्वर्गीय) भी मुझसे अपार स्नेह रखते थे। इस वजह से कार्यक्रम के किसी भी स्थल पर आने जाने की मुझे पूरी छूट थी। बचपन से हिंदी साहित्य के प्रति आकर्षण की वजह से मैं सभी लेखकों के ऑटोग्राफ इकठ्ठा करने में लगा था। एक दिन रात के भोजन से पहले सबका जमावड़ा पुस्तकालय के पिछले हिस्से में बाबा (बेचन जी को मैं इसी संबोधन से बुलाता था) के कार्यालयनुमा कमरे में था। मैं उनका ऑटोग्राफ लेने जा पहुंचा।

देखा तो शैलेश मटियानी और राजेन्द्र यादव आमने सामने बैठे हुए थे। जैसे ही मैंने ऑटोग्राफ बुक मटियानी जी की तरफ बढाई उन्होंने बड़े प्यार से अपने पास बिठाकर मेरा परिचय पूछा और अपना हस्ताक्षर दिया। फिर बारी राजेन्द्र यादव की तरफ जाने कि आई, जैसे उनके पास पहुंचा उन्होंने एक कविता सुनाने को कहा। मैंने फट से अपनी हिंदी की किताब से याद की हुई हरिवंश राय बच्चन की ‘आ रही रवि कि सवारी' शीर्षक कविता सुना डाली। राजेन्द्र यादव ने ऑटोग्राफ बुक पर अपना हस्ताक्षर दिया और जेब से पांच रुपये का नोट निकालकर और मेरे हाथ पर रख दिया। मुझे पैसे लेने में संकोच हुआ तो पीछे से मटियानी जी ने कहा कि रख लो बेटा ये बड़े कंजूस आदमी हैं। इनसे पैसे निकलवाना टेढ़ी खीर है। बड़ी मुश्किल से पांच रुपये का नोट निकला है ये नोट बहुमूल्य है। दो दिनों तक चले इस कार्यक्रम में गजब का आनन्द आया. संयोग से आज उसी शहर में हूँ। हिंदी साहित्य के उन हस्ताक्षर की स्मृतियाँ अब भी जीवंत हैं।

हिंदी साहित्य में वाद-विवाद और संवाद को स्पेस देने वाले राजेंद्र यादव: सईद अय्यूब

दिल्‍ली वासी युवा कहानीकार सईद अय्यूब कहते हैं: राजेंद्र यादव जी से व्यक्तिगत परिचय का सिलसिला उनके जीवन के अंतिम चरण में ही शुरू हुआ और अभी यह सिलसिला और प्रगाढ़ होता कि उससे पहले ही उन्होंने हम सबसे विदाई ले ली।पर उनके अंतिम साँस लेने से पहले के दो वर्षों में जितना भी मिलना-मिलाना हुआ, वह बहुत ही आत्मीय था। वे ज़िंदगी को जीने के जिस जज़्बे से लबरेज़ थे, वह बिरलों को ही मिलता है। 

आप उनसे सहमत या असहमत हो सकते हैं, उनके व्यक्तिगत जीवन के विभिन्न पहलुओं से प्यार या नफ़रत कर सकते हैं या तटस्थ रह सकते हैं, पर हिंदी साहित्य में वाद-विवाद और संवाद का जितना स्पेस उन्होंने पैदा किया, धार्मिक कट्टरपन और रूढ़ियों से वे जिस तरह से लड़े और तमाम विवादों के बावजूद हिंदी की महत्वपूर्ण पत्रिका 'हंस' का जिस तरह से उन्होंने संपादन और संचालन किया, उसके लिए उन्हें याद किया ही जाना चाहिए। मैं तो उन्हें इसलिए भी याद करूँगा कि 'खुले में रचना' के आठवें आयोजन की उन्होंने अध्यक्षता की, उसमें अपनी तीन लघु कहानियों का पाठ किया और श्रोताओं से संवाद किया। चलते-चलते उन्होंने मुझे 'हंस' के लिए अपनी एक कहानी भेजने के लिए कहा। दुर्भाग्य से उनके इस आदेश का पालन आज तक नहीं कर पाया।

 

राजेन्द्र जी आज हमारे बीच होते तो 92 साल के होते: अभिषेक कश्यप

धनबाद के युवा कला समीक्षक व लेखक अभिषेक कश्यप लिखते हैं: आज हम सबके अत्यंत प्रिय राजेन्द्र जी का जन्मदिन है। राजेन्द्र जी आज हमारे बीच होते तो 92 साल के होते और हम हमेशा की तरह बड़े धूमधाम से उनकी वर्षगांठ मनाते हुए उन्हें ‘शतक’ पूरा करने की बधाइयां और शुभकामनाएं दे रहे होते। अफसोस कि ऐसा हो नहीं सका … फिर भी उन्होंने एक भरपूर  ज़िन्दगी जी। ‘नयी कहानी’ के अगुआ कथाकार राजेन्द्र जी ने अपनी कहानियों और बहुचर्चित उपन्यास ‘सारा आकाश’ के जरिये न केवल हिंदी कथा-साहित्य को समृद्घ किया बल्कि अपनी दूसरी पारी में … ‘हंस’ के संपादन के जरिये कहानी को केंद्रीय विद्या के रूप में स्थापित करने के साथ-साथ अपने समय-समाज के कई ज्वलंत विमर्शों  को, हाशिये पर पड़ी आवाजों को केन्द्र में लाने में भी अहम भूमिका निभायी।

हिंदी साहित्य के ‘विख्यात’, ‘प्रख्यात’, ‘प्रसिद्ध ’ नामधारियों के लिए जहां ‘वैचारिक लोकतंत्र’ सिर्फ लिखने और बोलने तक सीमित रहा है, वहीं राजेन्द्र जी ने इसे पूरी निष्ठा से अपने व्यवहार में अपनाया। राजेन्द्र जी के सान्निध्य में दरियागंज स्थित ‘हंस’ कार्यालय में शाम की जमनेवाली यादगार महफिलों को भला कौन भूल सकता है ! … जहां नये-नवसिखुए लेखकों तक से राजेन्द्र जी एकदम बराबरी के स्तर पर वाद-संवाद करते थे। ‘हंस’ की इन अंतरंग बैठकियों में न वरिष्ठ-कनिष्ठ का भेदभाव होता था, और ‘विख्यात’, ‘प्रख्यात’, ‘प्रसिद्ध’ या ‘मूर्धन्य’ होने के आतंक की तो कोई गुंजाइश ही नहीं थी। शायद इसी वजह से राजेन्द्र जी अपने पीछे एक गहरा शून्य छोड़ गये हैं, जिसकी भरपायी सम्भव नहीं लगती।