पुष्परंजन, दिल्ली:
अफ़ग़ान और भारतीय संगीतकारों का सदियों से नाता रहा है। ख़ुसूसन पटियाला घराने का। 1970 का दशक अफगान म्यूज़िक इंडस्ट्री का स्वर्णकाल था।आज इनका दुनिया भर में डंका बज रहा है। जर्मनी में मेरे रहते अफ़ग़ान राष्ट्रगीत की रिकार्डिंग हुई थी, जिसका मैं साक्षी रहा था। तालिबान को संगीत से सचमुच बैर है? शायद, हममें से बहुतों को भी बैर है। नीतीशतकम् में सही लिखा है, 'साहित्य, संगीत कलाविहिन: साक्षात्पशु: पुच्छविषाणहीन: ! फवाद अंदराबी घाटी के मशहूर लोक गायक थे। अंदराबी, काबुल से सौ किलोमीटर उत्तर पंजशीर घाटी के बगल वाला इलाक़ा है। फवाद अंदराबी, सारंगी जैसा वाद्ययंत्र ' घेचक' ख़ुद बजाते, और गाते थे। यू-ट्यूब पर उनके वीडियो क्लिप देखने के बाद समझना मुश्किल है कि एक लोकगायक का सियासत से क्या लेना-देना हो सकता है? ये सचमुच सिरफिरे लोगों की जमात है, जो सुधरने का नाम नहीं ले रही है। तालिबान, अंदराबी घाटी स्थित उनके गांव आये, फवाद अंदराबी के साथ चाय पी, उनके सिर में गोली मारी और चलते बने। 30 अगस्त, 2021 को तालिबान प्रवक्ता ज़बीउल्लाह मुजाहिद बोले, 'इसकी जांच कराएंगे, और दोषियों को सज़ा देंगे।' इस देश ने एक लोकगायक खो दिया। कराते रहो जांच। मकसद, संगीत व अदबी दुनिया में खौफ़ पैदा करना था, वो पूरा हो चुका।
जिन्हें मैं जानता था, वह हैं काबुल से जर्मनी बस गये गजल गायक अहमद वली। उनसे शनासाई बर्लिन में एक कार्यक्रम के दौरान हुई। अहमद वली की मशहूर गजल 'ख़ाके क़ाबुल' मेरे दिलो-दिमाग़ पर घुन समेत प्रिंट हो चुका था, जो दो दशक बाद भी धुला नहीं। 2001 में उनकी दी हुई कुछ सीडी अब भी मेरे पास है। दारी-पश्तो के एक और मशहूर गजल गायक उस्ताद नशेनस का गाया, 'बिया शब है महताब' को मैं भूलता नहीं। कंधहार में जन्मे डॉ.मोहम्मद सादिक़ फितरत, 'नशेनस' के नाम से देश-दुनिया में जाने जाते हैं। कुछ दिन भारत में भी रहे और तबले के 'वाह उस्ताद' ज़ाकिर हुसैन की सोहबत में 'नशेनस' ने कैलिग्राफी भी सीखी थी। यू ट्यूब पर उनके एलबम अब भी सुनता हूं, और नैसर्गिक आनंद में खो जाता हूं। अंदराबी हत्याकांड के बाद लगता नहीं उस्ताद नशेनस, 'हवस ओ मंज़िल' और 'ज़े खो शराबी' जैसी नज़मों को गा सकेंगे। रबाब के मशहूर फनकार उस्ताद उमर के साथ भी जाकिर हुसैन कई बार संगत कर चुके हैं। उस्ताद उमर 1980 में गुजर चुके।
2001 के बाद से मौसिक़ी की दुनिया में जो कुछ हुआ, क्या तालिबान पार्ट-टू उसे मिटाना चाहेगा? 2004 में अफगानिस्तान में नये राष्ट्रगान को रचने और उसे संगीतबद्ध करने की तैयारी चल रही थी। करजई सरकार ने दो शर्तें आयद कीं। पहली शर्त, राष्ट्रगान पश्तो में लिखा जाना चाहिए, और दूसरी 'अल्लाहू अकबर' जरूर हो। मुश्किल यह थी कि जो गीतकार और संगीतकार देश छोड़ चुके थे, वो वतन लौटना नहीं चाह रहे थे, चुनांचे अमेरिका में बैठे अब्दुल बारी जहानी से 2006 में राष्ट्रगान लिखवाया गया, 'दा वतन अफग़ानिस्तान दई', इन शब्दों को संगीतबद्ध किया जर्मनी के कोलोन शहर में रह रहे मेरे परिचित बबरक वासा ने। बबरक वासा 1978 के दौर में काबुल रेडियो में म्यूज़िक डायरेक्टर रह चुके थे। 1980 में बबरक वासा अफगानिस्तान छोड़ जर्मनी आ चुके थे। बहरहाल, अफगान राष्ट्रगान की रिकार्डिंग संगीत निर्देशक बबरक वासा व मशहूर 'विथोवन आर्केस्ट्रा' की देखरेख में 14 अप्रैल 2006 को बॉन स्थित डॉयचेवेले के स्टूडियो में हुई। इस घटना का मैं साक्षी रहा हूं। तालिबान क्या इस कौमी तराना को बदलेंगे? इस सवाल को मैं यहीं छोड़े जा रहा हूं।
यों, तालिबान शासन के कुछ वर्षों तक एक क़ौमी तराना था, जिसे 1919 में उस्ताद क़ासिम ने कंपोज किया था। 1996 में तालिबान पार्ट-वन आने से पहले 1992 में लोग सुराद ए मिल्ली (राष्ट्रगान) गाते थे- 'क़ल्ये इस्लाम, क़ल्ब ए-एशिया'। इसे 1999 तक अफगान जनता ने गाया, फिर उस साल अचानक से तालिबान शासन ने उसपर पाबंदी आयद कर दी। तालिबान के जाने के बाद, 2002 में 'क़ल्ये इस्लाम, क़ल्ब ए-एशिया' दोबारा से आरंभ किया गया और 2006 में नये राष्ट्रगान के आने तक लोग इसे गाते रहे। उससे पहले भी राष्ट्रगान 1926 से 1973 तक तत्कालीन राजशाही की स्तुति के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा। 1973 से 1978 पांच वर्षों तक अस्तित्व में रहे दूसरा क़ौमी तराना बाद के दिनों बदला। 1978 में कम्युनिस्ट नेता व पत्रकार नूर मोहम्मद ताराकी की 'पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ अफगानिस्तान' सत्ता में आई, तो क़ौमी तराना एकबार फिर परिवर्तित किया गया। उस जोशीले राष्ट्रगीत को कंपोज किया था जलील गहलां ने, और संगीतबद्ध किया था उस्ताद सलीम सरमद ने। यह राष्ट्रगीत 1978 से 1992 तक अफग़ानों ने गाया। 1992 से 1996 व 2002 से 2006 के क़ौमी तरानों की चर्चा कर यह बताना था कि कई कालखंडों में यह बदलता गया है।
तालिबान को राष्ट्रवादी गीतों से कोई गुरेज़ नहीं है। जैसे, उस्ताद अवलमीर द्वारा गाया 'दा ज़मोंग ज़ेबा वतन' (पश्तो में जिसका मतलब होता है हमारा ख़ूबसूरत देश) और अब्दुल वहाब मदादी का गाया, 'वतन इश्क तू इफ्तेकरम' लोग सड़कों, मज़लिस में गुनगुनायें, तालिबान को कोई आपत्ति नहीं। मगर, हर समय राष्ट्रवाद और दीन की घुट्टी गीत-गजलों में तो नहीं पिलाई जा सकती। इस कारण, अच्छी-ख़ासी संख्या में गीतकार और संगीतकार अपनी कश्ती जला गये, और पीछे मुड़ कर नहीं देखा। आप 95 साल पीछे की तरफ़ झांकें, तो लोग उस ज़माने में अधिक उदार दिखेंगे। उस दौर में संगीत को ज़मीन पर उतारने का माध्यम रेडियो बना। 1925 में अफगानिस्तान में रेडियो प्रसारण शुरू तो हुआ, मगर कुछ फितनागरों ने 1929 में उसे तोड़-ताड़ दिया। कोई 11 साल बाद 1940 में रेडियो क़ाबुल से फिर प्रसारण प्रारंभ होता है, उसमें संगीत की हिस्सेदारी सबसे अधिक होती है। फरीदा मेहवाश अभी जीवित हैं, वो पहली महिला गजलगो और पॉप सिंगर हैं, जिन्हें 'उस्ताद' का दर्ज़ा दिया गया है। 1951 में रेडियो काबुल पर लाइव शो करके फरीदा मेहवाश ने इतिहास रचा था। वहां की मौसिक़ी में यूरोपीय वाद्य क्लैरनेट, वायलिन, पियानो, गिटार की इंट्री 1960 के बाद होने लगी।
1970 के दशक को अफगान म्यूज़िक इंडस्ट्री का स्वर्णकाल मानते हैं। वह वो कालखंड था, जब पाकिस्तानी, भारतीय, ईरानी, ताज़िक और अरब देशों की फिल्में व संगीत का प्रवेश इस देश में हुआ था। उस दौर में दारी, पर्शियन, हिंदी, पश्तो और पर्शियन में गाने वाले अहमद ज़हीर के जलवे थे। वो हारमोनियम, पियानो, एकॉर्डियन और एकॉस्टिक गिटार बजाते, और समकालीन पीढ़ी को संगीत की ताज़गी से परिचित कराते। जून 1979 में मात्र 33 वर्ष की उम्र में अहमद ज़हीर का निधन हो गया। काबुल में जन्मे, वर्जिनियां में बसे एक और गायक हैं फरहाद दरिया। पॉप म्यूज़िक, ग़जल, डांस और क्लासिकल की समवेत फनकारी की वजह से उनके शैदाइयों की संख्या लाखों में है। फरहाद दरिया पर्शियन, पश्तो-दारी, उज़बेकी, हिंदी और अंग्रेज़ी ज़ुबानों में गाते हैं।
क़ाबुल की पैदाइश अब्दुल रहीम सरबन 1993 में गुज़र गये, मगर उनका जादू उतरा नहीं है। उन्होंने अपने संगीत में ज़ाज का प्रयोग कर अफगान म्यूज़िक की धारा बदलनी चाही थी। सरबन, सरहद पार ईरान से लेकर यूरोप की मौसिक़ी महफिल तक प्रसिद्ध हुए। उनपर एक गीत, 'ऐ सरबन आहिस्ता रन' अहमद ज़हीर ने गाया था। विश्व प्रसिद्ध ईरानी संगीतकार मोहसिन नमज़ो का 'अय सरबन' भी कभी आप यू ट्यूब पर सुनियेगा। एक ईरानी महिला पॉप सिंगर हैं गोगूश। उनका लाइव शो मैने कोलोन (जर्मनी) में देखा था। गोगूश का गाया 'ऐ सरबन' तब युवाओं ने सबसे अधिक पसंद किया था। सरबन अफगान म्यूज़िक के आइकॉन थे। इतने दिव्य चरित्र कि उनकी लयकारी को अहमद वली, नशेनस, अफसाना, सिम्स तराना,जावेद गजायार, फरहद दरिया जैसे नामी फनकारों ने अपने म्यूजिक कंपोजिंग में शामिल किया। नये अफगान संगीत का प्रभाव मैंने मैक्सिको और स्पेनिश संगीत तक में भी देखा था। ये लोग जब भी म्यूज़िक कंपोज करते, उसमें कुछ न कुछ अफग़ानी तरानों का तड़का लगाते। तालिबान इन्हें कहां-कहां रोकेंगे? ये तो दुनियाभर में फैल चुके।
एक रॉक बैंड है 'काबुल ड्रीम्स'। 2008 में इसकी बुनियाद रखी गई थी, अब यह यूरोप-अमेरिका में पैर जमा चुका है। इनकी देखा-देखी 'द वॉयस ऑफ अफगानिस्तान', 'अफगान स्टार', दुनिया के टॉप रैंकिंग रॉक बैंड के रूप में उभरे हैं। 1 फरवरी 2018 को रोटडम अंतरराष्ट्रीय फ़ि ल्म समारोह में 'रॉकाबुल' को लोगों ने पर्दे पर देखा था। 86 मिनट की इस फिल्म को ऑस्ट्रेलियाई निर्देशक ट्रैविस वियर्ड ने बनाया था। अफगान युवाओं में संगीत को लेकर किस तरह की दीवानगी है, यह फिल्म 'रॉकाबुल' का केंद्रीय विषय है। उन दिनों एक फिल्म समीक्षक की नहीं भूलने लायक टिप्पणी थी, 'यह आपके पिछवाड़े पर लात मारती है, जो दिमाग को झकझोर देती है।' तालिबान को कुरान शरीफ के सस्वर पाठ से कोई परेशानी नहीं है। सुर तो वहां भी है। चिश्तिया संगीत में रूबाब, तबला, हारमोनियम का समावेश तालिबान को अच्छा न लगे, तो बला से। वली दकनी, सिराज़ दाउद, अमीर ख़ुसरो की शैली से पुराना अफगानिस्तान परिचित रहा है। अफगान संगीत के जनक कहे जाने वाले कश्मीरी मूल के उस्ताद कासिम (1878-1957) की पहचान से पहले, 1860 में उत्तर भारतीय संगीतकार अफगान शासकों के दरबार में आने लगे थे।
काबुल के पास खराबात में 1924 में जन्मे मोहम्मद हुसैन सरहंग की संगीत दीक्षा पटियाला घराने में हुई थी। उनकी वजह से अफगानिस्तान की मौसिकी में ख्याल, ठुमरी, तराना और गजल गायकी में और समृद्धि आई। 1949 में काबुल के पामीर सिनेमा में एक संगीत समारोह हुआ, जिसमें पटियाला घराने के दो दिग्गज, उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ान और मोहम्मद हुसैन ने गायकी प्रस्तुत की। उसके कुछ वर्षों बाद मोहम्मद हुसैन को 'सरहंग' की उपाधि से नवाज़ा गया। इस तारीख़ी तथ्य को तालिबान क्या, कोई नहीं बदल सकता। इन्हीं की परंपरा के 1946 में जन्मे अहमद ज़हीर थे, जो दारी-पश्तो और हिंदी में गायकी प्रस्तुत करते थे। किंग ज़हीर शाह ( शासनकाल 8 नवंबर 1933 से 17 जुलाई 1973 ) के समय अफ़ग़ान संगीत को उत्कर्ष पर पहुँचाने का काम बखूबी हुआ. भारतीय संगीत गुरुओं से गोया नाभि-नाल के सम्बन्ध हों. शहनाई वादक विस्मिल्ला ख़ाँ की पहली विदेश यात्रा अफ़ग़ानिस्तान की ही थी. सत्तर के दशक में किंग ज़हीर शाह के वो ख़ास मेहमान बनकर गए थे. ज़हीर शाह तोहफे में कालीन भेंट की थी. बनारस वाले घर में वो कारपेट ख़ाँ साहब बहुत सहेजकर रखते थे.काबुल पुराने ज़माने में संगीत का अधिकेंद्र रहा है, जो अब थम सा गया है। बावज़ूद इसके, दिल्ली, कोलकाता, बनारस के संगीत जगत से आज की पीढ़ी ने नाता नहीं तोड़ा है। तालिबान आ तो गये, मगर इन्हें विरासत कौन समझाए? नीतीशतकम् में सही लिखा है, 'साहित्य, संगीत कलाविहिन: साक्षात्पशु: पुच्छविषाणहीन: !
(कई देशी-विदेशी मीडिया हाउस में काम कर चुके लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। संंप्रति ईयू-एशिया न्यूज के नई दिल्ली संपादक।)
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