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मध्य एशिया का नासूर बन गया है अफगानिस्तान में तालिबान

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प्रेमकुमार मणि, पटना: 

अपने युवा काल में वियतनाम पर अमेरिका के हस्तक्षेप से उपजे हालातों पर साथियों के बीच खूब चर्चा होती थी। 'मेरे नाम तेरे नाम , वियतनाम वियतनाम ' जैसे नारे हमारी जुबान पर होते थे। उत्तरी और दक्षिणी वियतनाम के मामलों को हम तार -तार समझने की कोशिश करते थे । मैं नहीं जानता आज के युवा अफगानिस्तान की घटनाओं से कितना अवगत और संवेदित हैं । कल अफगानी राष्ट्रपति गनी अचानक मुल्क छोड़ कर भाग गए। वहाँ की नागरिक सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया। तालिबान का पूरे देश पर कब्ज़ा हो गया। मेरे जैसे व्यक्ति के लिए यह ऐसी घटना है ,जिससे सचमुच व्यथित हूँ। हमारी दुनिया में क्या कुछ हो रहा है और हम मूक दर्शक हैं। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने इसे अफगान की आज़ादी कहा है और चीन ने भी मौन समर्थन व्यक्त किया है। अमेरिका ने अपनी फौजें हटा ली हैं और आशंका व्यक्त की जा रही है कि तालिबानियों से उनकी कोई गुप् -चुप साँठ -गाँठ थी। मुझे तो यह सब कुछ देख -सुन कर अजीब अनुभव हो रहा है। आखिर हम कैसी दुनिया की तरफ बढ़ रहे हैं ? महाभारत का एक दृश्य याद आ रहा है। द्रौपदी के कपडे उतारे जा रहे हैं। सभी पांडव सिर झुकाए बैठे हैं। अर्जुन भी हैं और भीम भी। धृतराष्ट्र अंधे थे, लेकिन शायद बहरे नहीं थे। अपनी बहू की रुलाई तो सुन रहे होंगे। वह भी चुप बैठे रहे। भीष्म के नाम से ख्यात ब्रह्मचारी देवब्रत भी दरबार में थे। उनकी भी जीभ नहीं हिली। दुर्योधन इतना ताकतवर अथवा निपुण था कि सबकी जुबान बंद थी। गनीमत थी कि उस दुनिया में कोई कृष्ण था। द्रौपदी भी जानती थी कि दुर्योधन के ' तालिबान ' से यदि कोई भिड़ सकता है, तो वह कृष्ण ही है, इसलिए उसने कृष्ण को ही पुकारा। आज अफगान मामले में स्थिति कुछ वैसी ही है। पूरी दुनिया देख रही है कि तालिबानियों ने अफगान को अपने चंगुल में ले लिया है और कहीं से कोई आवाज नहीं आ रही है। तालिबानियों की ' राजनीति ' इतनी पुख्ता है, यकीन करना मुश्किल है। इस ज़माने में कोई कृष्ण भी नहीं है। 

 

एक भयानक आंधी आने वाली है

भाजपा के एक घाघ नेता ने फेसबुक पर पोस्ट किया, जिसमें उन्होंने 1971 के पाकिस्तानी सेना के सरेंडर से अफगानी सेना के सरेंडर की तुलना की।  मैंने इस पर एतराज किया और इसे भारतीय सेना का अपमान बताया। भाजपा नेता ने अपना पोस्ट वापस ले लिया। लेकिन उनकी प्रसन्नता प्रकट हो चुकी थी। यानी अफगान में तालिबान के सत्ता में आने से भाजपा बहुत खुश है। एक तो उसे धर्म की ताकत के वैश्विक होने का प्रमाण मिल रहा है, दूसरे अपने देश में उसकी अपनी प्रासंगिकता रेखांकित होती दिख रही है। उनका खुश होना स्वाभाविक है। लेकिन मेरे जैसे लोग इन मामलों को कैसे लें ? क्या हमें भी मौन रहना चाहिए या फिर खुश होना चाहिए जैसे कि इमरान और भाजपा नेता हो रहे हैं। लेकिन मैं तो सचमुच दुखी हूँ। हतप्रभ भी। जैसे कभी आदिवासी नेता बिरसा मुंडा ने उलगुलान का आह्वान करते हुए  'एक भयानक आंधी आने वाली है' की आशंका व्यक्त की थी, वैसे ही मुझे पूरी दुनिया के तबाह होने की आशंका है। जिस तरह अफगानी जनता को तालिबानियों के हाथ सौंप कर अमेरिका ने कायरता का इतिहास रचा है, वह विश्व की  राजनीति का नया चेहरा स्पष्ट कर रहा है। यदि उसे यही करना था तो अफगान राजनीति में वह कूदा ही क्यों था? सोवियत हस्तक्षेप वाले दौर में यदि अमेरिका ने तालिबान का सहयोग नहीं किया होता तो ये इतने मजबूत नहीं हो सकते थे।

 

भारत की अफगानिस्तान में राजनयिक पराजय

भारत की अफगानिस्तान में बुरी तरह राजनयिक पराजय हुई है। अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में इसने लगभग बाइस हजार करोड़ रूपए खर्च किए। शायद इसके लिए अमेरिकी उकसावा हो। इसके बदले आज उसे केवल अपमान मिला है। तालिबानियों की रूचि सातवीं सदी के इस्लाम और उसकी रूढ़ियों के आधार पर एक समाज -देश बनाना है। जहालत बनाए रखने के लिए कुछ करने की जरुरत नहीं है। औरतों और बच्चों पर बंदिशें उनके आते ही लग चुकी हैं। चीन की नजर वहाँ के खनिज पर है। लाल झंडे के साथ चीन का मार्क्सवादी तालिबान अपने मक़सद में जरूर कामयाब होगा। भारत की राजनयिक स्थिति बदतर होने की आशंका है। चीन, पाकिस्तान के साथ अफगानिस्तान से भी इसकी  शत्रुता स्वाभाविक प्रतीत होती है। ऐसे में इसकी रक्षा ताकत में अधिक बढ़ोत्तरी जरूरी होगी और फलस्वरूप इसकी कल्याणकारी विकास योजनाएं प्रभावित होगीं। यही नहीं चीन का इसपर शिकंजा कसता जाएगा  भारत के चारों तरफ इसके दुश्मन ही दुश्मन नजर आ रहे हैं। यह भयावह स्थिति है। लेकिन इन सब से अलग यह कि दुनिया के कई अन्य छोटे देशों में लोकतंत्र को मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है । इसके साथ दुनिया के अनेक गरीब और अविकसित देशों में धार्मिक उन्माद केंद्रित राजनीति के लिए स्पेस बन सकता है । यह सब एक भयावह भविष्य का ही खाका देते हैं । इसलिए अफगान की घटना और उसके परिणाम को हमें वृहत्तर अर्थों में देखना चाहिए।

 

इतिहास के पन्‍ने ज़रा पलट लें

अफगानिस्तान की सीमाएं सीधे तौर पर तो भारत को नहीं छूतीं ,लेकिन भारत के सांस्कृतिक इतिहास की कहानी अफगानिस्तान के बिना पूरी भी नहीं होती । बहुत पुराने ज़माने से भारत का इस भूमि से सम्बन्ध रहा है । आरंभिक  वैदिक ज़माने का पूरा ताना -बाना इस भूमि से जुड़ा रहा है। महाभारत की कथा में गाँधारी इसी भूमि की पुत्री थी। गांधार आज कांधार है। आबादी के हिसाब से यह छोटा ही मुल्क है। तकरीबन चार करोड़ की आबादी है। काबुल इसकी राजधानी है। इसकी दक्षिणी और पूरबी सीमाएं पाकिस्तान से जुडी हैं, तो पश्चिमी ईरान से। उत्तरी हिस्से में उज्बेकिस्तान तुर्कमेनिस्तान और ताजिकिस्तान हैं। पहाड़ों से घिरा यह देश एक समय कई सभ्यताओं को पालता -पोसता रहा। यहाँ के लोग अफगान -पठान कहे जाते हैं। एक समय था  जब भारत में अफगानों का खासा असर था। शेरशाह इसी मूल का था। मुगलों और अफगानों के बीच लड़ाई हुई, जिसमें  मुगल कुछ कारणों से विजयी हुए और फिर लम्बे समय तक भारत भूमि पर उनका शासन रहा। लेकिन आज अफगानिस्तान मध्य एशिया का नासूर बन गया है। 

 

राजतंत्र से लोकतंत्र और तानाशाही

अफगानिस्तान में राजशाही 1973 में ख़त्म। जब सोवियत संघ था, तब उसने अफगानिस्तान के अंदरूनी मामलों में दखल दिया था। पूरी तरह तो नहीं , लेकिन कुछ -कुछ इसकी तुलना तिब्बत में चीन ने दखल से कर सकते हैं। रूसी प्रभाव से अफगानिस्तान में समाजवादी ख्यालों की सरकार बनी। लेकिन अमेरिका ने हस्तक्षेप किया और सोवियत प्रभाव को ख़त्म करने केलिए वहाँ धार्मिक कट्टरपंथियों को अपना समर्थन दिया। इस समर्थन से अफगानिस्तान में सोवियत संघ को काफी नुकसान हुआ। 1991 में सोवियत संघ के बिखराव के बाद रूसी सेनाएं वहाँ से हटने लगीं। इसी दौर में कट्टरपंथी धार्मिक शक्तियों ने संगठित होना शुरू किया। 1994 में इन शक्तियों ने एक संगठन तालिबान नाम से बनाया। तालिबान पश्तो जुबान का शब्द है ,जिसका अर्थ है ज्ञानार्थी। लेकिन इन लोगों के लिए  ज्ञान का अर्थ केवल इस्लामी ज्ञान है। तालिबान ने पूरे अफगानिस्तान में अपना असर काफी बढ़ा लिया।  2001 में विश्व प्रसिद्ध बामियान बुद्ध ( बुद्ध की  संसार में  सबसे ऊँची मूर्ती ) को तोप के गोलों से ध्वस्त कर दिया। सितम्बर महीने की ग्यारह तारीख को अमेरिका के सबसे ऊँचे ट्रेड सेंटर को भी ध्वस्त कर दिया। अब अफगानिस्तान में दखल देने की बारी अमेरिका की थी। उसने दखल दिया और पूरी तरह उलझ गया । 2004 में अफगानिस्तान में नया संविधान बना और उसके सहारे एक आधुनिक देश बनाने की कोशिशें की गईं। अफगानिस्तान मामले से एक ही बात उभर कर आती है कि बाहरी हस्तक्षेप से किसी क्षेत्र में न समाजवाद आ सकता है, न लोकतंत्र।  किसी भी समाज को खुद बदलना होता है। जो समाज बदलने की क्षमता खो देता है, अन्ततः मर जाता है। सातवीं सदी के सामाजिक -धार्मिक सोच के आधार पर कट्टरता पूर्वक चलने का मतलब है अपने को पीछे ले जाना। यह तंगख़याली है । इसका फायदा हमेशा दकियानूसी ताकतें उठाती हैं। औरतों और मिहनतक़श तबकों पर इनका हमला सबसे अधिक होता है। तालिबान ने अफगानिस्तान में लड़कियों के आधुनिक शिक्षा की मनाही की है। यह तो बस एक उदाहरण है। तालिबान घड़ी की सुई को उलटी दिशा में ले जाना चाहता है।  भारत में भी इस्लामिक तालिबान की तरह कुछ लोग हिन्दू तालिबान को विकसित करना चाहते हैं। हिंदुत्व का फलसफा यही तो है।

(प्रेमकुमार मणि हिंदी के चर्चित कथाकार व चिंतक हैं। दिनमान से पत्रकारिता की शुरुआत। अबतक पांच कहानी संकलन, एक उपन्यास और पांच निबंध संकलन प्रकाशित। उनके निबंधों ने हिंदी में अनेक नए विमर्शों को जन्म दिया है तथा पहले जारी कई विमर्शों को नए आयाम दिए हैं। बिहार विधान परिषद् के सदस्य भी रहे।)

 

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।