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पेसा कानून : छठी अनुसूची के पैटर्न के अनुपालन का क्या संदर्भ है?

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सुधीर पाल
कई साथियों की मान्यता है कि पेसा नियमावली में राज्य को पेसा-1996 के 4(o)के प्रावधानों के अनुरूप छठी अनुसूची के पैटर्न के अभिशासन की दिशा में पहल करनी चाहिए। इसके बिना पेसा के 4(aसे लेकर n) के प्रावधानों से अनुसूचित क्षेत्र में ग्राम सभा आधारित पारंपरिक स्वशासन की व्यवस्था का कोई मतलब नहीं है। 
संविधान की छठी अनुसूची के तहत कुछ राज्यों के भीतर जनजातीय लोगों के अधिकारों की रक्षा के प्रावधान हैं। अभी इस अनुसूची में असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम के इलाके आते हैं। इसमें विधायी एवं न्यायिक शक्तियों के साथ स्वायत्त ज़िला परिषदों और स्वायत्त क्षेत्रीय परिषदों के गठन के प्रावधान शामिल हैं।


ध्यान रहे पांचवीं अनुसूचित क्षेत्र में गाँव समुदायों और उनकी परंपराओं को कानूनी अधिकार दिए गये हैं। यहाँ ग्राम सभा सर्वोपरि है। जबकि छठी अनुसूची में जिला के स्तर पर चुने हुए जन प्रतिनिधियों से बनी स्वायत्त ज़िला परिषद सर्वोपरि है। पांचवीं अनुसूची की तरह जनजातीय परामर्शदात्री परिषद की अवधारणा छठी अनुसूची वाले राज्यों में नहीं है। जनजातीय परामर्शदात्री परिषद को पांचवीं अनुसूचित क्षेत्र के मामलों में विधायी शक्ति है।  
संविधान के भाग IX के अपवाद और संशोधन.—संविधान के भाग IX में किसी बात के होते हुए भी, किसी राज्य का विधानमंडल उस भाग के अंतर्गत कोई ऐसा कानून नहीं बनाएगा जो निम्नलिखित विशेषताओं में से किसी के साथ असंगत हो, अर्थात्:— धारा 4. (o) राज्य विधानमंडल अनुसूचित क्षेत्रों में जिला स्तर पर पंचायतों में प्रशासनिक व्यवस्था तैयार करते समय संविधान की छठी अनुसूची के पैटर्न का पालन करने का प्रयास करेगा।
भारतीय संविधान की छठी अनुसूची (असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम में गठित दस स्वायत्त जिला परिषदें है) जो भारत के पूर्वोत्तर में आदिवासी क्षेत्रों को एक हद तक स्वायत्तता और स्वशासन प्रदान करता है। संविधान की छठी अनुसूची में 4 राज्यों के 10 स्वायत्त ज़िला परिषद शामिल हैं। जो इस प्रकार हैं:
o    असम: बोडोलैंड प्रादेशिक परिषद, कार्बी आंगलोंग स्वायत्त परिषद और दीमा हसाओ स्वायत्त ज़िला परिषद।
o    मेघालय: गारो हिल्स स्वायत्त ज़िला परिषद, जयंतिया हिल्स स्वायत्त ज़िला परिषद और खासी हिल्स स्वायत्त ज़िला परिषद।
o    त्रिपुरा: त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र स्वायत्त ज़िला परिषद।
o    मिज़ोरम: चकमा स्वायत्त ज़िला परिषद, लाई स्वायत्त ज़िला परिषद, मारा स्वायत्त ज़िला परिषद।
इसका उद्देश्य आदिवासी भूमि और संसाधनों की रक्षा करना, आदिवासी संसाधनों को गैर-आदिवासी लोगों को हस्तांतरित होने से रोकना, यह सुनिश्चित करना कि आदिवासी समुदायों का शोषण ना हो या वे हाशिए पर न ढ़केल दिए जाएं। यह आदिवासी क्षेत्रों पर शासन करने के लिए स्वायत्त जिला परिषदों (ADC) और क्षेत्रीय स्वायत्त परिषदों (RDC) की स्थापना करता है।


इन परिषदों के पास बजट तैयार करने, भूमि राजस्व का आकलन और संग्रह करने और कर लगाने; खनिज उत्खनन के लिए लाइसेंस या पट्टे देने, सुविधाओं को विनियमित और नियंत्रित करने; जिले के भीतर के स्कूलों में प्राथमिक शिक्षा की भाषा और पठन-पाठन के तरीके को निर्धारित करने आदि की शक्ति होती है। ADC के पास विशिष्ट विषयों पर विधायी, न्यायिक और कार्यकारी शक्तियां होती हैं। छठी अनुसूची जिला या क्षेत्रीय परिषदों को भूमि पर कानून बनाने, हालांकि आरक्षित वनों के रूप में अधिसूचित क्षेत्रों को कवर नहीं करती है, कृषि या चरागाह के लिए या आवासीय या अन्य गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए या किसी भी गांव या शहर, विरासत और विवाह के निवासियों के हितों को बढ़ावा देने की संभावना वाले किसी भी अन्य उद्देश्य के लिए भूमि आवंटित करने, कब्जा करने या उपयोग करने या अलग रखने के लिए एक हद तक नियंत्रण प्रदान करती है।
एडीसी अपने अधिकार क्षेत्र के भीतर मामलों पर निर्णय लेने के लिए ग्राम न्यायालय और जिला न्यायालय स्थापित कर सकते हैं, विशेष रूप से आदिवासी रीति-रिवाजों और प्रथाओं से संबंधित मामलों पर। एडीसी के नीचे की संरचनाएं, जो जनजाति विशिष्ट हैं, संशोधनों के साथ प्रथागत और पारंपरिक संस्थाओं द्वारा शासित हैं। जबकि मेघालय में ग्राम परिषद है जो एक पारंपरिक निकाय है, मिजोरम में ग्राम परिषद के लिए चुनाव होते हैं। एडीसी कर लगा सकते हैं, राजस्व एकत्र कर सकते हैं और केंद्र सरकार से सीधे अनुदान प्राप्त कर सकते हैं, जिससे उन्हें वित्तीय स्वतंत्रता की पर्याप्त शक्ति मिलती है, कृषि, भूमि प्रबंधन, ग्राम प्रशासन जैसे विषयों पर काफी प्रशासनिक नियंत्रण होता है और उनकी अपनी कार्यकारी और प्रशासनिक मशीनरी होती है।
धारा 4(o) के तहत PESA के तहत राज्य को ग्राम सभा के ऊपर अनुसूचित क्षेत्र में स्थानीय सरकार की एक अलग संरचना के प्रावधान की आवश्यकता होती है, यह सुनिश्चित करते हुए कि ये संरचनाएं ग्राम सभा की शक्तियों का अतिक्रमण नहीं करती हैं [PESA की धारा 4(n)]। दूसरे शब्दों में, सामान्य क्षेत्र में पंचायत राज संस्थाओं की संरचना अनुसूचित क्षेत्र पर लागू नहीं होती है, बल्कि इसके बजाय छठी अनुसूची के अनुसार एक संरचना प्रदान की जानी है। किसी भी राज्य ने इस प्रावधान का अनुपालन नहीं किया है और इसके बजाय यह सुनिश्चित किया है कि अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम सभाओं के ऊपर की संरचना वही संरचना है, जो सामान्य क्षेत्र में प्रदान की गई है। इसमें दो राय नहीं कि ये संरचनाएं ADCs की तुलना में निर्णय लेने के मामले में कमजोर है काफी हद तक सरकारी विभागों के नियंत्रण में हैं। पांचवीं अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम सभाएं ज्यादा स्वशासी,स्वायत्त और अधिकार सम्पन्न हैं और ऊपर की मध्यवर्ती और जिला पंचायत राज संस्थाएं कमजोर हैं।
स्वायत्त परिषद में सदस्यों के प्रतिनिधित्व के संदर्भ में बोडोलैंड प्रादेशिक परिषद एकमात्र परिषद है जिसमें 46 सदस्य हैं (जो उच्चतम प्रतिनिधित्व है) और यह एकमात्र परिषद है जिसमें गैर-जनजाति समुदाय के सदस्यों को भी प्रतिनिधित्व प्राप्त है।        
पंचायती राज व्यवस्था में 73वें संशोधन द्वारा विभिन्न स्तरों पर महिलाओं के लिये सभी पंचायत सीटों में से कम से कम एक तिहाई सीटों (झारखंड में 50 फीसदी) के आरक्षण की दी गई है। इसके विपरीत छठी अनुसूचियों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व एवं लैंगिक समानता का कोई उल्लेख नहीं है। ज़िला परिषदों की स्वायत्तता और शक्ति स्वायत्त ज़िला परिषदों के कार्यकलाप को संचालित करने वाले अभिजात वर्ग के एक छोटे समूह के हाथों में होती है।        
विकास के मामले में और निर्णय लेने की प्रक्रिया में पांचवीं अनुसूचित क्षेत्र की ग्राम सभाओं की तुलना में स्थानीय हितधारकों की भागीदारी बेहद कम होती है और एक तरह से उनके लोकतांत्रिक अधिकारों से उन्हें वंचित रखा जाता है। जबकि पांचवीं अनुसूचित क्षेत्र की त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था में (74 वें संशोधन नगर निकायों के ) जिला योजन समिति जैसी संवैधानिक संस्था का प्रावधान है। स्थानीय संसाधनों के विकास के इस्तेमाल के लिए आज की तारीख में यही एकमात्र संवैधानिक संस्था है जिसमें ग्राम सभाओं की हकदारी को सुनिश्चित  किया गया है। इसके अतिरिक्त छठी अनुसूची ने राज्यपाल को अत्यधिक शक्तियाँ प्रदान की हैं। कई स्वायत्त ज़िला परिषदों के सदस्यों का मत है कि राज्यपाल मंत्रियों के हाथों की कठपुतली मात्र होता है। ADCs के कार्यकलाप में एक प्रमुख अंतर ग्राम और क्षेत्र स्तर पर पारस्परिक विचार-विमर्श की कमी का है। सशक्त ग्राम सभाओं या और सशक्त क्षेत्रीय परिषदों का अभाव भी नज़र आता है। छठी अनुसूची के पैटर्न का सबसे बड़ा खतरा ग्राम सभाओं को अशक्त होने से रोकना और उसके निर्णय लेने की क्षमता को बचाए रखने की है।


यह सही है कि अनुसूचित जनजातियों के विभिन्न समूहों में गांव के ऊपर स्वशासी संस्थाएं हैं। कई जगहों पर यह सांकेतिक मात्र रह गया है बावजूद इसके स्थानीय समुदायों का लगाव इन संस्थाओं के प्रति है। छठी अनुसूची के ADCs की तर्ज पर झारखंड में इन संस्थाओं को नियमावली में जगह देने की बात की जा रही है। यह विकल्प तो हो सकता है लेकिन इसके लिए पूरी प्रशासनिक ढांचे को शीर्षासन की जरूरत पड़ेगी। राज्य में राजनैतिक इच्छाशक्ति का आलम है कि ग्राम सभाओं के अधिकारों में विभिन्न कानूनों के माध्यम से कैसे कटौती की जाए और संसाधनों पर उनके हक को कम या खत्म किया जाए इस पर ही सरकार का ज्यादा जोर है। ऐसे में 29 सालों के बाद भी  सरकारी कदम ताल  का हिस्सा बनना है या सरकार को पेसा को लागू करने के लिए बाध्य करना है, यह निर्णय समुदायों को लेना है।

(इस आलेख में निहित विचार लेखक के निजी हैं। इनका द फॉलोअप के साथ कोई लेना-देना नहीं है)

 

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