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Tryst With Destiny: अन्याय की छवियाँ, मुक्ति के अहसास

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अभिषेक श्रीवास्तव, दिल्ली: 

न नारेबाजी, न मेला-जुटान। असल बात है बात को कह जाना। बिना कुछ खास कहे। ये बात सभी दृश्य कलाओं पर लागू होती है। लंबे समय बाद बहुत कुछ कहे बिना बहुत कुछ कह जाने की सिद्ध कला का मुज़ाहिरा कराती महज चार एपिसोड की एक सीरीज़ सोनी पर आयी है- Tryst With Destiny यानि नियति से साक्षात्कार। जाहिर है, ये तीन शब्द सुनते ही नेहरू जी का पहला भाषण याद आता है आधी रात को। ये सिनेमा भी उसी भाषण से खुलता है और बीते सत्तर साल में अलग-अलग वर्ग-जाति के साथ जुड़ी नाइंसाफ़ियों के रास्ते उनकी नियति से हमारा साक्षात्कार कराता है। 

एक पूंजीपति, एक दलित, एक सिपाही- तीन क्लास और अलग-अलग कास्ट के अपने-अपने दुख कहीं जाकर मिलते हैं। सबकी मुक्ति अपने-अपने ढंग से होती है। यह मुक्ति अंतिम नहीं है। मुक्ति का एहसास ज्यादा है। मनुष्य ही नहीं, मोर, शेर, मछली, बरगद का पेड़, ये सब भी बराबर के किरदार हैं इस सिनेमा में। मनुष्यों की नियति के बिम्ब जैसे। मनुष्य और प्रकृति के बीच के द्वन्द्व को दर्शाते हुए। बीते सात दशक में हमने कितने किस्म के टकराव और अन्याय पैदा किए हैं और नेहरू जी का सपना कैसे चौतरफा नाकाम हो चुका है, इसकी कहानी परस्पर जुड़ते चार अंकों में आप देख सकते हैं। 

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आशीष विद्यार्थी, विनीत सिंह, अमित सियाल, जयदीप अहलावत, पाओलोमी घोष, एक से एक कलाकार हैं।  विद्यार्थी तो खैर पके हुए कलाकार हैं, उनके बारे में क्या कहा जाए। कैमरा का जबरदस्त काम है, बैकग्राउंड स्कोर उत्कृष्ट है। आखिरी कहानी जितनी भी है, पर्याप्त लगती है। गंगा में बरसों बाद दिखी डॉल्फिन, शहर के चौराहे पर दो मोर, कटता बरगद और गाँव में पिंजड़े से आजाद हुआ नरभक्षी शेर सब के सब अंत में मनुष्य दिखने लगते हैं। मनुष्य भी पशु से कुछ ज्यादा नहीं रह जाता। 

 

'जय भीम' की मैंने आलोचना की थी पिछली पोस्ट में। कुछ अहिन्दुओं की भावनाएं काफी तेज़ आहत हुई थीं। किसी ने मुझे सीधे गाली खिलवाने का प्रबंध कर दिया। किसी ने चुपके से तिरछे दे मारा। मुझे लगता है हम सब का मूल संकट सांस्कृतिक है, राजनीतिक नहीं। संस्कार बहुत बुनियादी चीज है, खासकर साहित्य-कला आदि के मामले में। सारा दुख-सुख वहीं से आता है। उन सभी लोगों को Tryst With Destiny देखनी चाहिए जिन्हें मेरे लिखे से बुरा लगा था। उन्हें समझना चाहिए कि रचने का एक शऊर होता है। हर चीज में आदमी की पूंछ नहीं देखी जाती। संदर्भ के लिए भर्तृहरि-नीति पढ़िए। 

अगर वाकई पूंछ ही देखने की जिद है, तो इस सिरीज़ में दूसरा एपिसोड जरूर देखिए दलित परिवार वाला- इसका महज आधा घंटा ढाई घंटे की 'जय भीम' पर बहुत ज्यादा भारी है। 'मुक्काबाज़' से दर्शकों में अपनी पहली छवि बनाने वाले विनीत सिंह का मुखर मौन इस फिल्म के निर्देशक प्रशांत नायर की अप्रतिम उपलब्धि है। यहाँ एक दलित को अपनी मुक्ति के लिए किसी न्यायालय, किसी वकील और किसी एनजीओ की जरूरत नहीं है।

 

 

(देश के चंद गंभीर पत्रकारों में शुमार अभिषेक ने कई मीडिया संस्थानों में काम किया। उनका जनपथ ब्लॉग बहुत चर्चित रहा है। उनकी चुनिंदा रिपोर्टिग पर एक किताब भी छप चुकी है। संप्रति दिल्ली में रहकर स्वतंत्र लेखन। )

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।