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मुहर्रम: आख़िर क्‍या थी कर्बला की कहानी, जिसे भुलाना सदियों बाद भी मुश्‍किल

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हैदर रिज़वी, लखनऊ:

करबल कथा शुरू करने से पहले ये समझना ज्यादा ज़रूरी है कि ऐसा क्या है इस युद्ध के इतिहास में जो लोग भूलना ही नहीं चाह रहे। युद्ध की वजह चाहे कोई भी हो युद्ध हमेशा से बुरा ही रहा है और बुरा ही रहेगा। इतिहास अनगिनत युद्धों से भरा पड़ा है। कभी ईगो के लिए,  तो कभी सुंदरी के लिए,  कभी ज़मीन के लिए तो कभी पशुओं के लिए, कभी कोई मंदिर के खजाने लूटने आ गया तो कभी कोई तख्ते ताऊस और कोहिनूर का दीवाना होकर खून पीने लगा। कुल मिला जुला कर युद्ध सत्ता पक्ष के मूड की बात है न कि आम जनता के फायदे नुकसान की। इतिहास में तो कुछ ऐसे भी युद्ध हैं जो एक गाय के बछड़े के लिए लड़ा गया, एक बार एक बरतन के ढक्कन को लेकर इतना बड़ा युद्ध हो गया कि सैंकड़ों लोगो को जान गवानी पड़ी। अब ये तो इतिहास ही जाने उस ढक्कन का अपने बर्तन से दुबारा मिलन हो पाया या नहीं। युद्ध में उन्माद पैदा करने के दो चार ही उपाय हैं जो प्राचीन काल से इस्तेमाल में जाए जारहे हैं। देशप्रेम, धर्म प्रेम,  जाति प्रेम या भाषा प्रेम। इन्हें जितना भड़काया जाए युद्ध उतना ही विभीत्स हो जाता है।

जंग की शुरुआती वजह

इन्ही हजारों युद्धों में से एक था करबला का भी युद्ध। वजह बहुत सिंपल थी। यज़ीद जिस राष्ट्रप्रेम और देश प्रेम की इच्छा मुहम्मद साहब के परिवार से रखता था, उसे मुहम्मद साहब के परिवार ने एक ढकोसला मात्र माना। तर्क यज़ीद का भी सही ही था कि जिस तरह इस्लाम के नाम पर मुहम्मद साहब ने बिखरे हुए अरब को एक कर दिया और मिस्र से तुर्केमिनिस्तान तक एक झंडा लहराने लगा,  उससे उनका अपना नवासा यानी हुसैन कैसे इनकार कर सकता है? ऐसा नहीं है कि यज़ीद सीधे युद्ध पर ही अमादा हो गया।उसने अपने हिसाब से समझाया,  डराया,  कूटनीति की राजनीति की, ताकि बस किसी तरह एक बार उसकी नयी नवेली खिलाफत को मुहम्मद साहब के नवासे हुसैन की राजनिष्ठा भर मिल जाय। लेकिन मुहम्मद साहब के नवासे और उनका परिवार टस से मस न होकर दे। अब ज़रूरी हो चुका था कि अरब में जल्द से जल्द इस्लाम के प्रवर्तक मुहम्मद साहब के ही बेटे को इस्लामद्रोही और अरब को एक सूत्र में बाँधने वाले मुहम्मद साहब के नवासे को राष्ट्रद्रोही साबित कर दिया जाए। और हुआ भी वही... क्‍योंकि होता तो वही है न, जो सत्ता पक्ष चाहे।

 

इस्‍लाम के इतिहास में क़रैश क़बीला

इस्लाम पर टिपण्णी सभी करते हैं लेकिन इस्लाम क्या है यह किसी को नहीं समझ में आता है। मैं मान्यताओं  या दर्शन के लिहाज़ से नहीं, इतिहास के लिहाज़ से बात कर रहा हूँ। कर्बला का युद्ध एक अहम कड़ी है और अगर इसके तहत इस्लामी इतहास भी समझ लिया जाय तो असल झगड़ा समझना आसान हो जायेगा। कहानी यह है के पूरा का पूरा इस्लाम मुहम्मद साहब से लेकर टर्की के आखिरी खलीफा अब्दुल माजिद (1924 तक) तक सिर्फ एक परिवार की कहानी है और उस परिवार का नाम है कुरैश। क़ुरैश वंश की पांचवी छठवी वंश में जन्म हुआ अब्दुल मनाफ़ का। मनाफ के दो बेटे हुए हाशिम और अब्दुस्शम्स। अब्दुशम्स की नस्ल में उमय्या और हाशिम की नस्ल में आगे चलकर पांच बेटे अबू तालिब, अब्दुल्लाह, अबू लहब, अल अब्बास और हम्ज़ा हुए। उमय्या के वंश से बनी उमय्या खिलाफत चली, जो कर्बला के युद्ध के बाद से यानी 661 ईस्वी से करीब 700-800 ईस्वी के आस पास चली। जिसकी कहानी आगे लिखूंगा।हाशिम की नस्ल में अबू तालिब के बेटे हजरत अली और अब्दुल्लाह के बेटे मुहम्मद साहब, अबू लहब जो मुहम्मद साहब का चाचा और उनका दुश्मन रहा, अल अब्बास जिनकी नस्ल से अब्बासी खलीफा हुए जिन्होंने उमय्या वंश के बाद से करीब 1500 ईस्वी तक शासन किया और पांचवे बेटे हमजा जो मुहम्मद साहब की सुरक्षा में सदैव आगे रहे।

 

 

सीरिया के शासक मावियाह ने खुद को खलीफ़ा घोषित कर दिया

680 ईस्वी में अरब देश में मक्का, मदीना, यमन, कूफ़ा, बसरा, शाम कुछ बड़े शहर थे, जो सत्ता के साथ साथ धर्म (इस्लाम) के भी केंद्र माने जाते थे। 632 ईस्वी में मुहम्मद साहब ने अपना शरीर त्यागा और 661 ईसवी में शाम (सीरिया) के शासक मावियाह ने खुद को खलीफ़ा घोषित कर दिया। मावियाह की मृत्यु के पश्चात उसका बेटा यज़ीद 680 ईस्वी में मात्र 33 वर्ष की आयु में खलीफ़ा बना। जिसे अरब के अधिकाँश बड़े मुस्लिम परिवारों की "राज निष्ठा" (बैय्यत) प्राप्त थी। शाम अरब देशों के सबसे अमीर देशों में एक था और इस्लाम अरब से बढ़ कर एशियाई और यूरोपीय देशों तक पैर पसारने लगा था। इस्लाम एक मात्र केंद्र इस्लामिक खलीफ़ा था जो की यजीद था। किन्तु यज़ीद को खुद मुहम्मद साहब के परिवार की ही राजनिष्ठा (बैय्यत) नहीं प्राप्त थी। जिसकी वजह से उसकी खिलाफ़त का सत्यापन दुनिया के सामने संदिग्ध रह जा रहा था। इस्लाम के उद्भव के करीब 50 साल बाद शाम(सीरिया) के शक्तिशाली और मालदार शासक की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र यजीद जब तख्तनशीन हुआ तो उसने खिलाफत का एलान कर दिया। उसने मुहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन को (मदीना) पैग़ाम-ए-बय्यत (राजनिष्ठा का आवेदन) भेजा, जिसे इमाम हुसैन ने अस्वीकृत कर दिया। अब यज़ीद की खिलाफत अधूरी थी, बिना आले मुहम्मद (मुहम्मद साहब के परिवार) की निष्ठा के खिलाफत का कोई महत्त्व नहीं था। यजीद ने मुसलमानों को पैसे और ताक़त के दम पर अपनी और खींचना शुरू कर दिया।

 

 

तब न कोई शिया था और ना ही सुन्नी 

यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि उस काल में इस्लाम में केवल मुसलमान थे। शिया सुन्नी वहाबी जैसे पंथ नहीं बने थे। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं की मुसलमान एक था। अरब - अजम (गैर अरब) को हेय दृष्टि से देखते थे, उमरी अल्वी और माव्याई तबके भी आपस में बंटे हुए थे। अली, हसन हुसैन के चाहने वाले उनके दोस्त यानी "शिया" कहे जाने लगे थे। इन्हें ही अल्वी भी कहते थे। समाज इस क़दर दिग्भ्रमित था कि कब कोई अल्वी माव्याई बन जाए कब कोई उमरी अल्वी बन जाय कहा नहीं जा सकता था। यानी अरब - अजम वर्ग जन्माधारित थे। लेकिन अल्वी उमरी और माव्याई आदमी की अपनी निष्ठां पर निर्भर करता था। इस झगडे में एक तरफ इराक था, तो दूसरी और शाम। इनके बीच एक छोटा सा राज्य " मदायन" तटस्थ था। यहाँ सभी तरह के मुसलमान शान्ति से रहा करते थे। वैसे तो यह कथा केवल कर्बला युद्ध की लेकिन इस्लाम का इतिहास समझने के लिए यजीद से पहले के शासकों और मुहम्मद साहब तथा अली इब्न अबीतालिब का इतिहास भी जानना बहुत ज़रूरी है। कोशिश करूगा उसे भी साथ साथ बताता चलूँ।

ऐ क़ौम वही फिर है तबाही का ज़माना 
इस्लाम है फिर तीर-ए-हवादिस का निशाना 
क्यूँ चुप है उसी शान से फिर छेड़ तराना 
तारीख में रह जाएगा मर्दों का फ़साना 
मिटते हुए इस्लाम का फिर नाम जली हो 
लाजिम है के हर फर्द हुसैन इब्न अली हो

- अल्लामा इक़बाल


पिछले चौदह सौ साल से मुहर्रम जो इस्लामी कैलेण्डर का एक महीना है और कर्बला जो इराक़ एक शहर है ( वैसे इस युद्ध से पहले तक यहाँ कोई शहर नहीं था) सिर्फ एक इंसान के नाम से ही सारी दुनिया में याद किया जाता है, "हुसैन इब्ने अली।" हुसैन इब्ने अली मुहम्मद साहब की बेटी फातिमा के पुत्र थे।पिता अली इब्न अबीतालिब को कूफा में नमाज़ पढ़ते वक़्त 661 ईस्वी में शहीद कर दिया गया। उसके बाद इनके बड़े भाई हसन इब्न अली को कई अलग-अलग हमलों के बाद 670 ईस्वी में ज़हर देकर शहीद कर दिया गया और इसके ठीक 10 साल बाद यानी 680 ईस्वी में इसी मुहर्रम के महीने में कर्बला के युद्ध में हुसैन इब्ने अली को शहीद किया गया। करबल कथा कहानी है उन राजनैतिक घटनाओं, कूटनीतियों और क़बीलों के बीच की रस्साकशी की, जिसने इस्लाम का रूप रंग ही बदल कर रख दिया। ऐतिहासिक दृष्टि से जहाँ एक तरफ यह कथा इस्लाम मानने वालों के शौर्य और बलिदान का शिखर बयान करती है तो वहीँ दूसरी और उसी इस्लाम को मानने वालों की धूर्तता और पतन की पराकाष्ठा भी बयान करती हुई दिखती है।

क्रमश:

हेडिंग के साथ मशहूर चित्रकार शिवलाल की पेंटिंग लगी है। जिसमें 212 साल पहले पटना के एक मुहर्रम के जुलूस को दिखाया गया है।

(लेखक का लालन-पालन उत्‍तर प्रदेश के ओबरा  में हुआ। कर्बल कथा टाइटल से एक किताब प्रकाशित। संप्रति मुंबई में रहकर टीवी और फिल्‍मों के लिए लेखन)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।