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41वीं पुण्यतिथि पर याद-ए-रफ़ी: मुझको मेरे बाद ज़माना ढूंढेगा....

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फ़ैसल रहमानी, गया:

एक ऐसा नाम जिसे दुनिया मोहम्मद रफ़ी या रफ़ी साहब के नाम से बुलाती है, हिन्दी सिनेमा के बेहतरीन प्लेबैक गायकों में से एक थे। अपनी आवाज़ की मिठास और ज़बरदस्त रेंज की वजह कर उन्होंने अपने समकालीन गायकों के बीच अलग पहचान बनाई। इन्हें शहंशाह-ए-तरन्नुम भी कहा गया। उनकी आवाज़ ने अपने आगामी दिनों में कई गायकों को प्रेरित किया। इनमें सोनू निगम, एसपी बाल सुब्रमण्यम, मोहम्मद अज़ीज़, शब्बीर कुमार, उदित नारायण आदि का नाम उल्लेखनीय है। हालांकि इनमें से कईयों की अब अपनी अलग पहचान है।1940 के दशक से शुरू कर 1980 तक इन्होंने कुल 26,000 गाने गाए। इनमें हिन्दी गानों के अलावा ग़ज़ल, भजन, देशभक्ति गीत, क़व्वाली, त्योहारों के गीत तथा अन्य भाषाओं में गाए गीत शामिल हैं। आज भी हर धार्मिक आयोजन पर रफ़ी साहब के गीत बजते हैं। शादी-ब्याह तो बिना तो रफ़ी साहब के गीतों के अधूरे हैं। वहीं, हर राष्ट्रीय त्यौहार पर तो रफ़ी साहब की जोशीली आवाज़ फ़िज़ां गूंजती हुई सुनाई देती है। रफ़ी साहब जितने बेहतरीन गायक थे उतने ही बेहतरीन इंसान भी। वो न किसी भी नए कलाकार को अपने आवाज़ देने में कोई संकोच करते थे और न कॉमेडियन को इज़्ज़त बख़्शने में।   

सफ़र दर सफ़र कामयाबी के नाम 

मोहम्मद रफ़ी साहब का पहला गीत एक पंजाबी फ़िल्म गुल बलोच के लिए था जिसे उन्होंने श्याम सुंदर के संगीत निर्देशन में 1944 में गाया था। सन 1946 में मोहम्मद रफ़ी साहब ने बम्बई आने का फैसला किया। उन्हें संगीतकार नौशाद  ने पहले आप नाम की फ़िल्म में गाने का मौक़ा दिया नौशाद साहब के संगीत निर्देशन में गीत तेरा खिलौना टूटा बालम (फ़िल्म : अनमोल घड़ी, 1946) से रफ़ी साहब को पहली बार हिन्दी फ़िल्म जगत में मक़बूलियत मिली। इसके बाद शहीद, मेला तथा दुलारी में भी रफ़ी साहब ने गाने गाए जो बहुत मशहूर हुए। 1951 में जब नौशाद फ़िल्म बैजू बावरा के लिए गाने बना रहे थे तो उन्होंने अपने पसंदीदा गायक तलत महमूद से गवाने का सोचा था। कहा जाता है कि उन्होंने तलत महमूद को सिगरेट पीते देख लिया और फिर अपना मन बदल लिया। इसके बाद उन्होंने रफ़ी साहब से गावाने का फ़ैसला किया। बैजू बावरा के गानों ने रफ़ी साहब को बेहतरीन गायक के रूप में स्थापित कर दिया। इसके बाद नौशाद ने रफ़ी साहब को अपने निर्देशन में कई गीत गाने को दिए। लगभग इसी दौरान संगीतकार जोड़ी शंकर-जयकिशन को उनकी आवाज़ पसंद आई और उन्होंने भी रफ़ी साहब से गाने गवाना शुरू कर दिया। शंकर-जयकिशन उस वक़्त राज कपूर के पसंदीदा संगीतकार थे, पर राज कपूर अपने लिए सिर्फ़ मुकेश की आवाज़ पसन्द करते थे। बाद में जब शंकर-जयकिशन के गानों की मांग बढ़ी तो उन्होंने लगभग हर जगह रफ़ी साहब का इस्तेमाल किया। यहां तक कि कई बार राज कपूर के लिए भी रफ़ी साहब ने गाया।

जल्द ही संगीतकार सचिन देव बर्मन तथा उल्लेखनीय रूप से ओपी नैयर को रफ़ी साहब की आवाज़ बहुत रास आई और उन्होंने उनसे गवाना शुरू किया। ओपी नैयर का नाम इसमें क़ाबिल-ए-ग़ौर रहेगा क्योंकि उन्होंने अपने निराले अंदाज में रफ़ी साहब और आशा भोंसले की जोड़ी का काफ़ी इस्तेमाल किया। उनकी खनकती धुनें आज भी उस ज़माने के अन्य संगीतकारों से अलग प्रतीत होती हैं। उनके निर्देशन में गाए गानों से रफ़ी साहब को बहुत मक़बूलियत मिली। उसके बाद रवि, मदन मोहन, गुलाम हैदर, जयदेव, सलिल चौधरी, उषा खन्ना, एसएन त्रिपाठी, एन दत्ता, रौशन वग़ैरह संगीतकारों की पहली पसंद बन गए रफ़ी साहब।

कविता और संगीत से अव्वल, सुर को जिताने वाले

रफ़ी साहब ऐसी मेलोडी रचते थे कि मिश्री की मिठास शरमा जाए। सुनने वाले के कानों में मोगरे के फूल झरने लगे। सुर जीत जाए और अल्फ़ाज़ और शायरी पीछे चली जाए। मेरी यह बात अतिरंजित लग सकती है आपको लेकिन रफ़ी साहब का भावलोक है ही ऐसा। आप जितना उसके पास जाएंगे आपको वह एक पाक साफ़ संसारी बना कर ही छोड़ेगा। मोहम्मद रफ़ी साहब को महज़ एक प्लेबैक सिंगर कह कर हम वाक़ई एक बड़ी भूल करते हैं। दरअसल वह महज़ एक आवाज़ नहीं, गायिकी की पूरी रिवायत थे। सोचिए तो सही सत्तर साल से ज़्यादा अरसे सुनी जा रही ये आवाज़ न जाने किस-किस मेयार से गुज़री है। पंजाब के एक छोटे से क़स्बे से निकल कर मोहम्मद रफ़ी नाम का किशोर मुंबई आता है। कोई गॉड फ़ादर नहीं। कोई ख़ास पहचान नहीं। सिर्फ़ संगीतकार नौशाद साहब के नाम का एक सिफ़ारिशी ख़त और अपनी क़ाबिलियत के बूते पर मोहम्मद रफ़ी देखते-देखते पूरी दुनिया का एक जाना-पहचाना नाम बन जाता है। इसमें क़िस्मत के करिश्मे का हाथ कम और मो. रफ़ी साहब की अथक मेहनत का कमाल ज़्यादा है। 

जिस तरह के भाव और बिना आसरे की बसर मो. रफ़ी साहब ने की वह रोंगटे खड़ी कर देने वाली दास्तान है। उस पर फ़िर कभी लेकिन ये तो बताना भी चाहूंगा कि मो. रफ़ी साहब की ज़िन्दगी में एक दिन ऐसा भी हुआ कि रिकॉर्डिंग के बाद सब चले गए हैं और रफ़ी साहब स्टूडियो के बाहर देर तक खड़े हैं। तक़रीबन दो घंटे बाद तमाम साज़िंदों का हिसाब-किताब करने के बाद नौशाद साहब स्टूडियो के बाहर आकर रफ़ी साहब को देख कर चौंक गए हैं। पूछा तो बताते हैं कि घर जाने के लिए लोकल ट्रेन के किराए के पैसे नहीं है। नौशाद साहब हक्का-बक्का। अरे भाई भीतर आकर मांग लेते। रफ़ी साहब का जवाब : अभी काम पूरा हुआ नहीं और अंदर आकर पैसे मांगूं? हिम्मत नहीं हुई नौशाद साहब। नौशाद की आंखें छलछला गईं। सोचिए, किस तरह के इंसान थे रफ़ी साहब। और आज किसी रियलिटी शो में थोड़ा नाम कमा लेने वाले गायक कैसे इतराते हैं। लगता है भद्रता और शराफ़त का वह दौर रफ़ी साहब के साथ ही विदा हो गया।

सहगल के बाद रफ़ी एकमात्र नैसर्गिक गायक

आइए, अब रफ़ी साहब की गायिकी के बारे में बात हो जाए। सहगल साहब के बाद मोहम्मद रफ़ी एकमात्र नैसर्गिक गायक थे। उन्होंने अच्छे ख़ासे रियाज़ के बाद अपनी आवाज़ को तराशा था। जिस उम्र में वे शुरू हुए उसके बारे में जान कर हैरत होती है कि कब उन्होंने सीखा? कब रियाज़ किया और कब की इतनी सारी और बेमिसाल रेकॉर्डिंग्स? संगीतकार बसंत देसाई की बात याद आ गई। वे कहते थे - रफ़ी साहब कोई सामान्य इंसान नहीं थे। वह तो एक शापित गंधर्व थे जो किसी मामूली सी ग़लती का पश्चाताप करने इस मृत्युलोक में आ गए। बात रूपक में कही गई है लेकिन रफ़ी साहब की शख़्सियत पर एकदम फ़बती है।

आज तो रफ़ी साहब, किशोर दा और मुकेश दा गायिकी परम्परा के ढेरों नक़ली वर्ज़न पैदा हो गए हैं। लेकिन जिस दौर में रफ़ी साहब शुरू हुए तब केएल सहगल, पंकज मलिक, केसी डे, जीएम दुर्रानी जैसे चंद नामों को छोड़ कर पार्श्वगायन में कोई उल्लेखनीय परम्परा नहीं थी। हां, जो अच्छा था वह यह कि बहुत क़ाबिल म्यूज़िक डायरेक्टर्स थे जो गायकों को एक लाजवाब घड़ावन देते रहे। रफ़ी साहब को भी श्यामसुंदर, नौशाद, ग़ुलाम मोहम्मद, मास्टर ग़ुलाम हैदर, खेमचंद प्रकाश, हुस्नलाल भगतराम जैसे गुणी मौसीक़ारों का सान्निध्य मिला जो रफ़ी साहब के करियर में एक महत्वपूर्ण कड़ी साबित हुए। रफ़ी साहब ने क्लासिकल म्यूज़िक का दामन कभी नहीं छोड़ा। यही वजह है कि रफ़ी साहब को लगभग पहली बड़ी कामयाबी देने वाली फ़िल्म बैजू बावरा में उन्होंने राग मालकौस (मन तरपत हरि दर्शन को आज...) और राग दरबारी (ओ दुनिया के रखवाले...) को जिस अधिकार और ताक़त के साथ गाया वह इस महान गुलूकार के हुनर की पुष्टि करने के लिये काफ़ी है। रफ़ी साहब ने जो सबसे बड़ा काम पार्श्वगायन के क्षेत्र में किया वह यह कि उन्होंने अपने आप को कभी भी टाइप्ट नहीं होने दिया। ख़ुशी, ग़म, मस्ती, गीत, ग़ज़ल, लोक-संगीत, वैस्टर्न सभी स्टाइल में गाया और बख़ूबी गाया।

छिहत्तर साल बाद भी उनके गीत पुराने नहीं पड़े और यक़ीन से कह सकता हूं कि सौ साल बाद भी नहीं पड़ेंगे। अल्फ़ाज़ की साफ़-शफ़्फ़ाफ़ अदायगी, शायरी के मर्म को समझने वाला दिल, संगीत को गहराई से जानने की समझ और एक ऐसा विलक्षण दिमाग़ जो संगीतकार और कम्पोज़िशन की रूह तक उतर जाता हो और जैसा चाहा गया उससे ज़्यादा डिलिवर किया। इस दुनिया से चले जाने के बाद भी रफ़ी साहब की गायिकी का जलवा क़ायम है। क्योंकि रफ़ी साहब शब्द को गाते हुए भी शब्द और समय के पार की गायिकी के कलाकार थे। इसीलिए उनके गीतों की ताब और चमक बरक़रार है। रफ़ी साहब को सुनने का सबसे अच्छा तरीक़ा यह है कि हम उन्हें सुनें और चुप हो जाएं। ऐसा चुप हो जाना ही सबसे अच्छा बोलना है। सादगी से रहने और गाने वाले रफ़ी साहब ने ऐसा गाया है जैसे कोई ख़ुशबू का ताजमहल खड़ा कर दे।

 

आसान नहीं था "मो. रफ़ी" से "रफ़ी साहब" बनना 

रफ़ी साहब बंबई आने के बाद डोंगरी की एक चॉल में और उसके बाद किताब मंज़िल भिंडी बाज़ार में रहे। ये ज़माना वो था जब एक्टर एक्टिंग भी करते और गाते भी थे। पर रफ़ी साहब तो सिर्फ़ गाने के लिए आए थे। उन दिनों माहौल ऐसा नहीं था। हत्ता कि मजबूरी में कुछ फ़िल्मों में एक्टिंग भी की। उन्होंने शुरुआती दौर में बहुत सी परेशानियां उठाईं पर रफ़ी साहब सब्र और मेहनत तो लाहौर से ही सीख कर आए थे। रफ़ी साहब तक़रीबन रोज़ाना डेढ़ दो घंटे पैदल चल कर रिकॉर्डिंग स्टूडियो पहुंचते थे। वो भिंडी बाज़ार  से पैदल चल कर दादर जाते थे। दादर और माहिम उन दिनों फ़िल्मी सरगर्मियों के मरकज़ थे। दादर जाने के लिए रोज़ डेढ़-दो घंटे पैदल चलते। ये कोई एक दिन का काम नहीं था। लम्बे अरसे ऐसा ही चला इसीलिए कहता हूं "आसान नहीं था  मो. रफ़ी से "रफ़ी साहब" बनना।

 

सफ़र में आए कई हसीन मक़ाम

1950 के दशक में शंकर-जयकिशन, नौशाद तथा सचिनदेव बर्मन ने रफ़ी साहब से उस समय के बहुत लोकप्रिय गीत गवाए। यह सिलसिला 1960 के दशक में भी चलता रहा। संगीतकार रवि ने मोहम्मद रफ़ी का इस्तेमाल 1960 के दशक में किया। 1960 में फ़िल्म चौदहवीं का चांद के शीर्षक गीत के लिए रफ़ी को अपना पहला फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार मिला। इसके बाद घराना (1961), काजल (1965), दो बदन (1966) तथा नीलकमल (1968) जैसी फ़िल्मों में इन दोनों की जोड़ी ने कई यादगार नग़में दिए। 1961 में रफ़ी साहब को अपना दूसरा फ़िल्मफ़ेयर आवार्ड फ़िल्म ससुराल के गीत तेरी प्यारी प्यारी सूरत को... के लिए मिला। संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने अपना आग़ाज़ ही रफ़ी साहब के स्वर से किया और 1963 में फ़िल्म पारसमणि के लिए बहुत सुन्दर गीत बनाए। इनमें सलामत रहो... तथा वो जब याद आए... (लता मंगेशकर के साथ) उल्लेखनीय है। 1965 में ही लक्ष्मी-प्यारे के संगीत निर्देशन में फ़िल्म दोस्ती के लिए गाए गीत चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे... के लिए रफ़ी साहब को तीसरा फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला। 1965 में उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री पुरस्कार से नवाज़ा।

1965 में संगीतकार जोड़ी कल्याणजी-आनंदजी द्वारा फ़िल्म जब जब फूल खिले के लिए संगीतबद्ध गीत परदेसियों से न अंखियां मिलाना... लोकप्रियता के शीर्ष पर पहुंच गया था। 1966 में फ़िल्म सूरज के गीत बहारों फूल बरसाओ... बहुत मशहूर हुआ और इसके लिए उन्हें चौथा फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड मिला। इसका संगीत शंकर-जयकिशन ने दिया था। 1968 में शंकर जयकिशन के संगीत निर्देशन में फ़िल्म ब्रह्मचारी के गीत दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर... के लिए उन्हें पाचवां फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड मिला।

मोहम्मद रफ़ी हर तरह के नशे से दूर रहने वाले तथा शर्मीले स्वभाव के आदमी थे। आज़ादी के समय विभाजन के दौरान उन्होंने भारत में रहना पसंद किया। उन्होंने बेगम बिलक़ीस बानो से शादी की। उनके कुल तीन बेटियां और चार बेटे हुए। मोहम्मद रफ़ी साहब को उनके ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ के लिए भी जाना जाता है। वो बहुत हंसमुख और दरिया दिल इंसान थे तथा हमेशा सबकी मदद के लिए तैयार रहते थे। कई फ़िल्मी गीत उन्होंने बिना पैसे लिए या बेहद कम पैसे लेकर गाए। अपने शुरुआती दिनों में संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के लिए उन्होंने बहुत कम पैसों में गाया था। 

गानों की रॉयल्टी को लेकर लता मंगेशकर के साथ उनका विवाद भी उनकी दरियादिली का सूचक है। उस समय लताजी का कहना था कि गाना गाने के बाद भी उन गानों से होने वाली आमदनी का एक हिस्सा (रॉयल्टी) गायकों तथा गायिकाओं को मिलना चाहिए। रफ़ी साहब इसके ख़िलाफ़ थे और उनका कहना था कि एक बार गाने रिकॉर्ड हो गए और गायक-गायिकाओं को उनकी फ़ीस का भुगतान कर दिया गया हो तो उनको और पैसों की आशा नहीं करनी चाहिए। इस बात को लेकर दोनों महान कलाकारों के बीच मनमुटाव हो गया। लता ने रफ़ी साहब के साथ गाने से मना कर दिया और बरसों तक दोनों का कोई युगल गीत नहीं आया। बाद में अभिनेत्री नरगिस के कहने पर ही दोनों ने साथ गाना चालू किया। फ़िल्मों के कुछ जानकार कहते हैं कि फ़िल्म ज्वैल थीफ़ के गीत दिल पुकारे... से दोबारा साथ गाना शुरू किया और कुछ का मानना है कि रफ़ी साहब और लता जी फ़िल्म प्रोफ़ेसर के गीत आवाज़ दे के हमें तुम बुलाओ.... से एक साथ फिर से गाना शुरु किया।

 

लता मंगेशकर और मोहम्मद रफ़ी के बीच मनमुटाव

यह वर्ष 1967 की बात है। निर्माता सुबोध मुखर्जी बना रहे थे फ़िल्म 'शागिर्द'। उन दिनों लता मंगेशकर और मोहम्मद रफ़ी के बीच मनमुटाव चल रहा था। रॉयल्टी के क़िस्से को लेकर दोनों में न केवल बातचीत बंद थी, बल्कि एक दूसरे के साथ गीत गाना भी बंद कर दिया था। ऐसे में जब भी लता-रफ़ी डुएट की बारी आती तो लता की जगह सुमन कल्याणपुर की आवाज़ ली जाती या फिर रफ़ी साहब के बदले महेन्द्र कपूर या मुकेश की। 'शागिर्द' फ़िल्म के कुल 6 गीतों में से 5 गीतों को तो एकल गीतों के रूप में निपटा लिया गया, पर रोमांटिक फ़िल्म में एक भी युगल गीत न हो, यह भी किसी को गवारा नहीं हो रहा था। तय हुआ कि रफ़ी साहब और सुमन कल्याणपुर की ही आवाज़ों में एक युगल गीत रिकॉर्ड कर लिया जाए। तैयारियां होने लगी थीं कि इंडस्ट्री में ख़बर फैल गई कि लता मंगेशकर और मोहम्मद रफ़ी साहब का मनमुटाव ख़त्म हो चुका है। और दोनों एक दूसरे के साथ गाने के लिए अब तैयार हैं। इस ख़बर के फैलते ही संगीतकारों ने जैसे चैन की सांस ली और जैसे एक होड़ सी लग गई लता-रफ़ी के डुएट्स रिकॉर्ड करने की। यह 1967 का ही साल था। इस साल लता-रफ़ी के पुनर्मिलन के बाद जो तीन सर्वाधिक लोकप्रिय गीत रिकॉर्ड हुए, वो थे सचिन देव बर्मन के संगीत में फ़िल्म 'ज्वेल थीफ़' का "दिल पुकारे, आ रे आ रे आ रे....", कल्याणजी-आनन्दजी के संगीत में 'आमने-सामने' फ़िल्म का "कभी रात-दिन हम दूर थे, दिन-रात का अब साथ है...." तथा तीसरा गीत था लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल के निर्देशन में फ़िल्म शागिर्द का "वो हैं ज़रा ख़फ़ा-ख़फ़ा, सो नैन यूं चुराए हैं..."। इन तीनों गीतों के बोलों पर अगर ध्यान दिया जाए तो एहसास होता है कि ये तीनों गीत लता-रफ़ी के पुनर्मिलन या नाराज़गी के क़िस्से की तरफ़ इशारा करते हैं। वाक़ई इत्तेफ़ाक़ की बात है, है ना? बाक़ी दो गीतों का नहीं कह सकते, पर फ़िल्म 'शागिर्द' के इस युगल गीत के बोल इत्तेफ़ाक़न नहीं थे। यह लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल, मजरूह सुल्तानपुरी और सुबोध मुखर्जी के नटखट दिमाग़ की उपज थी। इन्होंने सोचा कि क्यों न लता जी और रफ़ी साहब को थोड़ा छेड़ा जाए, उनकी ज़रा चुटकी ली जाए। उन्हें परेशान करने के लिए ही फ़िल्म की कहानी में एक ऐसा सिचुएशन डाला गया कि जिसमें नायक-नायिका एक दूसरे से ख़फ़ा हैं। मजरूह ने भी पूरा पूरा मज़ा लेते हुए लिख डाला "वो हैं ज़रा ख़फ़ा-ख़फ़ा, सो नैन यूं चुराए हैं के ओ हो...."। 

साल 2005 में रफ़ी साहब को श्रद्धांजलि स्वरूप प्यारेलाल जी जब 'विविध भारती' पर विशेष जयमाला प्रस्तुत करने आए थे तो उसमें इस गीत को बजाते हुए कहा था, मेरे प्यारे फौजी भाइयों, एक मज़ेदार बात बताऊं आपको? फ़िल्म 'शागिर्द' में एक डुएट गाना था 'वो हैं ज़रा ख़फ़ा-ख़फ़ा.... जिसका रिहर्सल होने के बाद जब फ़ाइनल टेक रिकॉर्ड हो रहा था, तब रफ़ी साहब और लता जी दोनों ऐसे मूड में गा रहे थे कि ऐसा लग रहा था कि वो दोनों वाक़ई एक दूसरे से ख़फ़ा हैं। बहुत ही प्यारे ढंग से गाया है दोनों ने"।

1980  तक 26,000 गाने गाए

रफ़ी साहब ने अपने जीवन में कुल कितने गाने गाए, इस पर कुछ विवाद है। 1970 के दशक में गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स ने लिखा कि सबसे अधिक गाने रिकार्ड करने का श्रेय लता मंगेशकर को प्राप्त है, जिन्होंने कुल 25 हज़ार गाने रिकार्ड किया हैं। रफ़ी ने इसका खंडन करते हुए गिनीज़ बुक को एक चिट्ठी लिखी। इसके बाद के संस्करणों में गिनीज़ बुक ने दोनों गायकों के दावे साथ-साथ प्रदर्शित किया और मुहम्मद रफ़ी को 1944 और 1980 के बीच 26 हज़ार गाने रिकार्ड करने का श्रेय दिया। इसके बाद हुई खोज में विश्वास नेरुरकर ने पाया कि लता ने वास्तव में 1989 तक केवल 5,044 गाने गाए थे। अन्य शोधकर्ताओं ने भी इस तथ्य को सही माना है। इसके अतिरिक्त राजू भारतन ने पाया कि 1948 और 1987 के बीच केवल 35,000 हिन्दी गाने रिकार्ड हुए। ऐसे में रफ़ी साहब ने 26,000 गाने गाए इस बात पर यक़ीन करना मुश्किल है, लेकिन कुछ स्रोत अब भी इस संख्या को उद्धृत करते हैं। इस शोध के बाद 1992 में गिनीज़ बुक ने गायन का उपरोक्त रिकार्ड को बुक से निकाल दिया।

स्वर में ओस की बूंद की पाक़ीज़गी पैदा करने वाले मोहम्मद रफ़ी साहब रिकॉर्डिंग ख़त्म होने के बाद कभी नहीं कहते थे कि मैं जाता हूं। 31 जुलाई 1980 को संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल की एक गीत रिकॉर्डिंग करने के बाद रफ़ी साहब बोले “ओके नाऊ आइ विल लीव।“ क्या कोई सोच सकता है उसी दिन आवाज़ का ये जादूगर उसी शाम इस दुनिया को अलविदा कह जाएगा। क्या सूफ़ी और दरवेश के अलावा किसी को मृत्यु जैसी सच्चाई का पूर्वाभास हो सकता है?


पुरस्कार एवं सम्मान

फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड (नामांकित व विजित)

1960 - चौदहवीं का चांद हो या आफ़ताब हो... (फ़िल्म - चौदहवीं का चांद) : विजित

1961 - हुस्नवाले तेरा जवाब नहीं... (फ़िल्म - घराना)

1961 - तेरी प्यारी-प्यारी सूरत को किसी की नज़र ना लगे... (फ़िल्म - ससुराल) : विजित

1962 - ऐ गुलबदन... (फ़िल्म - प्रोफ़ेसर)

1963 - मेरे महबूब तुझे मेरी मुहब्बत की क़सम... (फ़िल्म - मेरे महबूब)

1964 - चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे... (फ़िल्म - दोस्ती) : विजित

1965 - छू लेने दो नाज़ुक होठों को... (फ़िल्म - काजल)

1966 - बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है... (फ़िल्म - सूरज) : विजित

1968 - मैं गाऊं तुम सो जाओ... (फ़िल्म - ब्रह्मचारी)

1968 - बाबुल की दुआएं लेती जा... (फ़िल्म - नीलकमल)

1968 - दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर... (फ़िल्म - ब्रह्मचारी) : विजित

1969 - बड़ी मुश्किल है... (फ़िल्म - जीने की राह)

1970 - खिलौना जानकर तुम तो, मेरा दिल तोड़ जाते हो... (फ़िल्म - खिलौना)

1973 - हमको तो जान से प्यारी है तुम्हारी आंखें... (फ़िल्म - नैना)

1974 - अच्छा ही हुआ दिल टूट गया.... (फ़िल्म - मां बहन और बीवी)

1977 - परदा है परदा... (फ़िल्म - अमर अकबर एंथनी)

1977 - क्या हुआ तेरा वादा... (फ़िल्म - हम किसी से कम नहीं) : विजित

1978 - आदमी मुसाफ़िर है... (फ़िल्म - अपनापन)

1979 - चलो रे डोली उठाओ कहार... (फ़िल्म - जानी दुश्मन)

1979 - मेरे दोस्त क़िस्सा ये क्या हो गया... (फ़िल्म - दोस्ताना)

1980 - दर्द-ए-दिल, दर्द-ए-ज़िगर... (फ़िल्म - क़र्ज़)

1980 - मैने पूछा चांद से... (फ़िल्म - अब्दुल्लाह)

● भारत सरकार द्वारा प्रदत्त

1967 - पद्म श्री

1977 - राष्ट्रीय पुरस्कार - क्या हुआ तेरा वादा... (फ़िल्म : हम किसी से कम नहीं)

इसके अलावा 2001 में रफ़ी साहब को स्टारडस्ट की तरफ़ से "बेस्ट सिंगर ऑफ़ मिलेनियम अवार्ड" से सम्मानित किया गया। वहीं, वर्ष 2013 में सीएनएन-आईबीएन द्वारा कराए गए एक पोल में रफ़ी साहब की आवाज़ को "हिंदी सिनेमा की महानतम आवाज़" घोषित किया गया।

जिन अभिनेताओं के लिए प्लेबैक किया

अशोक कुमार, दिलीप कुमार, देव आनंद, राज कपूर, धर्मेंद्र, राजेंद्र कुमार, गुरुदत्त, सुनील दत्त, आइएस जौहर, ऋषि कपूर, किशोर कुमार, गुलशन बावरा, जगदीप, जीतेंद्र, जॉय मुखर्जी, जॉनी वाकर, तारिक़ हुसैन, नवीन निश्चल, प्राण, परीक्षित साहनी, पृथ्वीराज कपूर, प्रदीप कुमार, फ़िरोज ख़ान, बलराज साहनी, भरत भूषण, मनोज कुमार, महमूद, रणधीर कपूर, राज कुमार, राजेंद्र कुमार, राजेश खन्ना, विनोद खन्ना, विनोद मेहरा, विश्वजीत, सुनील दत्त, संजय ख़ान, संजीव कुमार, शम्मी कपूर, शशि कपूर, किशोर कुमार, ब्रह्मचारी, संजय ख़ान, डेविड, गोविंदा, मिथुन, मोहन चोटी, अमजद ख़ान, क़ादिर ख़ान, शत्रुघ्न सिन्हा, मनमोहन, ओम प्रकाश, प्रेमनाथ, खोसला, गुलशन बावरा, एनटी रामाराव, अक्किनेनी नागेश्वर राव आदि के अलावा कई अंजाने कलाकार।

रफ़ी साहब को "भारत रत्न" क्यों नहीं?

लता भारत रत्न, मोहम्मद रफ़ी साहब क्यों नहीं’? अक्सर यह सवाल रफ़ी साहब के चाहने वाले पूछते हैं, लेकिन इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है। क्यों हमने अपने इस शानदार गायक की उपेक्षा की है ‘भारत रत्न’ तो छोड़िए, सरकार ने उन्हें ‘दादा साहब फ़ाल्के पुरस्कार’ के लायक़ भी नहीं समझा। जबकि उनसे कई जूनियरों को यह पुरस्कार मिल चुका है। गायकी के क्षेत्र में मन्ना डे, पंकज मलिक, लता मंगेशकर और आशा भोंसले उनसे पहले यह पुरस्कार हासिल कर चुके हैं। रफ़ी साहब के बारे में जितना लिखा जाए, वो कम है। उनकी बातें और क़िस्से इतने ज़्यादा हैं कि पूरा का पूरा अख़बार कम पड़ जाए। लिखने वाला सोच में पड़ जाए कि क्या-क्या लिखूं। बहुत सारी ऐसी बातें हैं जो ज़ेहन में रहने के बावजूद नहीं लिख पाया। कई किताबें लिख दूं तो भी रफ़ी साहब के क़िस्से मुकम्मल नहीं होंगे। ऐसे थे हमारे रफ़ी साहब...!

हज़ारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पे रोती है,
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।

 

(लेखक जनसरोकार से जुड़े बिहार के युवा पत्रकार हैं।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।