दयानंद राय
आज अगर पत्रकारिता के किसी स्टूडेंट से पूछ दिया जाये कि क्या आप स्वामीनाथन सदानंद को जानते हैं तो इसकी संभावना बहुत कम है कि वो कहें कि हां मैं उनको जानता हूं। और जब पत्रकारिता को 13 साल तक अपना जीवन देने के बाद मुझसे पूछा जाये कि एक पत्रकार के रुप में मैं किसे आदर्श मानता हूं तो मैं नि:संकोच कहूंगा कि स्वामीनाथन सदानंद को। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि मैं दयानंद हूं और वे सदानंद थे। अब जब आपकी रुचि स्वामीनाथन सदानंद में जगने लगी है तो मेरा कर्तव्य है कि मैं पत्रकारिता के इस पुरोधा के प्रति अपने शब्द निवेदित करुं। यह उनको मेरी श्रद्धांजलि भी है और उनकी पत्रकारिता की जानकारी लोगों को देने का तरीका भी।
फीयरलेस एडिटर
स्वामीनाथन सदानंद का जन्म वर्ष 1900 में किसी दिन हुआ था। किसी दिन इसलिए क्योंकि किसी को मालूम नहीं कि उनका जन्म किस दिन हुआ था। वे आजादी के पूर्व और आजादी के बाद 1960 तक की भारतीय पत्रकारिता के सूर्य थे। अपनी पत्रकारिता के सिद्धांतों पर चलने के कारण उन्हें बहुत कष्ट झेलना पड़ा पर वे टस से मस नहीं हुए। स्वामीनाथन सदानंद द फ्री प्रेस जर्नल और बाद में रामनाथ गोयनका के स्वामित्व वाले इंडियन एक्सप्रेस के पहले मालिक थे। फ्री प्रेस जर्नल शुरु में सायक्लोस्टाइल्ड कॉपी में निकलता था और इसकी पहली प्रिंटेड कॉपी 13 जून 1930 को छपी थी। उनके साथ काम कर चुके और अब दिवंगत पत्रकार एमवी कामथ के मत में स्वामीनाथन सदानंद फीयरलेस एडिटर थे। इस जर्नल में चार पन्ने होते थे और मूल्य था तीन पैसा।
मैट्रिक पास भी नहीं थे सदानंद
स्वामीनाथन सदानंद मैट्रिक पास भी नहीं थे पर स्वध्याय से उन्होंने अंग्रेजी साहित्य पर इतना अधिकार कर लिया था कि न्यूयार्क टाइम्स जैसे प्रतिष्ठित अखबार तक का मत था कि फ्री प्रेस जर्नल के चार पन्नों में वही छपता है जो छपने योग्य होता है। असल में स्वामीनाथन सदानंद एक पढ़ाकू और लड़ाकू पत्रकार थे। उनके लिए पत्रकारिता देश की सेवा और देश की सेवा पत्रकारिता थी।
ब्रिटिश साम्राज्य से लड़ने की कीमत चुकानी पड़ी
स्वामीनाथन सदानंद जब फ्री प्रेस जर्नल निकाल रहे थे तो उस समय ब्रिटिश साम्राज्य देश में बेहद मजबूत था। ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ और भारत के स्वतंत्रता संग्राम की खबरें छापने की सजा स्वामीनाथन सदानंद को भुगतनी पड़ी पर वे निडर बने रहे। फ्री प्रेस जर्नल के छपने के छह महीने के अंतराल में ही उन्हें स्वतंत्रता संग्राम पर आधारित सामग्री प्रकाशित करने के लिए तीन महीने की जेल हुई और 6000 रुपये बतौर जुर्माना चुकाना पड़ा। जब 1932 में सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरु हुआ तो सदानंद तब 32 साल के थे। इसकी खबरें छापने पर उन्हें फिर छह महीने की जेल और 6000 रुपये का जुर्माना चुकाना पड़ा। पर स्वामीनाथन सदानंद को बंदिशें कहां रोकनेवाली थी। अंग्रेजी सरकार के दमन से वे डरनेवाले नहीं थे। जब उन्होंने महात्मा गांधी पर एक आलेख प्रकाशित किया तो उनपर दस हजार रुपये का जुर्माना फिर किया गया। जब क्वेटा में आये भूकंप में प्रशासनिक उदासीनता की उन्होंने खबर प्रकाशित की तो उन्हें फिर 20,000 रुपये का जुर्माना भरना पड़ा। हाल यह था कि उस जमाने में फ्री प्रेस जर्नल पढ़ना वैसा ही था जैसे खादी पहनना या चरखा चलाना। अब सदानंद इतने अमीर तो नहीं थे कि इतना पैसा चुका पाते पर वह जो काम कर रहे थे उसमें उन्हें सहयोग करनेवाले भी थे। वो थे वालचंद हीराचंद, माथुरदास विशनजी, पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास, भुलाभाई देसाई और बीजी खेर। ये सदानंद और फ्री प्रेस जर्नल पर हुए जुर्माने की रकम चुकाने में सदानंद की मदद करते और बदले में सदानंद देश की लड़ाई कलम से लड़ते।
अखबार किसी पार्टी का नहीं होता
स्वामीनाथन सदानंद जितने दबंग पत्रकार थे उससे ज्यादा उसूल के पक्के इंसान। उनका मत था कि अखबार को किसी राजनीतिक दल का नहीं होना चाहिए। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में उनका अखबार देश की आवाज था पर वे कांग्रेस के सदस्य नहीं थे। यहां तक की स्वतंत्रता मिलने के बाद भी वे कांग्रेस से नहीं जुड़े और यह भी ध्यान रखा कि उनके अखबार में कार्यरत कोई व्यक्ति किसी दल का सदस्य न बने। एक बार एमवी कामथ जो फ्री प्रेस जर्नल में उनसे जूनियर थे जब सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य बने तो उन्होंने ऑफिस में बुलाकर एमवी कामथ को कसकर डांटा और कहा कि या तो फ्री प्रेस जर्नल छोड़ दो या फिर सोशलिस्ट पार्टी की सदस्यता त्याग दो। एमवी कामथ ने सोशलिस्ट पार्टी की सदस्यता त्याग दी। स्वामीनाथन सदानंद एक दिन में फ्री प्रेस जर्नल के संपादक नहीं बने थे। उन्होंने कड़ी तपस्या की थी। अपने पत्रकारिता के करियर की शुरुआत उन्होंने एसोसिएटेड प्रेस ऑफ इंडिया से की। इसके बाद वो इलाहाबाद गये और वहां इंडीपेंडेंट ज्वाइन किया। इसके बाद उन्होंने रंगून टाइम्स के लिए भी थोड़े दिनों तक काम किया। वर्ष 1953 में स्वामीनाथन सदानंद का निधन हो गया। उन्हें देश की पहली न्यूज एजेंसी फ्री प्रेस ऑफ इंडिया शुरु करने का भी श्रेय जाता है। आजादी के इस महान योद्धा और पत्रकार को मेरा शत-शत नमन।