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अरे मैं चोर नहीं पत्रकार हूं... ओ अखबार वाला हैं.. इतना रात में क्या कर रहे हैं- जानिये आगे क्या हुआ

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मनोज पांडेय, रांची:
आधी रात को जब मैं फोटो खींच रहा था तभी दो आदमी चोर- चोर चिलाकर उठ गये, मैंने कहा अरे भाई मैं चोर नहीं हूं। मैं पत्रकार हूं... तो सामने से आवाज आई क्या-क्या, फिर कहा पत्रकार हूं। उन्होने कहा- वो अखबार वाला हैं। मैने कहा -हां। फिर क्या था। लोग अपनी दुख भरी कहानी बताने लगे। कोई सोये-सोये कह रहा है। कंबल तो लेकर आ जाते। तभी आवाज आई अरे बेटा बोरा है क्या।


 

सरकार से ज्यादा आम लोगों पर भरोसा
ये कहानी उन गरीबों की है, जो राजधानी रांची में सड़क के किनारे फुटपाथ पर अपनी हर रात गुजारते हैं। कोई भीख मांग कर अपनी जिन्दगी जीता है, तो कोई रिक्शा खींच कर, कोई मंदिर के बाहर बैठ कर दान लेता है। ठंड और बरसात की रात इनके लिए सबसे ज्यादा दुखदाई होती है। शहर में गुलाबी ठंड का एहसास होता है। रात में पारा और नीचे चला जा रहा है, लेकिन अब तक ना तो जिला प्रशासन ना ही निगम इस गरीब लोगों की सुध ले रहा है।

 

भैरोव मुंडा बोलते हैं, 30 साल इसी दुकान के सामने सोते हैं। हर साल कोई आम आदमी आकर कंबल, पुराना कपड़ा या स्वेटर दे जाता है। सरकार से अबतक हमको कुछ नहीं मिला। बगल से आवाज आती है, अरे सुत ना ऐकरा की हो ई मन तो खाली अखबार में छाप देते आज तक कुछ होलो, जे आज होतो।

 

हम तो विकलांग हैं, कुछ मदद किजिए
रमेश हांसदा बोलते- बोलते रो पड़ता है। कहता है हम विकलांग है, पर ना तो हमको आज तक साइकल मिला और ना ही सरकारी पेंशन, पैर जितना घसिटते हैं, उतना कमाई होता है। सरकार कौन है हमको मतलब नहीं है, जो खाने को दे देता है वही भगवान है। तभी रात में एक बजे रस्सी बना रहे शख्स ने कहा आप क्या करतें हैं, क्यों ये सब पूछ रहें हैं। जवाब दिया पत्रकार हैं, वे बिना समझे कहा हम तो समझे आप चोर हैं, यहां रात में चोर लोग आकर पौकेट काट कर पैसा ले जाता है।

 

जब मैंने पूछा पुलिस को नहीं बोलते, तो वे आश्चर्य भरी निगाह से देखता है। कहता है बाहर रहते हो का बाबू, मैने कहा नहीं रांची में हीं रहता हूं, तो उनसे कुटिल मुस्कान के बाद अपना मुंह बंद कर लिया और फिर से बोरा फाड कर रस्सी बनाने लगा।

 


 

 

आज तो खाना भी नसीब नहीं हुआ भुकोओ मत
यशोधरा कहती है हम लेटे से यहां पहुंचे तो आज खाना देने वाला भी बाबू चला गया। आज खाना भी नहीं खायें हैं, आप माथा मत खाये, भुकाओ मत।सरकार हो तो लकड़ी और कंबल दो। मैंने पूछा आश्रय गृह में क्यों नहीं रुकते आप लोग, तभी बगल से कुंति की आवाज आई अरे बाबू यहां कहां है, अब बोलोगे इंगलैंड चले जायो, ऐसा थोडे होता है।


 

रात में कई लोग आते हैं खाना खिलाने
रांची के अल्बर्ट एक्का चौक के किनारे आपको हर दिन सैकड़ो की संख्या में सोये गरीब लोग मिल जायेंगे, इन्हे एक राकेश मुंडा और उसके साथी आकार हर दिन खाना देते  हैं, ये सिलसिला पिछले कई सालो से जारी है। वो चुप-चाप अपने दोस्तो के साथ स्कुटी पर आता है और खाना देकर चला जाता है, कभी किसी को बीमार देखकर दवा का पैसा भी देता है।


 

बहुत रात हो गया है आप भी घर जाओ
सेहरा कहती है, मेरा घर है, परिवार भी है, लेकिन मैं यहीं रहती हूं क्योंकि बेटा ने मुझे घर से निकाल दिया है। मैं चुटिया की रहने वाली हूं, बोलते-बोलते भारी आवाज में कहती है, आप घर जाओ बहुत रात हो गई है, और तुमने कुछ पहना भी नहीं है। मैं इनकी कहानी सुनकर वापस चला गया, पूरे रास्ते यही सोचता रहा जिन्दगी कितनी आसान है, लेकिन जिन्दगा रहना कितान मुश्किल है।