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वे दिन करें याद: जब टेलीविजन का मतलब दूरदर्शन ही हुआ करता था 

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मनोहर महाजन, मुम्बई:

एशियाई खेलों के बहाने 1982 के साल में पूरे मुल्क में दूरदर्शन का जंजाल फैल गया। रंगीन टेलीविजन आए। बहुत से सूबों ने टीवी बनाने की अपनी अलग कम्पनी खोल ली। इससे पहले टीवी की तादाद कुछ कम थी। थोड़े से लोगों के पास इसे रखने का गौरव हासिल था। बाद में यह गौरव पूरे मोहल्ले के इकट्ठा हो जाने की वजह से सिरदर्द में बदलता गया। रविवार को फीचर फिल्म आती या बुधवार को चित्रहार आता तो लोग दरवाजे-खिड़कियों पर इकठ्ठे हो जाते। कमरे में भीड़ इतनी हो जाती कि कई बार मेजबान को ही कुर्बानी देनी पड़ती। कभी-कभी वह बेचारा एंटीना घुमाने की ड्यूटी करता और ज्यादा घूम जाए तो बिन-बुलाए मेहमानों की डाँट भी सुनता। कुछ घरों में किशोर बच्चों को टीवी देखने से ज्यादा एंटीना घुमाने में मज़ा आता था और वे मनाते थे कि स्क्रीन में 'मच्छरों' की तादाद बढ़ जाए तो उन्हें मनपसन्द काम का मौका हासिल हो। "रुकावट के लिए खेद है" उस जमाने का सबसे प्रचलित जुमला था। दूरदर्शन टेलीविजन का पर्याय बन चुका था। वह धूमकेतू की तरह उभरा, बहुत थोड़े समय के लिए उसकी चमक दिखाई थी और फिर कहीं अंधेरे कोनों में खो गया। होने को वह आज भी है पर न होने के जैसा ही है। अपने अच्छे दिनों में उसने कुछ ऐसे यादगार प्रोग्राम दिए जो दोबारा न बने हैं न बन पायेंगे। यहाँ जिन वाकयों का जिक्र मैं करना चाहता हूँ, उनकी शुरुआत इससे कोई एक दशक पहले होती है।

 

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1972 की गांधी जयंती के दिन मुम्बई और अमृतसर से रोजाना चंद घण्टों के लिए दूरदर्शन के प्रसारण की शुरुआत हुई। दिल्ली का केंद्र पहले से काम कर रहा था पर इसके संकेतों को पकड़ने के लिए बड़ी-बड़ी छतरियों की जरूरत होती थी। यह सिर्फ एक प्रतीकात्मक या प्रयोगात्मक प्रसारण था और इसकी पहुँच बेहद सीमित थी। आगे दूरदर्शन की वह मोहक धुन तो आपको याद ही होगी, जिसमें कुछ बादल जैसे टुकड़ों की आकृतियों के बीच एक 'आँख' उभरती है और उसकी पुतली में 'दूरदर्शन' लिखा होता था। "सारे जहाँ से अच्छा" पर आधारित धुन मूलतः पंडित रविशंकर ने तैयार की थी और इसे शहनाई पर उस्ताद अली अहमद हुसैन खान साहब ने बजाया था। दृश्य-संयोजन 'नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ डिजाइन' ने तैयार किया था। यह धुन आज भी कहीं बजती सुनाई दे तो कदम अनायास ठिठक जाते हैं, हालांकि ऐसा अब बहुत कम होता है। बहरहाल, जब दूरदर्शन के दर्शन को जमाना बेताब होता था, पर्दे के पीछे और कभी-कभी पर्दे पर अपन भी हुआ करते थे। चूँकि अपनी आवाज में व्यावसायिक विज्ञापनों को पेश करने के लिए जरूरी लहजा मिला हुआ था, लिहाजा जल्द ही यहाँ भी काम के मौके निकल आए। ऑडियो-विजुअल मीडिया होने के कारण आवाज के साथ चेहरा भी आता रहा, जो बकौल सुधा चोपड़ा इतना खराब भी न था। वे कहतीं कि "पुणे से उम्रदराज महिलाओं की बहुत-सी चिठ्ठियाँ आती हैं... मरती हैं तुझ पर!"

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तब रेडियो की विज्ञापन सेवाओं के लिए मुम्बई में कुल जमा 8-9 आवाजें थीं और इन्हें कई एशियाई मुल्कों में सुना जाता था। महिलाओं में सिर्फ तीन नाम याद पड़ते हैं, जिनमें से एक तो कुसुम कपूर थीं, जिनका जिक्र पहले भी आ चुका है। दूसरी फिल्म अभिनेत्री मधुबाला की बहिन मधुर भूषण और तीसरी जरीना कादर। संयोग से जरीना कादर जबलपुर की ही थीं और हम लोग पहले से परिचित  थे। वे मूलतः नृत्यांगना थीं और नृत्य सीखने के लिए उन्हें वहाँ के एडवोकेट भार्गव ने खूब मदद की। रानी दुर्गावती पर एक फ़िल्म बननी थी और इसी सिलसिले में उनका मुम्बई आना हुआ था। फ़िल्म तो किन्हीं कारणों से नहीं बन पाई पर उन्होंने आवाज की दुनिया में खुद को स्थापित कर लिया। जबलपुर वाले यह जानकर खुश हो सकते हैं कि फ़िल्म अभिनेत्री रति अग्निहोत्री की हिंदी फिल्मों जो आवाज उन्हें सुनाई पड़ती है, उसकी 'डबिंग' इन्हीं जरीना कादर की है। मुम्बई में रेडियो में काम दिलाने में उन्होंने मेरी बड़ी मदद की। जबलपुर में वे मुझे "यंग ओल्ड मेन" के सम्बोधन से बुलाती थीं और एकाधिक अखबारों में इसकी चर्चा भी हुई थी। 'डबिंग' फिल्मों का चलन इस दौर में शुरू हो चुका था। निर्माता-निर्देशक बी आर चोपड़ा ने एक दिन फोन कर मुझसे कहा कि दक्षिण भारत की एक फ़िल्म के लिए बतौर मुख्य किरदार मुझे अपनी आवाज देनी है। इस सिलसिले में जब मैं स्टूडियो पहुँचा तो पाया कि लेखक शरद जोशी भी वहीं मौजूद हैं। फ़िल्म के संवाद वही लिख रहे थे और यह "मन का आँगन" नाम से प्रदर्शित हुई थी। शरद जोशी को मुम्बई लाने में अपने जबलपुर के साथी मदन बावरिया का बड़ा हाथ था, जिन्होंने नसीर को लेकर "शायद" नाम की फ़िल्म बनाई थी।

 

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दूरदर्शन के चालू होने से उन लोगों का बड़ा भला हुआ जो 'नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा' या 'फ़िल्म इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया' से निकल कर आते थे और जिन्हें मुंबई की फिल्मी दुनिया में अपनी जोर-आजमाइश करनी होती थी। सबको पता है कि सिनेमा में काम हासिल करने के लिए शुरू में धक्के खाने होते हैं, यहाँ-वहाँ चाल में रहना होता है, लोकल ट्रेन में भीड़ से जूझना होता है और जरूरत पड़ने पर फाकाकशी के लिए भी तैयार रहना होता है। ऐसे समय में दूरदर्शन के आ जाने से बहुत लोगों को काम मिलने लगा था। मैं इससे पहले ही फिल्म्स डिवीजन में स्थापित हो चुका था और एक दिन कुसुम कपूर जी ने ही कहा कि अब तुम्हें यहाँ भी आ जाना चाहिए। मेरे लिए फिल्म्स डिवीजन की राह भी  उन्होंने ही आसान की थी। उनकी सलाह पर "तुम्हीं ने दर्द दिया है, तुम्हीं दवा देना" की तर्ज पर मैंने उनसे कहा कि अब यहाँ जाने का रास्ता भी आप ही बनाएँ। उन्होंने मुझे सुधा चोपड़ा से मिलवाया। सुधा चोपड़ा के नाम से आप शायद वाकिफ हों। अभिनेता व निर्देशक आई. एस. जौहर उनके बहनोई थे और वे खुद कुशल अभिनेत्री रही हैं। कई फिल्मों में सुधा जी ने संजीव कुमार व अमिताभ बच्चन वगैरह की माँ की भूमिकाएं की हैं। यही सुधा चोपड़ा दूरदर्शन में "खेल-खिलौने" नाम का सीरियल कर रही थीं, जिसमें मंजू सिंह सूत्रधार की भूमिका कर रही थीं। इस सीरियल में मुझे बूढ़े माली काका की भूमिका करनी थी, जो बाग में खेलने आए बच्चों के जिज्ञासापूर्ण सवालों का जवाब देता था। सीरियल लोकप्रिय हुआ। मेरी उम्र कम थी या शायद मैं ठीक से बूढ़े की भूमिका नहीं कर रहा था। इसीलिए मेरी प्रशंसा में पुणे से उम्रदराज महिलाओं के ढेर खत आते। सुधा जी हँसते हुए जब इस बात के लिए मुझे छेड़तीं तो मुझे जरीना कादर का दिया हुआ खिताब "यंग ओल्ड मेन" याद आ जाता।

 

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यह चिट्ठियों वाला जमाना था। दूरदर्शन के पास रोज बोरी भरकर चिट्ठियाँ आती थीं। इनमें से जिन 10 कार्यक्रमों के लिए सबसे ज्यादा तारीफ मिलती थी, उन्हें महीने के आखिरी गुरुवार को फिर से प्रसारित करने की योजना बनी। "फिर वही" नामक इस कार्यक्रम को पेश करने का जिम्मा मुझे मिला। यहाँ मैं किसी किरदार में नहीं, बल्कि अपने असल रूप में था। कार्यक्रमों की सूची घर पर ही भेज दी जाती और हरेक पेशकश से पहले कही जाने वाली भूमिका अपन तैयार कर लेते। प्रोग्राम लाइव होता। हॉल में प्रोड्यूसर ऊपर की ओर विराजमान होता और इयरफ़ोन लगाए फ्लोर मैनेजर को जरूरी निर्देश देता। अमूमन कैमरामैन ही फ्लोर-मैनेजर होता। कभी अलग भी होते। कैमरे में लाल बत्ती जलती होती। फ्लोर मैनेजर हाथ को उठाकर एक-एक उंगलियाँ मोड़ता जाता और गिनती शुरू हो जाती। एक..दो..तीन..चार और आखिर में पाँच। पाँच की गिनती आते ही कैमरे में हरी बत्ती जल जाती और इस मतलब यह होता कि अब आप "ऑन-एयर" हैं। 

उस दिन हुआ यूँ कि मैं हमेशा की तरह सूची के अनुसार 10 कार्यक्रमों की तैयारी करके आया। पहली पेशकश लता जी का गाया हुआ एक गीत था। कार्यक्रम से पहले की सारी तैयारियाँ पूरी हो गईं। कैमरामैन अपने कैमरे के साथ मुस्तैद खड़ा है और मुझे लता जी और उनके उस गीत पर कुछ कहना है, जिसका अभ्यास में घर पर कर चुका हूँ। कैमरे की लाल बत्ती जल रही है। कैमरामैन ने अपना हाथ उठा दिया है। प्रोड्यूसर को अचानक न जाने क्या सूझी कि उसका सहायक मुझे उंगलियों से बताने लगा  कि मैं बजाए एक नम्बर के तीसरे नम्बर का आइटम पेश करूँ। जिन्होंने किया हो, वही समझ सकते हैं कि 'लाइव प्रोग्राम' में तनाव कैसा होता है। मेरे पास पाँच सेकंड का भी समय नहीं है। मैं कुछ कहने ही जा रहा था और ऐन वक्त पर मुझे कुछ और कहने का संकेत मिल रहा है। माथे की शिराएं गर्म हो गईं। प्रोड्यूसर पर जमके गुस्सा आया और मैं अब कैमरामैन से कहना चाहता हूँ, "जूता मार साले को!" यह अपना जबलपुरिया अंदाज है जो  ऐसे मौकों पर फूट जाता है। मैंने "जूता" ही कहा था और देखा कि कैमरे की बत्ती हरी हो गयी है। यानी मेरे श्री-मुख से निकला "जूता" शब्द माइक्रोफोन से होकर, विभिन्न मशीनों से गुजरते हुए दिग-दिगन्तर में फैल चुका है। अब मेरे पास वक्त नहीं है। सेकंड का हजारवाँ हिस्सा भी बहुत कीमती है। कई बार ऐसे मौकों पर दिमाग काम करना बंद कर देता है। शुक्र है कि मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ। तीन नम्बर वाली पेशकश उस्ताद अल्लारक्खा खां और जाकिर हुसैन वाली थी। दिमाग में बिजली-सी कौंधी। "जूता" मैं कह चुका था, आगे इसमें जोड़ दिया, "जी हाँ! जब बाप का जूता बेटे के पैरों में आ जाए तो दोनों बराबर हो जाते हैं। साहबजादे जाकिर हुसैन अब अपने वालिद अल्लारक्खा से कुछ कम नहीं हैं..!" ऊपरवाले ने अपनी लाज रख ली। प्रोग्राम खत्म हुआ तो प्रोड्यूसर दौड़कर आया। कहा, "क्या यार, तुम मुझे जूता मारने वाले थे?" मैंने कहा, "ऐसे काम करते ही क्यों हो!"

 

"फिर वही" का ही शो करते हुए एक और दिलचस्प वाकया हुआ। दर्शकों के खतों के अनुसार मुझे तलत महमूद साहब का सदाबहार गीत 'तस्वीर बनाता हूँ, तस्वीर नहीं बनती" पेश करना था। गाने के पहले मैंने बताया कि तलत साहब के गाये इस गीत को खुमार बाराबंकवी ने लिखा है और संगीत रचना स्वर्गीय नाशाद की है। अगले दिन अखबार वालों ने हंगामा मचा दिया कि एंकर मनोहर महाजन ने नौशाद साहब को जीते-जी 'स्वर्गीय' बता दिया। अखबार वालों की नासमझी तो खैर समझ में आती है, फिल्मों में काम करने वाली सुधा चोपड़ा और टी पी जैन ने भी मुझे नहीं बख्शा। वे शनिवार को "सवाल आपके, जवाब हमारे" नाम का कार्यक्रम करते थे। बहुत से सामयिन के भी खत आए हुए थे। टी पी जैन ने कहा कि "हम बहुत शर्मिंदा हैं। शायद प्रोग्राम करते हुए एंकर मनोहर जी की जुबान फिसल गई होगी। हम इस प्रोग्राम के जरिए उन्हें दरख्वास्त भेज रहे हैं कि वे अपने अगले शो में माफी मांग लें।" मुझसे अब रहा नहीं गया। मैं फौरन दूरदर्शन केंद्र गया। तब एक शास्त्री जी स्टेशन डायरेक्टर हुआ करते थे। मैंने कहा कि यह मेरे नाम पर आप लोगों ने क्या हंगामा मचा रखा है, जबकि मैं अपने शो पूरी तैयारी के साथ करता हूँ। मैंने उनसे उनका टेलीफोन इस्तेमाल करने की इजाजत माँगी और टाइम्स समूह की फिल्मी पत्रिका "माधुरी" के दफ्तर में फोन लगाया। सम्पादक अरविंद जैन मेरे अच्छे दोस्त थे। फोन पर विनोद तिवारी मिले। मैंने उनसे कहा कि वे शास्त्री जी को नाशाद साहब के बारे में बताएं। विनोद ने पूरी बात बताई। शास्त्री जी ने फौरन टी पी जैन को तलब किया। जैन साहब ने मुझसे खेद व्यक्त करते हुए कहा कि मैं उनके अगले शो में आकर पूरी बात स्पष्ट कर दूँ। मैंने कहा कि नहीं, आपने रायता फैलाया है तो अब आप ही समेटें। 

 

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नौशाद साहब दरअसल शौकत अली हाशमी थे। शौकत हैदरी भी लिखते थे और फ़िल्म कैरियर की शुरुआत शौकत देहलवी नाम से की थी। चालीस के दशक में उन्होंने बहुत सी हिंदी फिल्मों में संगीत दिया। दिल्ली में जन्मे थे और शुरुआती दौर में बाँसुरी बजाते थे। 1948 में उन्होंने  "टूटे तारे" नाम की एक फ़िल्म में संगीत दिया, जिसमें बहादुर शाह जफर की ग़ज़ल "न किसी की आँख का नूर हूँ" भी शामिल थी। यह रचना बेहद मकबूल हुई। उनके "नौशाद" बनने की कथा पेंगुइन से प्रकाशित किताब "नौशाद: ज़र्रा जो आफताब बना" में दर्ज है। 1953 में निर्देशक नक्शेब जार्चवी अपनी एक फ़िल्म के लिए नौशाद का संगीत चाहते थे पर उन्होंने किसी कारण से मना कर दिया। नक्शेब साहब ने चिढ़कर शौकत अली उर्फ शौकत देहलवी से संगीत लिया और उनका नाम बदलकर नाशाद कर दिया। आगे वे पाकिस्तान चले गए पर नाशाद नाम से ही कम्पोजिशन करते रहे। बहुत-सी पाकिस्तानी फिल्मों के लिए भी उन्होंने संगीत दिया, जिसमें मेहदी हसन साहब के भी गाने हैं।

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बहरहाल, प्रोग्राम "फिर वही" भी खूब मशहूर हुआ और लोग मुझे पहचानने लगे थे। उन दिनों मेरा टैरेस फ्लैट जुहू वाले इलाके में था और घूमने निकलता तो कभी-कभी वह भीड़ मुझे भी पकड़ लेती जो अमिताभ बच्चन के बंगले के आगे इकठ्ठा रहती। किशोर बच्चे अपने हाथों में मेरा ऑटोग्राफ लेते और अपने पाँव जमीन से दो-चार इंच ऊपर पड़ने लगते। एक दिन इन्हीं बच्चों ने अपने पैर जमीन पर टिका दिए। हुआ यूँ कि मैं काम के सिलसिले में घर से निकलता तो प्रायः अपने अभिनेता मित्र रमेश तिवारी के साथ डबल डेकर बस पकड़ता। एक बार हम लोग जाकर ऊपर वाली सीट पर बैठ गए। पीछे एक परिवार था, साथ में दो बच्चे। एक बच्चे की नज़र मुझ पर पड़ी। उसने अपनी माँ से कहा, "ममा! टीवीमैन।" माँ ने उसे डपटते हुए कहा, "शटअप! इफ़ ही इज अ टीवीमैन व्हाई द हैल इस ट्रेवलिंग बाई बस!" मेरे कान लाल हो गए। अब दूसरे बच्चे की बारी थी। वह मुझे एकटक देख रहा था। फिर वह अपनी सीट से उठा और अपना चेहरा ऐन मेरे चेहरे के सामने लाकर पुष्टि की-'नो ममा! ही इस टीवीमैन!" जवाब में इस बार उसके पिता ने वही बात दोहरा दी, "शटअप! इफ़ ही इज अ टीवीमेन...।" मुझसे रहा नहीं गया। मुझे नहीं मालूम था कि टीवी वाले बस में सफर नहीं कर सकते! मैंने अपने दोस्त रमेश को लगभग खींचते हुए बस से उतार लिया। उसकी समझ में नहीं आया कि मैं क्या कर रहा हूँ। मैंने कहा, "मुझे कार खरीदनी है..अभी, इसी वक्त!" रमेश ने कहा, "पागल हो गए हो..पैसे हैं पास में?" मैंने कहा "नहीं।' मैंने बूथ से भायखला वाले भाई मुशर्रफ हुसैन को फोन लगाया, जो किसी सेकेंडहैंड फिएट के बारे में बता रहे थे। तब वह बत्तीस हजार रुपयों में मिल रही थी। मैंने डेढ़ हजार मुशर्रफ भाई को दिए और कहा बाकी बाद में। कार की चाभी बरामद की और उसे रमेश को पकड़ाते हुए कहा, "अब चलो।" काश कि वह परिवार मुझे अपनी काली फिएट में देख पाता!

इन्हीं दिनों में मेरी मुलाकात रोनी स्क्रूवाला से हुई। वे "मैजिक लैम्प" नाम का अंग्रेजी कार्यक्रम करते थे। पुराने दिनों में वे शौकिया थिएटर करते थे और बॉम्बे थिएटर से जुड़े हुए थे। देखा जाए तो दूरदर्शन के एकाधिकार को तोड़ने की शुरुआत इन्हीं रोनी स्क्रूवाला ने की थी। केबल टीवी की सोच सबसे पहले इन्हीं के जेहन में उभरी और अमलीजामा मुम्बई के कफ परेड वाले इलाके से हुआ।  आगे यह किस तरह फैला, इससे प्रायः सभी वाकिफ हैं। रोनी ने 'यूटीवी' की स्थापना की और मनोरंजन जगत में महत्वपूर्ण हस्ती होकर उभरे। मशहूर टाइम मैगज़ीन ने इन्हें दुनिया के सबसे  प्रभावशाली सौ लोगों की सूची में शामिल किया। दूरदर्शन में "डिस्कवरी" के कार्यक्रम रोनी ही लेकर आए थे और हिंदी डबिंग का अवसर मुझे मिला। मैंने उनके लिए कोई 300 घण्टों की डबिंग की । फिर नेशनल जियोग्राफिक के लिए भी काम किया। 

 

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'दूरदर्शन', 'विविध भारती' और 'फिल्म्स डिवीजन ऑफ इंडिया' के दफ्तरों के अलावा निजी स्टूडियो में भी उन दिनों खूब आना जाना रहा। सिद्धि विनायक मंदिर के पास एक बॉम्बे लैब हुआ करता था। यहाँ फिल्मी गानों के अलावा विज्ञापनों की भी रेकॉर्डिंग होती। विज्ञापन चूंकि छोटे होते हैं तो दोपहर के समय जब गाने-बजाने वाले खाना खाने के लिए निकल जाते, अपना काम शुरू हो जाता। बाम्बे लैब में रिकॉर्डिंग का जिम्मा बी एन शर्मा साहब के पास हुआ करता था। मुझे 'स्टेट बैंक ऑफ इंडिया' का एक विज्ञापन करना था। स्टूडियो के सामने कैंटीन में बैठा हुआ मैं चाय सुड़क रहा था और शर्मा जी को अपने आने की खबर भेज दी। थोड़ी देर में बुलावा आया। मैंने स्टूडियो के दरवाजे को अंदर की ओर धकेलने की कोशिश की। 'साउंडप्रूफ' रखने को ये दरवाजे दोहरे होते थे और थोड़े भारी भी। मैं दरवाजे को धकेल पाता इससे पहले ही वह भीतर से खिंच गया और मेरे दोनों हाथ एक सज्जन के सीने से टकराए। हड़बड़ाकर माफी मांगते हुए मेरी निगाह उनके चेहरे से टकराई- मोहम्मद रफी साहब थे। रवि के किसी गीत की रिकॉर्डिंग के लिए आए थे। उनके पाँव छूने को झुका तो उन्होंने बाहों से थाम लिया। वह किसी फरिश्ते-सी छुअन थी, नाजुक और मखमली एहसास से भरी हुई। मैं उनका एक इंटरव्यू चाहता था और कई बार इस सिलसिले में फोन पर बातें भी हुईं। व्यस्तता के कारण वे शायद समय नहीं निकाल पा रहे थे। मौका देखकर मैंने इस बात का जिक्र छेड़ दिया। उनके दाएं हाथ में सीने से लगी हुई कोई पत्रिका थी, जो उन्होंने मुझे थमा दी। कहा कि यह "शमा" का ताज़ा अंक है और इसमें उनका लम्बा इंटरव्यू है तो इसी के आधार पर कुछ तैयार कर लूँ। गाने में उनकी आवाज जितनी भारी लगती थी, बातचीत में उतनी ही महीन। उनके निकल जाने के बाद भी मैं देर तक सम्मोहित खड़ा रहा और 'शमा' को सीने से लगाए रहा। उनकी जादुई छुअन का एहसास अब भी उसमें बचा हुआ था।

(दिनेश  चौधरी से बातचीत पर आधारित)

(मनोहर महाजन शुरुआती दिनों में जबलपुर में थिएटर से जुड़े रहे। फिर 'सांग्स एन्ड ड्रामा डिवीजन' से होते हुए रेडियो सीलोन में एनाउंसर हो गए और वहाँ कई लोकप्रिय कार्यक्रमों का संचालन करते रहे। रेडियो के स्वर्णिम दिनों में आप अपने समकालीन अमीन सयानी की तरह ही लोकप्रिय रहे और उनके साथ भी कई प्रस्तुतियां दीं।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।