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देवी दुर्गा शक्ति स्वरूपा : सुशीला सामद- नारी चेतना की आवाज पहली आदिवासी महिला संपादक

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Zeb Akhtar

तस्वीर में दिख रही महिला सुशीला सामद हैं। देश की पहली महिला आदिवासी विदुषी, कवि, पत्रकार और संपादक। सुशीला सामद ने 100 साल पहले औपनिवेशिक शासनकाल में नारी चेतना की आवाज बुलंद की। उन्होंने महिला अधिकारों की बात की। पुरुषों के साथ बराबरी से खड़ा होने के लिए संघर्ष किया। सुशीला सामद महात्मा गांधी के सत्याग्रह आंदोलन का भी हिस्सा रहीं। सुशीला समाद देश की पहली आदिवासी महिला सुराजी भी बनीं। औपनिवेशिक शासनकाल में जब किसी भी महिला के लिए यह सबकुछ ख्वाब जैसा लग सकता है, सोचिए कि सुशीला सामद ने यह कैसे किया होगा। बात 100 साल पुरानी है। उस समाज में महिलाओं का घर से निकलना तो दूर, बोलना भी वर्जित था। समाज के महिलाओं पर लगाई अनगिनत पाबंदियों के बीच सुशीला सामद का इतना कुछ हासिल करना निश्चित रूप से महिषासुर को हराने से कम नहीं रहा होगा। सुशीला सामद, महिषासुर रूपी चुनौतियों को हराकर उपलब्धियों का शिखर खड़ा कर पाईं क्योंकि वह जिस समाज से आती हैं, उसमें जन्मजात जुझारुपन है। झारखंड में सिंहभूम का इलाका अपनी कभी ना हार मानने वाली प्रवृत्ति के लिए मशहूर रहा है। सुशीला सामद पर सिंहभूम की उस मिट्टी का खूब प्रभाव पड़ा।

सिंहभूम के जुझारुपन और लड़ाकू प्रवृत्ति का सुशीला पर प्रभाव 
सिंहभूम के जुझारुपन और लड़ाकू प्रवृत्ति का एक बेहतरीन उदाहरण बताते हैं। 1757 में पलासी की लड़ाई में सिराजुद्दौला को हराने के बाद अंग्रेजों को बंगाल की दीवानी मिल गई। उन्होंने कोलकाता भी हथिया लिया, लेकिन बंगाल की सीमा से लगे सिंहभूम पर पैर जमाने में उन्हें और 70 साल लगे। सुशीला सामद इसी सिंहभूम की मिट्टी की पैदाइश थीं। सिंहभूम के लउजोड़ा गांव में पिता मोहनराम संदिल और मां लालमनी संदिल के घर 7 जून 1906 को सुशीला सामद का जन्म हुआ। सुशीला 5 बहनों में सबसे छोटी थीं। सुशीला की बड़ी बहनें थीं, मुन्नी, सोना, चांद और तारा। एक भाई था हरिपद सामद। स्कूली शिक्षा पूरी करने के तुरंत बाद करीब 16 साल की उम्र में सुशीला सामद की शादी, टाटा स्टील में काम करने वाले शिवचरण सामद से हो गई। सुशीला से बड़ी तारा सामद की शादी देवेंद्रनाथ सामद से हुई। देवेंद्रनाथ वकालत की पढ़ाई करने वाले पहले आदिवासी युवक थे। देवेंद्रनाथ को सुशीला से खास लगाव था। वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सुशीला के अंदर छिपी बेचैनी और मुखालफत की चिंगारी को पहचाना। देवेंद्रनाथ समझ गए थे कि सुशीला घर की चहारदीवारी में कैद रहने वाली साधारण महिला नहीं हैं। देवेंद्रनाथ ने सुशीला को लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। देवेंद्रनाथ उस समय चांदनी नाम की प्रतिष्ठित आदिवासी साहित्य पत्रिका के संपादक थे। बहरहाल, सुशीला सामद तब तक बच्चे की मां बन चुकी थी। 

देश की पहली आदिवासी हिंदी विदुषी

सुशीला सामद ने लेखन के साथ आगे की पढाई करने की भी इच्छा जाहिर की। देवेंद्रनाथ ने भरपूर साथ दिया। सुशीला सामद ने 4-5 सालों के बाद फिर से पढाई शुरू की। 1934 में उन्होंने प्रयागराज महिला विद्यापीठ से हिंदी विदुषी यानी ऑनर्स स्नातक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। इस तरह वो देश की पहली आदिवासी हिंदी विदुषी महिला बनीं। इस बीच उनका कविता लेखन भी परवान चढ़ रहा था। अफसोस कि हिंदी में लिखने के बावजूद उनकी कविताओं को हिंदी साहित्य में वो मुकाम कभी नहीं मिला जिसकी वो सही मायनों में हकदार थीं। उनका पहला कविता संग्रह प्रलाप 1935 में प्रकाशित हो चुका था। इसी प्रलाप का पुनर्प्रकाशन पर आदिवासी मामलों की जानकार और लेखिका वंदना टेटे लिखती हैं,  सुशीला सामद के हिंदी साहित्य को इतिहास के मठाधीशों ने फाड़कर फेंक दिया है। इसीलिए कि आदिवासी हिंदी के आरंभिक काल से ही लिख रहे थे। इसीलिए कि आदिवासी होते हुए भी अपनी पहली ही हिंदी कविता संकलन से तत्कालीन कविता के शीर्ष को छू लेने वाली इस आदिवासी कवयित्री को वे स्वीकार नहीं करना चाहते। इसलिए कि वे महिलाओं को साहित्य लेखन का श्रेय देने को तैयार नहीं थे। इसलिए भी कि वे आदिवासियत की आवाज को दबाना चाहते थे। दरअसल, साहित्य का समूचा इतिहास लेखन आधी-अधूरी, नस्लीय, सामंती और लैंगिक भेदभाव से भरा है। सुशीला सामद की जानबूझ कर की गई उपेक्षा और अनुपस्थिति यही बात साबित करती है। 

हिंदी के साथ मुंडारी में भी कविताएं लिखीं 
वंदना आगे कहती हैं, ये कितना त्रासद है कि महादेवी वर्मा और सुशीला सामद एक ही समय में साथ-साथ लिख रही होती हैं लेकिन, साहित्य जगत ने एक को शीर्ष पर पहुंचा दिया वहीं दूसरी को याद करना भी मुनासिब न समझा। बहरहाल, बाद में जब सुशीला सामद के बहनोई देवेंद्रनाथ एमएलसी बनकर बिहार विधानसभा चले गये तो ‘चांदनी’ पत्रिका के संपादन की जिम्मेदारी भी सुशीला के कंधों पर आ गयी। उन्होंने पांच सालों तक इस पत्रिका का संपादन किया। जिसे उस समय के हिंदी जगत में नोटिस किया गया। बहरहाल उन्होंने न सिर्फ हिंदी में बल्कि अपनी मातृभाषा मुंडारी में भी कविताएं लिखीं। 

स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदारी
ये अध्याय अधूरा ही माना जायेगा अगर बात सुशीला सामद के स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदारी न की जाये। आजादी की लडाई में सुशीला सिंहभूम और कोल्हान के महिलाओं का नेतृत्व भी करती थीं। 12 मार्च 1930 को जब गांधी ने डांडी मार्च की शुरुआत की तो इसकी चिंगारी झारखंड तक पहुंची। उस वक्त सुशीला ने ही गांधी का साथ देने के लिए महिलाओं को प्रेरित किया। जब एक जनवरी 1948 को खरसावां गोलीकांड हुआ, जिसे आजाद भारत का जलियावाला गोलीकांड के नाम से जाता है, तो इस गोलीकांड में घायल होने वालों की मदद करने में आगे-आगे रही थीं। बहरहाल सुशीला सामद के दो काव्य संग्रह प्रलाप और सपनों का संसार प्रकाशित हुए औऱ बिहार विधानसभा में उन्होंने एमएलसी के रूप में भी काम किया।

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