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साबरमती का संत-2 : ट्रस्टीशिप के विचार को बल दें, परिष्कृत करें, ठुकराएं नहीं 

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(‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ - आइंस्टीन ने कहा था। आखिर क्षीण काया के उस व्यक्‍ति में ऐसा क्या था, कि जिसके अहिंसक आंदोलन से समूची दुनिया पर राज  करने वाले अंग्रेज घबराकर भारत छोड़ गए। शायद ही विश्व  का कोई देश होगा, जहां उस शख्सियत की चर्चा न होती हो। बात मोहन दास कर्मचंद गांधी की ही है। जिन्हें संसार महात्मा के लक़ब से याद करता है। द फॉलोअप के पाठक अब सिलसिलेवार गांधी और उनके विचारों से रूबरू होंगे। आज पेश है, दूसरी किस्त -संपादक। )

भरत जैन, दिल्ली:

बहुत से बुद्धिजीवी गांधी के विचारों से सीधे-सीधे और असहमति प्रकट नहीं करते परंतु उन पर गहरा संदेह जाहिर करते हैं। उसमें सबसे अधिक संदेह है, गांधीजी के ट्रस्टीशिप के विचार पर।
इस पर गहराई से चिंतन करना आवश्यक है। एक सज्जन ने कुछ दिन पहले लिखा कि गांधीजी का तरीका ठीक था तानाशाही से लड़ने का, परंतु उनके आर्थिक सिद्धांत व्यवहारिक नहीं थे। उनका ट्रस्टीशिप का सिद्धांत किसी को भी स्वीकार नहीं है ऐसा उन्होंने दावा किया। यह तर्क दिया गया कि दुनिया में पूंजीवाद एक ग्लोबल स्थिति है और उसके सामने मार्क्सवाद टिक नहीं पा रहा चाहे वह किसी किसी स्थान पर सत्ता में आ भी गया जैसे कि रूस और चीन में। पूंजीवाद इतना प्रबल और विश्वव्यापी है कि वह मार्क्सवादी राज्यों को टिकने ही नहीं देता। यह तर्क दिया गया कि सामंतवाद 2000 साल तक रहा और पूंजीवाद को तो अभी आए हुए कुल 200 साल ही हुए हैं। हो सकता है कि कुल 500 साल लग जाए उसका अंत करने में। परंतु यह तभी होगा जबकि मार्क्सवाद पूरे विश्व में एक साथ पूंजीवाद के विरुद्ध खड़ा होगा और संघर्ष करेगा।

 

गांधी के विचारों से असहमति
जो 200 साल पूंजीवाद को दे  चुके हैं  और अभी 300 साल और देने को तैयार हैं वो गांधीवाद को 100 साल भी देकर राजी नहीं है। कुछ गंभीर प्रश्न हैं, क्या वास्तव में पृथ्वी के पास इतना समय बचा है कि यहां तीन सौ साल और उपभोक्तावाद चलता रहे और पृथ्वी के संसाधन कुछ बचे रहें। जिस तरह से पृथ्वी के संसाधनों का उपभोग हो रहा है शायद 100 साल में ही यह पृथ्वी समाप्त हो जाएगी। यह तर्क दिया जा रहा है कि लोगों की इच्छाओं पर तो नियंत्रण हो ही नहीं सकता। यही गांधी और मार्क्स  में अंतर है। मार्क्सवादी सोचते हैं कि कभी ऐसा दिन आएगा जब सर्वहारा वर्ग पूंजीपतियों को हराकर सत्ता में आ जाएगा और दुनिया में समानता हो जाएगी। गांधी की सोच यह  रही  कि हर व्यक्ति के दिल में कहीं ना कहीं अच्छी भावनाएं है , जो ढक गई है और उन्हें केवल बाहर लेकर  आना है। यही गांधी की सोच थी सत्याग्रह के पीछे। समय अधिक लग सकता है परंतु बदलाव केवल उसी से संभव है।

 

 

ट्रस्टीशिप के सिद्धांतों पर चल रही इंग्लैंड की स्कॉट बैडर कंपनी 
ऐसा नहीं है कि ट्रस्टीशिप के सिद्धांतों को दुनिया में कहीं लागू करने का प्रयास नहीं हुआ है। इंग्लैंड में स्कॉट बैडर नाम की कंपनी है जो सन् 1951 से इसी सिद्धांत पर चल रही है और अपने को कंपनी नहीं बल्कि कॉमनवेल्थ कहती है।  भारत में टाटा कंपनियां जो प्रॉफिट कमाती हैं  वो कहां जाता है।  वह जाता है कुछ ट्रस्टों  के पास। टाटा परिवार में से कोई भी बहुत अधिक व्यक्तिगत धनी नहीं रहा। टाटा ग्रुप चाहे रिलायंस के बराबर ना सही  थोड़ा छोटा भी हो परंतु रतन टाटा और मुकेश अंबानी की संपत्ति में अगर देखेंगे तो बहुत अधिक अंतर है। जहाँ  टाटा के पास अपनी कंपनी के केवल 1% शेयर हैं वहां मुकेश अंबानी के पास अपने कंपनी के 40% से अधिक शेयर हैं। टाटा की ज्यादातर कमाई समाज के कल्याण के कार्य में लगती है ,वहीं  अंबानी की  कमाई का मुश्किल से 1% ही समाज कल्याण के कार्यों में खर्च होता  हैं। आदित्य बिरला ग्रुप जिस को सही मायने में घनश्याम दास बिरला का वारिस समझा जाता है उसका भी ज्यादातर धन समाजिक कार्यों में ही खर्च होता है। इस बात को आज समझा जा रहा है और जो कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी यानी CSR  के नाम से सरकार भी कंपनियों को समाज पर कुछ खर्च करने के लिए बाध्य कर रही हैं  वह पूंजीवाद की वैसी ही चाल है जैसी कि उसने वेलफेयर स्टेट के नाम से मार्क्सवाद को हराने में इस्तेमाल की थी। इसके अलावा एंप्लॉई स्टॉक ऑप्शंस ( ESOP ) की तरफ बहुत सी कंपनियां क्यों बढ़ रही है  ? क्या इंफोसिस कंपनी इसी कारण तरक्की नहीं कर पाई है कि वहां पर जो मुख्य कर्मचारी थे सभी कंपनी के शेरहोल्डर्स थे।

 

पूंजीवाद, मार्क्सवाद और गांधीवाद का मिश्रण जरूरी

यह स्पष्ट है कि पूंजीवादी शक्तियां भी मार्क्सवाद और गांधीवाद के सिद्धांतों को समझती हैं। उन्हें मालूम है कि यदि इनको बिल्कुल भी नजरअंदाज़ कर दिया गया तो उनकी सत्ता  बहुत दिन टिकेगी नहीं । इसलिए निराश होने की ज़रूरत नहीं है। पूर्ण सत्य शायद किसी के पास भी नहीं है। पूंजीवाद, मार्क्सवाद और गांधीवाद इन तीनों का मिश्रण करके एक सुंदर बेहतर भविष्य बन सकेगा ऐसा सोच सकते हैं । गांधी जी ने स्वयं पूंजीवादियों के धन कमाने पर कभी एतराज नहीं किया उन्होंने ऐतराज किया सिर्फ उस कमाई को अपना समझने पर । इसलिए गांधी जी को हम विकास का विरोधी नहीं कह सकते बल्कि यह कह सकते हैं कि वे विकास का लाभ सबको मिले इसका प्रयास कर रहे थे और इस प्रयास के बिना दुनिया में स्थाई शांति भी नहीं हो सकती ।  दुनिया में जितनी लड़ाइयां हमने पिछले छह-सात दशकों में देखी है उसका कारण केवल पूंजीवादी देशों के द्वारा गरीब और पिछड़े हुए देशों के संसाधनों को लूटने का प्रयास ही है। यदि धनी देश पिछड़े हुए देशों के साथ में इस संपत्ति को साझा करने को तैयार होते तो दुनिया में इतने युद्ध होते ही नहीं और विशेष तौर पर आतंकवाद जो आज दुनिया पर बहुत बड़ा संकट है उसका जन्म ही नहीं होता। गांधीजी के ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को बल देना आवश्यक है। हो सकता है वह पूरी तरह शत-प्रतिशत कामयाब ना हो परंतु कोई भी व्यवस्था शत-प्रतिशत कामयाब तो आज तक नहीं हुई है इसलिए इस विचार को बल दें, परिष्कृत करें , ठुकराएं  नहीं ।

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(लेखक गुरुग्राम में रहते हैं।  संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।