logo

विचार: अफगानिस्‍तान में तालिबान पर क्‍यों जरूरी हो गई है चर्चा

12162news.jpg

रंगनाथ सिंह, दिल्‍ली:

तालिबान को लेकर कुछ भ्रम कई साथियों में दिख रहा है। कुछ साथियों का मानना है कि तालिबान तो अफगानिस्तान में है तो हम उनपर चर्चा में समय क्यों खराब कर रहे हैं। हम अपने देश पर ध्यान क्यों न दें! कुछ साथियों को तर्क है कि तालिबान के निजाम से क्या दिक्कत है, उनका देश है वो जैसे चाहें वैसे चलायें। कुछ साथियों को उसमें इस्लामोफोबिया नजर आ रहा है। कुछ साथियों को सचमुच ऐसा लग रहा है कि तालिबानी हुकूमत से पूरी दुनिया पर आतंकवाद का कहर टूट पड़ेगा। मेरी राय में इन सभी नजरियों में कुछ तत्व है और कुछ भूसी। अव्वल तो यह समझना चाहिए कि यह मोटीबुद्धि की मानसिकता है किसी परिघटना के केवल दो मोटे मोटे पहलू होते हैं जैसे किसी सिक्के के दो पहलू होते हैं। सिक्के के दो पहलू होते हैं लेकिन बिट-क्वाइन के जमाने में हर चीज को सिक्का समझ लेना, सही नहीं है। समझने के लिए ज्यादा वक्त न हो तो भी यह तो जरूर समझें कि कुछ सामाजिक परिघटनाएँ रयूबिक क्यूब जैसी होती हैं। आपने यह रंगीन घन घुमाया होगा तो देखा होगा कि इसके सभी फलक पर एक ही रंग के घन इकट्ठा कर देना आसान नहीं होता। 

 

सबसे पहले तो यह है कि हम तालिबान पर चर्चा क्यों कर रहे हैं। मीडिया वालों का तो काम यही है कि जो भी खबर उन्हें सबसे बड़ी या प्रभावी लगती है उसका पीछा करते हैं। कम समय में अधिक जानकारी और ज्ञान जुटाकर जनता तक पहुँचाना उनका काम है। जानकारी वो खुद जुटा लेते हैं और ज्ञान के लिए विशेषज्ञों को पढ़-सुनकर उनकी बात का सारांश आपके सामने रख देते हैं। खैर, हम मीडिया से बाहर के लोगों की बात करते हैं। आपने भी वह मुहावरा सुना होगा कि इनको दीन-दुनिया की खबर नहीं रहती! चाहे जो भी वजह हो, दूसरी दुनिया की खबर होना बहुत जरूरी है। इसे सामान्य जागरूकता कहते हैं। देखने में यह बहुत मामूली बात लगती है लेकिन सामाजिक विकास में इसकी बड़ी भूमिका है। अगर हमें यह पता होता कि यूरोप में किस तरह के वैज्ञानिक आविष्कार हो रहे हैं, और लोग क्या कर रहे हैं तो हम विज्ञान में पिछड़े न होते। अगर यूपी सरकार यह नियम बना दे कि दुनिया की किसी भाषा में छपने वाली विज्ञान की कोई किताब एक साल के अन्दर हिन्दी में अनूदित हो जाएगी तो आप महज 10-20 साल में देख लेंगे कि भारत में वैज्ञानिक अध्ययन और शोध कितनी तेजी से तरक्की करता है।

 

यदि आप यूरोप का इतिहास देखेंगे तो पाएँगे कि बहुत से लोग सुना-सुना ही आविष्कारक या वैज्ञानिक बन गये। उन्होंने कहीं पढ़ा-सुना कि पड़ोसी राज्य जा जिले में फलाँ फलाँ नयी चीज बना रहा है तो उनको लगा कि हम भी बना सकते हैं। सूचना बहुत ताकतवर चीज है। इसके दम पर विश्व युद्ध तक जीते-हारे जाते हैं। डिजिटल युग से पहले घर में अखबार या पत्रिका मँगाना किसी परिवार की शैक्षणिक स्थिति के विकास का महत्वपूर्ण चरण था। इसका मकसद व्यक्ति के सामान्य ज्ञान या जागरूकता में बढ़ोतरी करना ही था। अतः यह हर लिहाज से बेहतर है कि भारतीय नागरिक वैश्विक मामलों में रुचि ले रहे हैं और उसपर तर्क-वितर्क कर रहे हैं। हो सकता है कि किसी ने किसी दिन अफगानिस्तान की ज्यादा चिन्ता कर ली हो लेकिन यकीन मानिए अभी तक ऐसी खबर नहीं है कि किसी भारतीय ने खाना-पीना-नहाना-धोना छोड़कर अफगान की चिन्ता की। चिन्ता करने के लिए भी समय चाहिए। दैनिक जीवन में चिन्ता के लिए बचे हुए एक-दो घण्टे में आदमी अपने मन-मूड के मुताबिक चिन्ता कर लेता है। कोई मेघालय की चिन्ता करता है, कोई अफगानिस्तान की, कोई किसान की। मुद्दा यह नहीं होना चाहिए कि कौन किसकी चिन्ता करना चाहिए, मुद्दा यह है कि ठीक से कर रहा है कि नहीं। ये सभी चिन्ताएँ एक साथ ही सतह पर तैर रही हैं और इनपर अलग-अलग वर्ग एक साथ ही विचार करता रहता है।  

 

 

अगला सवाल है, भारत की चिन्ता छोड़कर अफगानिस्तान की चिन्ता क्यों कर रहे हैं? इसका एक जवाब तो यह है कि ठीक पड़ोस के घर में आग लगी हो तो आप अपने चूल्हे पर रोटी सेंकने में व्यस्त नहीं रह सकते। दूसरा जवाब यह है कि सभी लोग अफगान चिन्ता में नहीं डूबे हैं। फेसबुक AI आपकी पसन्द-नापसन्द के हिसाब से चीजों को आपके सामने दिखाता है। आपको हर तरफ अफगानिस्तान दिख रहा है तो या तो आप खुद अफगान पर पिले पड़े हैं या फिर उसपर लिखी जा रही पोस्ट पर प्रो या अगेंस्ट स्ट्रान्गली रिएक्ट कर रहे हैं या फिर आप सहज रूप से ही ऐसे लोगों से घिरे हैं जो विश्व स्तरीय चिन्तन में ज्यादा लिप्त रहते हैं। हर चिन्ता या बहस का एक लोकवृत्त (जनघेरा) होता है। उस घेरे की जनता उस विषय पर माथापच्ची करती है। देखने की बात यह है कि वह बहस या चर्चा इनफॉर्म्ड (अद्यतन सूचना या जानकारी से लैस) है या नहीं।  

 

तीसरा सवाल है, इस्लामोफोबिया का। यह सच है कि बहुत से लोग केवल इसलिए अफगानिस्तान पर पिले पड़े हैं क्योंकि उनके दिमाग में तालिबान की मुस्लिम पहचान हावी है और वो इस पहचान से नफरत करते हैं। किसी की जन्मजात पहचान से नफरत करने लगना एक बीमारी है। जिस तरह कोरोना विषाणु समाज में फैला तो लाखों मरे उसी तरह इस बीमारी की विषाणु के प्रसार का एक ही नतीजा होता है कि बहुत से लोग अपनी जान या अमन-चैन गँवाते हैं। लेकिन यह भी सच है कि इस्लामोफोबिया या फासिवाद या साम्राज्यवाद जैसे जुमले कम्बल बन चुके हैं। यह सच उजागर करने से ज्यादा किसी परिघटना को छिपाने का काम करते हैं। यदि आपको लगता है कि तालिबान या किसी अन्य मुस्लिम संगठन की आलोचना इस्लाम से नफरत है तो इसका अर्थ हुआ कि आप भी आदमी की विभिन्न पहचान में से उसकी मजहबी पहचान को तवज्जो देते हैं। अगर ऐसा है तो यकीन जानिए कि आप में और मजहब के नाम पर नफरत करने वाले के बीच केवल सत्ता का फर्क है।

 

मजहबी पहचान को सर्वोपरी मानने वाले को जब यह लगता है कि वो सत्ता में है तो उसकी भाषा कुछ और होती है, और जब वह कमजोर होता है तो उसकी भाषा कुछ और होती है। जन्म के साथ ही मनुष्य के साथ कई पहचान (राष्ट्रीयता, धर्म, जाति, लिंग, नस्ल, वर्ण (रंग), भाषा और वर्ग इत्यादि जुड़ जाती है। इन आधा दर्जन से ज्यादा प्रमुख पहचान में आप किसको लेकर सबसे ज्यादा संवेदनशील या मुखर या आग्रही हैं यह आपकी परवरिश और परिवेश पर निर्भर है। अतः यदि आपके धर्म, जाति, लिंग, नस्ल, वर्ण, भाषा या वर्ग की आलोचना हो रही है तो उत्तेजित होने के बजाय या मुहँ फेर लेने के बजाय उसपर गौर कीजिए। आलोचना या निंदा ही सही सुन लेने से किसी के कान नहीं गलते।  अब उस सवाल पर आते हैं कि तालिबानी निजाम से क्या दुनिया में इस्लामी आतंकवाद का कहर टूटेगा? अव्वल तो यह कि तालिबान को अफगानिस्तान चाहिए न कि हिन्दुस्तान या बरतानिया या फ्रांस इत्यादि। मान लीजिए कि कुछ तालिबान ऐसे निकल आए जिनको खब्त हो जाए कि हमारा झण्डा तो दुनिया भर में फहरना चाहिए। ऐसे तालिबान उसी प्रजाति के होंगे जिनके लिए कहा गया है कि हम तो डूबेंगे सनम तुमको भी ले डूबेंगे। तालिबान के चारों तरफ उनसे कई गुना ताकतवर मुल्क हैं। वो जिधर पैर पसारना चाहेंगे उधर ही अंगुलियों कुतरने वाले मौजूद हैं। 

 

याद रखें कि दूसरे मुल्क में तालिबान तब जाएँगे जब अपने मुल्क का मामला सेटल हो जाए। तालिबान कबीलावादी मानसिकता वाले लोग हैं। उनका मुख्य पेंच भी यही है कि तख्तापलट के बाद सभी कबीलों में सही से बंदरबाँट कैसे हो। भारत के सन्दर्भ में तालिबान से जुड़ी एक ही चिन्ता है कि वो कश्मीरी आतंकवाद के प्रति क्या रवैया अपनाते हैं। लेकिन इसके साथ ही यह भी ध्यान रखिए कि कश्मीर का मसला अफगानी नहीं बल्कि पाकिस्तानी खुरपेंच की वजह से बनता-बिगड़ता है। पाकिस्तान के माननीय पीएम 2021 में भी अपनी संसद में कश्मीर को आजादी दिला रहे हैं। एक पूरा देश पड़ोसी देश के छोटे से प्रदेश के पीछे पड़ा हो तो स्थिति कितनी जटिल होगी, यह समझा जा सकता है। तालिबान के अन्दर भाड़े के लड़ाके भी हैं। तालिबान को रुपये-पैसे-हथियार की जरूरत भी होगी तो कुछ लोग उनसे इनके बदले कश्मीरी आतंकवादियों को प्रशिक्षण और समर्थन इत्यादि की माँग कर सकते हैं लेकिन इसके पीछे किसका हाथ यह देखने के बाद ही राय बनायें। चीन, रूस, ईरान, भारत, तुर्कमेनिस्तान, ताजिकिस्तान और पाकिस्तान भी नहीं चाहेंगे कि तालिबानी पड़ोसी देशों में आतंकवाद की आपूर्ति करें। किसी देश में अगर तालिबान के माध्यम से आतंकवाद सप्लाई होने लगे तो यह समझिए कि यह मामला मजहब से ज्यादा भूराजनीति से जुड़ा है। दुनिया के कुछ शरीफ दिखने वाले देश दूसरे देश में अशान्ति फैलाना अपनी शराफत का प्रमाण समझते हैं। अमनपसन्द पड़ोसी किस्मत वालों को मिलते हैं। एक सवाल अभी रह गया कि अफगानिस्तान में तालिबानी निजाम से क्या दिक्कत है? इसका जवाब अगले लेख में पाठकों को मिलेंगे।

(रंगनाथ सिंह हिंदी के युवा लेखक-पत्रकार हैं। ब्‍लॉग के दौर में उनका ब्‍लॉग बना रहे बनारस बहुत चर्चित रहा है। बीबीसी, जनसत्‍ता आदि के लिए लिखने के बाद संप्रति एक डिजिटल मंच का संपादन। )

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।