श्रीनिवास, रांची:
भारत के अंतिम मुगल सम्राट और देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के नायक बहादुर शाह ज़फ़र (24 अक्टूबर 1775-7 नवंबर 1862) को कल से याद किया जा रहा है। क्योंकि कुछ लोग सात नवंबर तो कुछ लोग आठ नवंबर को उनकी पुण्यतिथि मानते हैं। ख़ैर। इससे उनके नायक्तव पर अंतर नहीं पड़ता। कहने को तो वह 1837 में बादशाह बनाए गए, लेकिन तब तक देश के काफी बड़े इलाके पर अंग्रेजों का कब्जा हो चुका था। 1857 में क्रांति की चिंगारी भड़की तो सभी विद्रोही सैनिकों और राजा-महाराजाओं ने उन्हें हिंदुस्तान का सम्राट माना और उन्होंने भी अंग्रेजों को खदेड़ने का आह्वान किया। लेकिन 82 बरस के बूढ़े बहादुर शाह जफर की अगुवाई में लड़ी गई यह लड़ाई कुछ ही दिन चली और अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया. उन पर मुक़दमा चलाया गया और उन्हें रंगून निर्वासित कर दिया गया, जहां उन्होंने अंतिम सांस ली।
रंगून में ही उन्होंने लिखा था- '...कितना है बदनसीब 'ज़फर' दफ्न के लिए, दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में...।' कितना दर्दनाक सच था यह... इतिहासकार हरबंस मुखिया के मुताबिक 'बहादुर शाह ज़फ़र चाहते थे कि उन्हें दिल्ली के महरौली में दफ़्न किया जाए, लेकिन उनकी आख़िरी इच्छा पूरी नहीं हो पाई थी।' क्या भारत सरकार और हम भारतीयों का फर्ज नहीं है कि उनकी अंतिम इच्छा को, प्रतीकात्मक रूप में ही सही, पूरी करें। कम से कम उनकी कब्र को दिल्ली में स्थानांतरित कर उनकी याद में एक छोटा-सा भी स्मारक तो बनाया ही जा सकता है।
आश्चर्यजनक और शर्मनाक सच यह है कि आजाद भारत कि किसी सरकार ने इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किया।
इसलिए इस सरकार से उम्मीद भी कैसे की जा सकती है। खास कर उसके और उसके उन्मादी समर्थकों के अंदाज को देखते हुए। मगर सनद रहे कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी वर्ष सितंबर, 2017 में म्यांमार के अपने दो दिन के दौरे पर बहादुर शाह जफ़र की मजार पर दर्शन के लिए गए थे। नेताजी सुभाषचंद्र बोस, जिनकी आजाद हिंद फौज और 'निर्वासित आजाद भारत सरकार' का मुख्यालय रंगून में ही था, ने भी जफर की मजार पर जाकर मरहूम सम्राट से भारत की आजादी के संघर्ष में सफलता के लिए आशीर्वाद लिया था।
2017 आज स्थिति एकदम बदल चुकी है। सरकार ही क्यों, अब तो किसी भी दल और संगठन के लिए यह कोई मुद्दा नहीं है। किसी को भी लग सकता है कि अब इस बात को उठाने का कोई अर्थ नहीं है। लेकिन अपने इतिहास और अपने नायकों को इस तरह भूल जाना एक जिंदा देश होने का सबूत तो नहीं ही है। उल्लेखनीय है कि आज भी '1857 सहित उसके पहले और बाद में देश के लिए बलिदान देने वाले शहीदों के वंशजों/ परिजनों की बदहाली की बात की जाती है। इसके लिए सरकार को कोसा जाता है। और एक जानकारी के अनुसार बहादुर शाह जफर के वंशज आज फटेहाल जिंदगी जी रहे हैं। उनकी सुध शायद ही कोई लेता है!
नेट पर 60 साल की सुल्ताना बेगम की जानकारी मिली। वे बहादुर शाह जफर की पौत्रवधू हैं. अपनी शाही विरासत के बावजूद उन्हें हर महीने मात्र 6,000 रुपये की पेंशन मिलती है. वैसे मेरी समझ से यह नीतिगत मामला है। इसके पहले भी मैं यह सवाल कर चुका हूं कि किसी शहीद के बाद की कितनी पीढ़ियों की देखभाल, उनके जीवन यापन का खर्च सरकार को उठाना मुनासिब है? लेकिन 'किसी' शहीद या देशभक्त और बहादुर शाह जफर में थोड़ा अंतर तो है ही। उनके या किसी भी शहीद के वंशज, आम नागरिक की तरह ही ढंग से सम्मानजनक जिंदगी जी सकें, यह सुनिश्चित करना तो सरकार का दायित्व है ही। मगर मैं उनके वंशजों की बात नहीं कर रहा। मुझे लगता है कि बहादुर शाह जफर को आजाद भारत में मरणोपरांत जो सम्मान मिलना चाहिए था, वह नहीं मिला है। इस तरह हम 1857 की क्रांति की अगुवाई करने वाले इस नायक के कर्जदार हैं।
(जन-सरोकार से जुड़े लेखक झारखंड-बिहार के वरिष्ठ पत्रकार हैं। जेपी आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। प्रभात खबर से भी संबंद्ध रहे। संप्रति स्वतंत्र लेखन।)
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