दयानंद रायः
महान शख्सियतों के जीवन में विडंबनाओं के एकाधिक पल अनिवार्य रुप से रहते हैं। मधुशाला के रचनाकार डॉ हरिवंश राय बच्चन के जीवन में भी थे। उनके जीवन में इसलिए थे क्योंकि वे कुछ बड़ा कर रहे थे, कुछ बड़ा रचनेवाले थे। वे रचना का यज्ञ कर रहे थे और उसमें उनकी कड़ी परीक्षा भी होनेवाली थी। यह साल 1954 का कोई महीना था। बच्चनजी कैंब्रिज से इट्स के काव्य में निगूढ़ तत्व विषय पर पीएचडी की डिग्री ले चुके थे। अपनी पीएचडी के लिए इलाहाबाद से उड़कर इंग्लैंड में दो वर्षों से अधिक का समय व्यतीत कर चुके थे। पर अब उनकी असल परीक्षा होनेवाली थी। नियति का व्यंग्य बाण उन्हें झेलना था। पीएचडी की डिग्री लेने के लिए कॉन्वोकेशन का वक्त आ चुका था पर डॉ हरिवंश राय बच्चन परेशान थे। किसी तरह आर्थिक तंगी से गुजरते हुए उन्होंने पीएचडी तो कर ली थी पर उनके पास कॉन्वोकेशन में पहने जाने योग्य गाउन और चौखटी चोटीदार टोपी पहनने के पैसे नहीं थे। पैसे तो उनके पास पीएचडी की डिग्री लेने के लिए कॉलेज की फीस चुकाने के लिए भी नहीं थे पर भला हो बावा का कि उन्होंने उनकी डिग्री की फीस पांच पौंड कॉलेज को चुका दी। पर गाउन का खर्च तो बहुत कोशिश करने पर भी डॉ हरिवंश राय बच्चन नहीं जुटा पाये। अब जो होनेवाला था वह जिंदगी का एक बेहद शर्मनाक क्षण था।
मांगा हुआ सूट
कहां कैंब्रिज की अंग्रेजी में सर्वोच्च डिग्री पाने का सुख और कहां उसके लिए गाउन भी न सिला पाने की बेबसी या यूं कहें कि कृष्ण होकर सुदामा की बेबसी झेलने के लिए डॉ बच्चन खुद को तैयार कर रहे थे। खैर, कॉन्वोकेशन का दिन आया। डॉ बच्चन के ही शब्दों में सूट किसी से मांगनी पड़ी। पहनकर चार्ली चैप्लीन लग रहा हूं। अपने पर ठठाकर हंसता हूं। रुदन कभी कभी हंसी का बाना धारण करता है। छिपता है क्या। एक हीन भावना मन में उठना स्वभाविक है। मैंने पीएचडी का गाउन और हुड दुकानों में शीशे के लंबे केसों में सजा अक्सर देखा था। अक्सर उनके सामने से जाते हुए सोचा था, एक दिन मैं ऐसा गाउन पहनने का अधिकारी बनूंगा। कितनी बार अपनी पीठ पर उस गाउन की कल्पना भी की थी, अच्छा सजता मुझ पर। आज जब मैं उसे पहनने का अधिकारी हूं तो नहीं पहन सका। नहीं खरीद सका। लाचारी अपने को संतोष देने के बहुत से तर्क खोज लेती है। गाउन नहीं पहनने से मेरी डिग्री तो मुझसे नहीं छीन जायेगी। मांगा हुआ गाउन पहनने की डॉ बच्चन की बेबसी तब और बढ़ गयी जब उनके गुरु मिस्टर हेन की पत्नी ने उनसे कहा, आज मैं तुमको पीएचडी के शानदार गाउन में देखने की प्रत्याशा कर रही थी। अब डॉ बच्चन क्या कहते मिसेज हेन से की उनके पास इतने पैसे भी नहीं बचे कि वे एक गाउन खरीद सकें। नियति ने बेबसी के पल तय कर रखे हैं तो उन्हें तो जीना ही था बच्चनजी को।
संत को कष्ट सहन करना ही होता है
कभी-कभी सोचता हूं कि संतों को कष्ट क्यों सहन करना होता है। कैंब्रिज के जिस सेंट कैथरींस कॉलेज के डॉ बच्चन विद्यार्थी रहे उनके जीवन में भी तो अपार दुख था। दुख का प्याला पीकर ही तो कैथरीन सेंट कैथरीन हुईं। सेंट कैथरीन जिनके नाम से सेंट कैथरींस कॉलेज है पुराकाल में एक साध्वी थीं जिसे रोमनों ने लोहे के पहिये के नीचे कुचल कुचल कर मरणांतक यातनाएं दी थीं, बाद को यही पहिया सेंट कैथरीन की अदम्य आस्था का प्रतीक हुआ। जैसे क्रॉस क्राइस्ट का। जब उनके नाम पर कॉलेज का नामकरण हुआ तो तब पहिया कॉलेज का विशेष चिन्ह बनाया गया। डॉ बच्चन के शब्दों में जब-जब मुझे मानसिक यातनाओं से गुजरना पड़ा था, यह पहिया मुझे याद आया था। मैं उस कॉलेज का सदस्य हूं जिसकी संरक्षिका सेंट कैथरीन हैं। मुझे उसके धैर्य और आस्था से बल संचय करना चाहिए। नियति ने यों ही नहीं किसी ध्येय से मुझे सेंट कैथरींस कॉलेज का सदस्य बनाया है। अगर आज मैं जीवन के पहिये के नीचे हूं तो क्या शिकायत करुं। मुझसे बहुत बड़े, बहुत निर्दोष, बहुत पावन जीवन पहिए के नीचे आ चुके हैं और उन्होंने जो वेदना झेली है उसे देखकर बहुतों को अपनी वेदना झेलना सहज हुआ है। डॉ बच्चन संत कैथरीन के सामने नतमस्तक होते हैं। वापस भारत आते हैं और जो लिखते हैं चार खंडों की अपनी आत्मकथा के रुप में फिर उसकी जोड़ की कोई दूसरी आत्मकथा अभी तक नहीं लिख सका है। डॉ बच्चन कालजयी हैं। उनका लेखन कालजयी है। उन्होंने जो साधना की उसी का परिणाम है कि बच्चन परिवार लगातार उन्नति के पथ पर है। पर उन्नति का पथ कितनी कुर्बानियां मांगता है यह बच्चनजी से बेहतर शायद ही कोई समझे। उनकी यह कहानी लिखते हुए मैं सेंट कैथरीन और स्वयं बच्चनजी को नमन कर रहा हूं। शायद कभी कोई वेदना का क्षण आये तो मैं भी खुद के लिए ताकत संजो सकूं।